दुनिया की पहली मज़दूर सरकार आज के ही दिन 150 साल पहले पेरिस में बनी; पेरिस कम्यून पर विशेष

paris commune

आज से ठीक 150 साल पहले 18 मार्च 1871 को, फ्रांस के पेरिस शहर में मज़दूरों और मेहनतकश जनता , जो की युद्ध से पस्त, बेरोज़गारी और महंगाई से बेजार, जमींदारों और पूंजीपतियों के क़र्ज़ से आजिज आकर पेरिस शहर पे कब्ज़ा कर लिया था और जनता ने दमनकारी सामंती व्यस्था को उखाड़ कर एक न्यायपूर्ण समाजवादी व्यस्था बहाल किया था।

इतिहास में इसे पेरिस कम्यून कहा गया जिसमे कुछ दिनों के लिए ही सही, पेरिस के मज़दूरों ने पुरानी दुनिया को ख़तम कर उसके अन्यायपूर्ण खंडहरों पे एक नया और न्याय संगत विश्व बनाया।

हालाँकि, 21-28 मई के बीच एक वहशी हमले में फ्रांसीसी सेना द्वारा इस कम्यून को कुचल दिया गया था, (जिसमें 50,000 के करीब श्रमिकों ने शहादतें दीं और हजारों को जेलों में बंद कर दिया गया था), तब भी इसने इस बात की झलक तो दे ही दी थी कि जब मेहनतकश जनता अपने जमीन, जीवन और आजीविका के मसले अपने हाथों में लेती है तो क्या नज़ारा होता है।

अपने मात्र दो महीने छोटे जीवन में ही पेरिस कम्यून में कई उल्लेखनीय चीजें सामने आईं थी। सभी कारखाने जो अपने मालिकों द्वारा सड़ने के लिए छोड़ दिए गए थे, श्रमिकों द्वारा खुद से चलाए गए। भूस्वामियों और व्यापारियों के अथाह कर्ज के कारण कराह रहे सभी छोटे किसानों और दुकानदारों के क़र्ज़ को रद्द कर दिया गया था।

वे सभी छोटे दुकानदार जो जर्मनी के साथ युद्ध के दौरान कोई पैसा नहीं कमा पाए थे उन सबके दुकान के किराए भी निलंबित कर दिए गए , पेरिस कम्यून ने सभी के लिए मुफ्त शिक्षा योजना शुरू की और किसी भी कारखाने में ओवरटाइम की अवधारणा को ही समाप्त कर दिया।

पेरिस कम्यून का कोई एक करिश्माई या विलक्षण नेता नहीं था बल्कि पेरिस सरकार (जिसे नेशनल असेंबली के रूप में जाना जाता था ) को वास्तविक आम जनप्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता था।

पेरिस कम्यून, जो सभी कामकाजी जनता के लिए एक सामूहिक जगह थी और जहा पे राष्ट्रीय सीमाओं का कोई रेखांकन नहीं था, जैसेकि असेम्ब्ली के महत्वपूर्ण सदस्यों में से एक, कॉमरेड जाब्रोवस्की जोकि एक पोलिश कार्यकर्ता थे और फ्रांसीसी सेना के खिलाफ मज़दूरों के तरफ से प्रतिरोध के प्रभारी थे।

जाब्रोस्की ने मई की भीषण लड़ाई वाले सप्ताहांत के दौरान जमींदारों और पूंजीपतियों की फ्रांसीसी सेना से लड़ते हुए शहादत प्राप्त की थी ।

पेरिस कम्यून में न तो पुलिस थी और नाही सेना। हालाँकि आम लोगों ने स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए खुद को ही पुलिस की भूमिका में बदल दिया था और कम्यून को बचाने के लिए सेना के रूप में भी।

उस समय पेरिस में रहने वाले सभी लोगों की मजदूरी, श्रमिकों से लेकर राष्ट्रीय सभा के सदस्यों की कानूनी रूप से सामान थी। सभी पहलें मेहनतकश जनता के सामूहिक चेतना से पैदा होती थी जिन्होंने राज्य एवं पूंजीपतियों द्वारा जनित भेदभाव और आर्थिक गुलामी रहित एक सुन्दर दुनिया की परिकल्पना की थी!

सिद्धान्तत पेरिस कम्यून की छोटे दुकान मालिकों और किसानों के ऋण को रद्द करने की पहल को देश भर के किसानों को अपने तरफ आकर्षित करना चाहिए था । पर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका क्योंकि फ्रांसीसी सरकार ने पेरिस की घेराबंदी कर दी थी और फ्रांसीसी गांवों से पेरिस के सभी रास्तो को काट दिया था।

आज लोग लगातार पिछले सौ से अधिक वर्षों से, पीढ़ी की पीढ़ी यह सोच के आह भरती है क्या होता, अगर सिर्फ पेरिस के मज़दूर और किसान ही नहीं, बल्कि पूरे फ्रांस के मज़दूर और मेहनतकश इस क्रांति में शामिल हो गए होते।

जैसे-जैसे दुनिया कृषि अर्थव्यवस्था से विनिर्माण उद्योगों तक और हाल में अनौपचारिक श्रम और सेवा आधारित रोज़गार में विकसित हुई , हम में से ज्यादातर को यह आश्चर्य होता रहा है कि क्या फिर से दोबारा पेरिस कम्यून को दुनिया में कहीं भी दोहराया जा सकता है!

मज़दूरों द्वारा लिखे गए इतिहास के इस सुनहरे हिस्से को आज कल भारत में 150 वर्षों के बाद एक प्रतिध्वनि या कहिये एक अनुगूँज मिली है! हालाँकि वर्तमान आंदोलन के वास्तुकार पेरिस के मजदूर नहीं बल्कि भारत के मेहनतकश किसान है।

दिल्ली की सीमाओं पर एक सौ से अधिक दिन गुज़ारने के बाद, लाखों किसान पूरी दुनिया को इस बात की एक झलक दे रहे हैं कि हाँ, ऐसी एक दुनिया बन सकती है, जो उन्ही लोगो द्वारा चलायी जाये जिन लोगो ने उसे खुद बनाया है।

निश्चित रूप से, किसान आंदोलन और पेरिस कम्यून एक जैसे नहीं हैं। 1871 में पेरिस के श्रमिकों का उत्थान पूंजीवादी और सामंती संरचनाओं के सीधे खात्मे के साथ हुआ था।

पेरिस के मजदूरों की बस यह माँग नहीं थी कि कुछ कानूनों को निरस्त किया जाए बल्कि उन्होंने समस्त कारखानों पर कब्ज़ा कर लिया था और अपने लिए खुद का कानून बनाये थे।

किसान आंदोलन अभी तक इस पूँजीवादी राज्य की बुनियाद को चुनौती नही दे  रहा है । लेकिन फिर भी राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों की बहुत सी संभावनाएँ जो कम्यून ने उस ज़माने में विकसित की थी , उसकी गूंज और सम्भावनाये आज के किसान आंदोलन में बीज रूप में पनपती दिखती है ।

 

तो वो चीज़ क्या है, जो वर्तमान किसान आंदोलन में उस कम्यून की झलक दिखलाती है, निश्चर रूप से

धरना स्थलों का स्वयं से संचालन, स्वास्थ्य सुविधाओं, पुस्तकालयों और सभी के लिए अनवरत चलने वाला लंगर, पानी  और आश्रय जो सभी के लिए खुली है और हर व्यक्ति का खुले दिल से बाहें फैलाकर स्वागत करती है।

इस आंदोलन की कमान भी किसी एक विलक्षण या करिश्माई नेता के हाथ में नहीं है वरन पेरिस कम्यून की राष्ट्रीय सभा के जैसे ही राय मशविरे और फैसले  किसान यूनियनों के संयुक्त मोर्चे द्वारा लिया जाता है।

धरना स्थलों पे भी  कोई पुलिस का पहरा नहीं है बल्कि  “ पुलिसिंग ” का काम भी किसानों द्वारा स्वयं किए जा रहे हैं।

जिस तरह उस समय की फ्रांसीसी सरकार ने पुरे पेरिस की घेराबंदी कर कम्यून का दमन किया था, उसी तरह आज सत्ता में बैठे फासीवादियों ने धरना स्थलों की चारो तरफ से बैरिकेडिंग कर किलेबंदी कर दी है ।

राष्ट्रीय राजमार्ग में कील लगाकर, सड़को पे गड्ढे खोद व अन्य सार्वजनिक संपत्ति का नुक्सान करना वैसी ही फितरत दिखाता है जैसा की  तब  देखने को मिला था जब भारी बम बंदूकों के साथ कम्यून पर हमला कर फ्रांसीसी सरकार  द्वारा पेरिस को पूर्ण रूप से क्षत विक्षत कर दिया  गया था।

जिस तरह फ्रांस की सरकार जर्मनी के साथ युद्ध में रहते हुए भी जर्मनी की मांगो को मानने के  लिए तैयार हो गयी थी , ताकि वह कम्यून को नष्ट करने पर अपना ध्यान केंद्रित कर सके, वैसे ही भारत सरकार ने विश्व व्यापार संगठन और विश्व आर्थिक मंच की मांगों पर ध्यान देना जरुरी समझा है , बजाय इसके यह अपने किसानों की बाते सुने ।

पेरिस कम्यून के लोगों का एक नज़रिया यह था कि किसानों के कर्जो को रद्द करके वे देश भर के किसानों को कम्यून की ओर आकर्षित कर सकते है, लेकिन दुर्भाग्यवश  ऐसा नहीं हुआ और अंततः  कम्यून को कुचल दिया गया।

आज इतिहास के एक विडंबनापूर्ण मोड़ पर  भारत का किसान खड़ा है जो पूंजीवाद और फासीवाद के खिलाफ एक संयुक्त संघर्ष में श्रमिकों को भी इस साझा लड़ाई में आने का आह्वान कर रहा है।

पिछले 30 वर्षों में, न केवल भारत के किसान बल्कि पूरा मजदूर वर्ग भी भारत के बड़े पूंजीपतियों और अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी दवारा संचालित और  सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों के कारण अकल्पनीय तबाही देखी है।

मज़दूरों का फैक्ट्रियों में सम्मानपूर्ण स्थायी काम अब एक केवल सपना है ,  अब केवल एक ही चीज स्थायी है कि उनकी ठेके की अनौपचारिक नौकरी ।

गरिमापूर्ण रोजगार के सपने और आशा को अब बेरोजगारी और अपमानजनक अनौपचारिक और अनियमित काम के एक बुरे सपने से बदल दिया गया है। श्रमिकों ने अपना सारा श्रम अधिकार खो दिया है। पूरे देश में मजदूरों के लिए लड़ने वाले यूनियनो  को साजिशन पंगु और खत्म किया जा रहा है।

 

नए श्रम संहिताओं ने मज़दूरों से अपनी पहचान भी छीन ली है क्योंकि सुपरवाइजर सहित कारखाने में किसी भी स्तर पे काम करने वाला भी अब श्रमिक ही कहलाएगा।

जैसा कि भारत में बड़ी ट्रेड यूनियनों ने अपने आप को नौकरशाही और जबानखर्ची  करने वाली संस्थाओं के रूप पतित कर लिया है, इस किसान आंदोलन ने वह मंच तैयार किया है, जहाँ से मजदूर पूँजीपतियों के खिलाफ इस साझा लड़ाई को आगे ले जा सकते हैं।

पेरिस कम्यून इस दुनिया के मेहनतकश लोगों के इतिहास में गौरवशाली आंदोलनों में से एक था और यह इसलिए असफल रहा क्योंकि मेहनतकश जनता और किसान एकजुट नहीं हो पाए थे।

यदि पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा निर्मित “ सम्भावनाओ से भरे इस भारतीय कम्यून ” को इतिहास में अपनी जगह बनानी है और आगे जाना है, तो पूरे भारत के किसान और मज़दूर वर्ग को एकजुट होना ही  होगा, और यह एकता केवल वर्तमान आंदोलन में शुरू हो सकती है ।

पर यह केवल तभी और तभी संभव है जब तीनों कृषि कानूनों की बर्खास्तगी के साथ ही भूमिहीन किसानों के लिए खेती योग्य जमीन की मांग, दलित खेतिहर मज़दूरों की मांग  और मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं को निरस्त करने की मांग भी यह आंदोलन शामिल करे ।

साथ में शहरी गरीबों के लिए बिना शर्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली से अनाज सहित जीवनोपयोगी सभी वस्तुओं का रियायत दर पे उपलब्धता भी इस आंदोलन की एक बड़ी मांग होनी चाहिए।

तभी और सिर्फ तभी , किसान आंदोलन से भी उसी उम्मीद का दिया जल सकता है जिसे 150 साल पहले पेरिस के मज़द्दोरो ने कुछ महीनो के लिए पेरिस कम्यून की शक्ल में जलाया था ।

(पेरिस कम्यून के 150 साल पूरे होने पर यह एक पर्चे की शक्ल में सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा संयुक्त रूप से लिखा गया है, जिसमें वर्कर्स यूनिटी, ग्राउंड ज़ीरो टीएन लेबर वेबसाइटों से जुड़े लोग हैं। )

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