जब तानाशाह से आजिज आकर मज़दूरों ने सरकार पर ही कब्ज़ा कर लिया; पेरिस कम्यून-1

paris commune

By शेखर

पेरिस कम्यून मजदूर वर्ग का पहला राज्य था। स्वभाविक है कि पेरिस कम्यून की स्थापना का दिन यानी 18 मार्च, 1871 का दिन मजदूर वर्ग के लिए एक खास महत्व का दिन है। पेरिस कम्यून के पहले यूरोपीय मजदूर वर्ग के आंदोलन का एक लम्बा इतिहास रहा है, जैसे मताधिकार के लिए इंगलैंड के मजदूरों का प्रतिष्ठित चार्टिस्ट आंदोलन तथा 1848 के जून महीने में फ्रांस के मजदूर वर्ग की पूंजीपति वर्ग के खिलाफ अतिमहत्वपूर्ण लड़ाई यानी फ्रांसिसी मजदूरों का “जून विद्रोह” आदि।

19 जुलाई, 1870 को प्रशा (जर्मनी का एक राज्य) के साथ फ्रांस का युद्ध शुरू हुआ तो भ्रष्टाचार और कुशासन से जर्जर फ्रांस के राजा नेपोलियन तृतीय की सत्ता सितंबर में भरभराकर ढह गयी। पेरिस में जनतंत्र की स्थापना के लिए रास्ता साफ हुआ और प्रशा के साथ युद्ध भी जारी रहा। परंतु इस जनतंत्र पर बड़े पूंजीपति काबिज थे।

दूसरी तरफ, प्रशा के साथ युद्ध के दौरान बने सैन्य दल ‘नेशनल गार्ड्स’ में मुख्यतः मजदूर ही शामिल थे, खासकर पेरिस में। प्रशा से युद्ध जीतने के लिए इस जनतंत्र पर काबिज पूंजीपतियों के लिए जरूरी था कि वे आम अवाम को हथियारबंद करके प्रशा के खिलाफ राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध संगठित करें।

लेकिन, जिन पूंजीपतियों के हाथ-पैर पहले ही पेरिस के हथियारबंद मजदूरों के डर से फूले हुए थे, वे भला आम अवाम को हथियारबंद करने का खतरा क्यों उठाते? उनके लिए इस खतरे से बेहतर था आत्मसपर्मण कर देना। और उन्होंने ऐसा ही किया। जनता की भावनाओं को ठुकराते हुए राष्ट्रीय स्तर पर आत्मसमर्पण कर दिया गया। जनता और खासकर मजदूर इसे “राष्ट्रीय दगाबाजी की सरकार” कहते थे।

जनवरी 1871 को पेरिस की ‘जनतंत्रवादी’ सरकार ने पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया। वर्साय ( फ्रांस का एक राज्य) में जर्मन बादशाह की घोषणा हुई जिसमें प्रशा का राजा जर्मनी का पहला बादशाह बना। 28 फरवरी 1871 में फ्रांस और जर्मनी के बीच शांति संधि पर हस्ताक्षर हुआ जिसकी शर्तों के मुताबिक पूरे अल्सास और लॉरेन प्रदेश को 5 अरब फ्रैंक जुर्माने के साथ जर्मनी को सौंप दिया गया।

फरवरी 1871 में सम्पन्न हुए चुनाव में घोर प्रतिक्रियावादी थियेर फ्रांसिसी सरकार का प्रमुख बन गया।

थियेर के प्रमुख बनते ही, जैसा कि उम्मीद थी, “नेशनल गार्ड्स”, जिसमें मुख्य रूप से मजदूर शामिल थे, के हथियार वापस ले लेने का आदेश दे दिया गया। पूंजीपतियों और उनके दलालों को यह डर सता रहा था कि मजदूर कभी भी उन हथियारों का उपयोग पूंजीपतियों के शोषण को उखाड़ फेंकने के लिए कर सकते हैं।

इसके अतिरिक्त मजदूरों के हाथों में उन हथियारों के रहते पूंजीपतियां के लिए मजदूरों के साथ मनमानी करना कठिन था। उनके लिए हथियारबंद मजदूर दुःस्वप्न जैसे थे।

पूंजीपतियों का डर अस्वभाविक भी नहीं था। मजदूर वर्ग को तो अपने जन्म काल से ही पूंजीपतियों के खिलाफ कदम-कदम पर लोहा लेना पड़ता है और संभव है कि मजदूर पूंजीपतियों का तख्ता पलट देना चाहेंगे।

पूंजीपति वर्ग, सेठ, साहुकार, सूदखोर और उनके दलालों, जमींदारों और उनके गुंडां को, इन रक्तपिपासुओं को क्या हथियारबंद मजदूरों से डर नहीं लगेगा? और क्या मजदूर भी अपने हाथों में आये हथियारों का उपयोग अपनी सुरक्षा में या पूंजीपतियों का तख्ता पलट देने में नहीं करेंगे या नहीं करना चाहेंगे?

जाहिर है मजदूर ऐसा ही करेंगे। फ्रांसिसी (पेरिस के) मजदूरों ने भी ऐसा ही किया और हथियार लौटाने से इनकार ही नहीं किया, बल्कि पेरिस की सत्ता अपने हाथों में ले ली। 26 मार्च 1871 को सत्ता के सर्वोच्च अंग के रूप में सार्विक मतदान के जरिये कम्यून की स्थापना कर ली गयी।

जब 1 मार्च 1871 को थियेर ने मजदूरों से हथियारों की वापसी व वसूली के लिए अपनी फौजों को पेरिस कूच करने का आदेश दिया तो पेरिस की तमाम मेहनतकश आबादी सड़कों पर आ गयी। बंदूकों की गड़गड़ाहट गूंज उठी। पूंजीपतियों का दलाल थियेर वर्साय भाग गया। मजदूरों के प्रथम राज्य की अमर कहानी का यह प्रथम दौर था जो पूरा हुआ।

पेरिस कम्यून की स्थापना में सभी तरह के कुशल और अकुशल मजदूर शामिल थे। इनके अतिरिक्त छोटे व्यवसायकर्मी, किरानी और शिक्षक भी शामिल थे। मूर्तिकार, लकड़हारा, दर्जी, चर्मकार, पत्थर तोड़़ने वाले, सुनार, राजमिस्त्रा, बढ़ई मिस्त्रा, जूता बनाने वाले, कम्पोजिटर और प्रेस मजदूर सभी लोग शामिल थे।

पेरिस कम्यून में पौलैंड और जर्मनी के मज़दूरों नें भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था और वे कम्यूनवादी सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर थे। पेरिस कम्यून अंतराष्ट्रीयतावाद की भावना का प्रत्यक्ष और ठोस मिसाल था।

इससे शायद ही किसी को इनकार हो कि पेरिस कम्यून की बहुतेरी ऐतिहासिक सीमायें थीं। पेरिस कम्यून का मूल्यांकन करते वक्त इनका ख्याल रखा जाना चाहिए। हमें पेरिस कम्यून को मजदूर राज्य के प्रथम प्रारूप और अंखुए के रूप में और भविष्य के मजदूर वर्गीय राज्य के लिए एक शुरूआती मॉडल के रूप में ही देखना चाहिए, न कि कोई तयशुदा मॉडल के रूप में। (क्रमशः)

(पेरिस कम्यून के 150 वर्ष (18 मार्च 1871-2021) के अवसर पर, यथार्थ पत्रिका से साभार)

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