कॉ. एबी बर्धन के बहाने 200 साल पुराने भारतीय मज़दूर वर्ग के आंदोलन पर एक दृष्टि

AB Bardhan

By हरनाम सिंह 

उन्नीसवीं सदी में मार्क्स ने कहा था कि शोषण की बेड़ियों को तोड़ा जा सकता है। बीसवीं सदी में लेनिन ने उसे सच साबित करके दिखा दिया। हमारे देश में भी औपनिवेशिक गुलामी के विरोध में क्रांतिकारियों ने अकूत कुर्बानियां दी थी।

यह नहीं भूला जा सकता कि भगत सिंह और उनके साथियों ने पार्लियामेंट में जब बम फेंका था उस दौरान उनके द्वारा फेंके गए पर्चों में अंग्रेज़ों द्वारा मज़दूरों के विरूद्ध लाए गए ट्रेड डिस्प्यूट बिल का विरोध किया गया था।

एटक के भूतपूर्व महासचिव एबी बर्धन के 95वें जन्म दिवस और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन काँग्रेस (एटक) की स्थापना के शताब्दी वर्ष के अवसर पर 25-26 सितम्बर को आयोजित एक ऑनलाइन सेमिनार में ये बातें एटक की मौजूदा महासचिव अमरजीत कौर ने कहीं।

“भारत के मजदूर आंदोलन की विरासत और आज के संघर्ष” विषय पर ये सेमिनार जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज द्वारा आयोजित किया गया था।

अमरजीत कौर ने कहा कि इस वक्त देश के मजदूर वर्ग के सामने जो चुनौतियाँ है उसे उन्हें मिली विरासत के नज़रिये से देखना होगा। उन्होंने भारतीय मज़दूर वर्ग के आंदोलनों के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि सन् 1820 एवं 1840 के बीच सारी दुनिया में आंदोलन हो रहे थे। सन 1823 में देश में पहली हड़ताल हुई थी। हालाँकि उसका इतिहास नहीं मिलता है।

लेकिन 1827 की हड़ताल का इतिहास है, जब कलकत्ता के श्रमिकों ने अपनी माँगों को लेकर हड़ताल की थी।

ऐसी ही जानकारी 1862 में हड़ताल की भी है। रेलवे, टैक्सी चालक आदि कई श्रम संगठन अपनी माँगों को लेकर संघर्ष कर रहे थे। सन् 1866 में साठ यूनियनों की एक बैठक में काम के घंटे तय किए गए। यह विषय वर्तमान में प्रासंगिक है जब देश के शासक काम के घंटों को बढ़ाकर श्रमिक वर्ग का शोषण करने पर उतारू हैं।

उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई एल ओ) में भी एटक की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उस काल में मज़दूर संगठन देश के अन्य आन्दोलनों को भी समर्थन देते थे जब संचार साधन भी पर्याप्त नहीं थे। वर्तमान में हड़ताल के अधिकारों को छीना जा रहा है।

https://www.youtube.com/watch?v=niGksYAl_Sc&t=87s

उस वक्त हड़तालें बिना यूनियनों के भी होती थीं। जाति आधारित संगठन भी मजदूरों के लिए लड़ रहे थे। सन 1884 में साप्ताहिक अवकाश, भोजन का समय देने बच्चों से श्रम न करवाना आदि माँगों को लेकर कई आंदोलन हुए।

सन् 1890 में मुंबई में 10,000 श्रमिकों की रैली निकली थी। इस रैली में मजदूरों की उपस्थिति को उस काल में देश की जनसंख्या के मान से समझा जा सकता है। देश में श्रमिक आंदोलन विस्तार को देखते हुए यह महत्त्वपूर्ण घटना थी।

भारत के तत्कालीन राजनीतिक संघर्षों में श्रम संगठनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। सन 1899 में कोलकाता में अनेक श्रम संगठन बने विशेषकर जहाजरानी क्षेत्र में श्रमिकों की बेहद मजबूत यूनियन थी। बीसवीं सदी में श्रम संगठन बनाने की प्रक्रिया तेज होती गई।

श्रमिकों के आंदोलन देश की आजादी के आंदोलनों को प्रभावित कर रहे थे। काँग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 50 हजार श्रमिकों ने पहुँच कर आयोजकों  से माँग की थी कि पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया जाए। नेताओं को समझ में आ रहा था कि श्रमिक वर्ग के ये आंदोलन देश की दशा और दिशा को बदल सकते है।

जब अंग्रेज़ों द्वारा बंगाल का विभाजन किया गया तब उसके विरोध में हुए राष्ट्रव्यापी आंदोलनों में मजदूर संगठनों ने भी शिरकत की और हड़ताल कर बंग-भंग का विरोध किया। इन आंदोलनों में किसान भी शामिल होते थे। श्रम संगठनों ने लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी और उन्हें मिली सजा के विरोध में भी हड़ताल की।

देखें- https://www.youtube.com/watch?v=fg-XqHBGw9Q&t=11s

सन् 1908 में तिलक को अंग्रेज़ सरकार द्वारा 6 वर्ष की कारावास की सजा दी गई थी, उसके विरोध में मज़दूरों ने देश में 6 दिन तक हड़ताल किया। विशेषकर सूती वस्त्र उद्योग में यह हड़ताल हुई।

सन् 1861 में फैक्ट्री एक्ट बना 1911 में इस अधिनियम में परिवर्तन हुआ। सन् 1917 में रूस में हुई क्रांति ने दुनिया के मजदूरों को प्रभावित किया। भारत भी इससे अछूता नहीं था।

रूसी क्रांति के नायक कॉमरेड लेनिन ने भारत की आज़ादी को समर्थन दिया, जिससे देश के स्वतंत्रता संग्राम को बल मिला। 31 अक्टूबर 1920 को श्रम संगठन एटक का गठन हुआ जिसके प्रथम महासचिव लाला लाजपत राय बनाए गए।

बाद में एटक के कई अधिवेशनों में जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस के अलावा वी. वी. गिरी, सरोजिनी नायडू, चितरंजन दास आदि शिरकत करते रहे। 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई एल ओ) में देश के मज़दूर वर्ग का नेतृत्व करने का अवसर मिला।

सन् 1921 में एटक का जो संविधान स्वीकार किया गया था उसी संविधान के कई लक्ष्यों को भारत के संविधान में भी शामिल किया गया। वर्तमान में बड़ी कुर्बानियों के पश्चात मिले श्रम अधिकारों को छीना जा रहा है। किसान आंदोलन को कुचलने के लिए भाजपा के गुंडों द्वारा किसानों को पीटा जा रहा है।

ब्रिटिश काल में किसानों आदिवासियों को प्रताड़ित किया गया जिसके चलते उन्हें शहरों में रोज़गार के लिए पलायन करना पड़ा था, आज वैसी ही परिस्थितियाँ बन रही है। सरकार मज़दूरों, किसानों-आदिवासियों को कॉर्पोरेट का गुलाम बनाए रखना चाहती है।

मज़दूर वर्ग की ज़िम्मेदारी है कि वह देश की आज़ादी को बचाने के लिए आगे आए। यह विरासत का ही सबक है कि आज किसान और मज़दूर एक दूसरे के संघर्षों को समर्थन दे रहे है।

देखें- https://www.youtube.com/watch?v=5mZcskb2BQs&t=3s

आज मज़दूरों के साथ कौन खड़ा है इसे पहचानने की जरूरत है। श्रम आंदोलनों के संघर्षों और कुर्बानियों के बाद मिले अधिकार को हम किसी भी कीमत पर छिनने नहीं देंगे। आज़ादी के आंदोलन के दौरान ही यह समझ भी बनी थी कि देश के समस्त प्राकृतिक संसाधन देशवासियों की सम्पत्ति है।

इनका उपयोग देशवासियों को अच्छा जीवन बिताने के लिए किया जाएगा। लंबी बहस के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से विकास का खाका तैयार किया गया। आज की सरकार उन्हीं संसाधनों को बेच रही है।

सभी जानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसकी राजनीतिक शाख जनसंघ, भाजपा का देश की आजादी के संघर्ष में कोई भूमिका नहीं थी। संघ के तत्कालीन नेताओं ने तो कहा था कि अंग्रज़ों से उनकी लड़ाई नहीं है। वे तो मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्टों का विरोध करते हैं।

वर्तमान में संसद में मज़दूर विरोधी बिल पारित किए गए है। सरकार झूठा प्रचार कर रही है कि वह असंगठित मज़दूरों के लिए है। वर्ष 2015 से इन बिलों पर विचार होता रहा था। सरकार द्वारा संसद में जो प्रस्ताव रखे गए वे 2015 के नहीं थे। उन्हें बदल दिया गया।

सांसदों को भी नहीं बताया गया। इन बिलों से हड़ताल के अधिकार समाप्त हो जाएंगे। श्रम संगठन बनाना मुश्किल कर दिया गया है। सामाजिक सुरक्षा को समाप्त कर दिया गया है। वर्ष 2009 में असंगठित मज़दूरों के लिए बनाए कानूनों को समाप्त कर दिया गया है।

इन सब के विरूद्ध चलने वाले हर आंदोलन के साथ खड़े रहने की ज़रूरत है। अन्याय के विरुद्ध हम पहले भी लड़े थे अब भी लडेंगे। जिस समय संसद में कोविड महामारी, प्रवासी मजदूरों, बिगड़ती अर्थव्यवस्था पर विचार होना चाहिए था। उस समय सरकार पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए मज़दूरों, किसानों के विरूद्ध काम कर रही है।

कार्यक्रम के अध्यक्ष और सीपीआई के महासचिव डी. राजा ने कहा कि ‘कॉमरेड बर्धन का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे कुशल वक्ता, लेखक और विचारक थे। उन्होंने देश में संप्रदायवाद और फासीवादी ताकतों को पहचाना और उनसे लड़े।

भारत के शुरुआती मज़दूर आंदोलन पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि सन् 1920 में एटक की स्थापना के बाद 1936 में कॉमरेड पी. सी. जोशी के प्रयासों से अखिल भारतीय किसान सभा, ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन आदि अनेक आनुषंगिक संगठनों का गठन किया गया।

कॉमरेड बर्धन अपने विद्यार्थी दिनों से ही सीपीआई के छात्र संगठन एआईएसएफ से जुड़ गए थे और आज़ादी के आंदोलन में भागीदारी कर रहे थे। मज़दूरों के नेता के रूप में उन्होंने देश को नवउदारवाद के ख़तरों से आगाह किया, और मज़दूरों के संघर्ष को नेतृत्व दिया।

डी राजा ने कहा कि वर्तमान मोदी सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे पर काम कर रही है। आज एक देश, एक संस्कृति, एक टैक्स, एक पार्टी, एक नेता की मांग के बहाने लोकतंत्र को समाप्त किया जा रहा है। लिबरल डेमोक्रेसी के सामने अतिवादी दक्षिण पंथ बड़ी चुनौती बना हुआ है जिसके ख़िलाफ़ कॉमरेड बर्धन जीवन भर लड़े। वे एटक और सीपीआई के महासचिव बने।

 सीपीआई के पूर्व महासचिव कॉमरेड सुधाकर रेड्डी ने कहा कि कॉमरेड बर्धन ने अपना राजनीतिक जीवन महाराष्ट्र के नागपुर से लाल बावटा (झंडा) की यूनियनों के नेतृत्व से प्रारंभ किया। यूपीए सरकार में न्यूनतम कार्यक्रम को अमल करवाने में कॉमरेड बर्धन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यह कार्यक्रम समाज के सभी तबक़ों की भलाई सोचकर बनाया गया था और अनेक कल्याणकारी नीतियाँ उस दौरान बनीं।

उनकी दिलचस्पी और चिंता का एक विषय आदिवासी समाज भी था। उन्होंने उनकी समस्याओं का गहन अध्ययन किया और आदिवासी महासभा का गठन किया। उन्होंने सीपीएम के महासचिव कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत के साथ वाम दलों में आपसी समन्वय एवं संयुक्त कार्यवाही के लिए भी काम किया। उनका जीवन बेहद सादगीपूर्ण था।

जब उन्हें पहली बार विदेश यात्रा पर जाने का अवसर मिला तब उनके पास एक सूट भी नहीं था। वहाँ की ठंड से बचने के लिए वे अपने साथी का सूट पहनकर गए थे। वहाँ से भी उन्होंने खरीदी के नाम पर केवल कुछ पुस्तकें ही खरीदी थीं। देश के कई राजनीतिक दलों के नेता कॉमरेड बर्धन से मिलते थे। पार्टी के काम, और लिखने-पढ़ने से समय निकालकर वे कभी-कभी क्रिकेट कमेन्ट्री सुनते तथा उन सांस्कृतिक आयोजनों में भी शिरकत करते थे जहाँ उन्हें आमंत्रित किया जाता था।

वैचारिक मतभिन्नता के बावजूद कॉमरेड बर्धन ने नक्सलवादियों के एनकाउंटर एवं हत्या पर भी न्यायालय का ध्यान आकृष्ट करवाया था। कोई भी कॉमरेड अपनी छोटी-बड़ी ज़रूरतों के लिए उनके पास पहुँचता तो वे कुछ न कुछ हल निकालते थे।

प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने कॉमरेड बर्धन के साथ गुजारे समय को याद करते हुए बताया कि वे अपने पास अधिक सामान नहीं रखते थे। कॉमरेड बर्धन, जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट द्वारा दिसंबर 2015 में आयोजित परिसंवाद में शामिल हुए। वह उनकी अंतिम बैठक थी।

देश में असहिष्णुता के खिलाफ उस वक्त चल रहे आंदोलन के संदर्भ में कॉ. बर्धन ने कहा था कि फासीवादी ताकतें पहला हमला इतिहास पर ही करेगी। इस परिसंवाद में उन्होंने विख्यात इतिहासकार इरफान हबीब को भी बुलाया। उनका मानना था कि अच्छा श्रोता बनना नेतृत्व का गुण है। वे कॉमरेड गोविंद पानसरे की हत्या पर बहुत दुखी थे।

भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा के महासचिव राकेश ने कॉमरेड बर्धन के साथ अपने 4 दशकों से अधिक संबंधों का जिक्र करते हुए बताया कि इप्टा के पुनर्गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। सन 1984 में इप्टा की पहली बैठक कॉमरेड बर्धन की अध्यक्षता में ही हुई थी। आगरा के पहले सम्मेलन में भी वे शामिल हुए। कॉमरेड बर्धन ने इप्टा आंदोलन को वृहद स्वरूप देते हुए उसे देश की सांस्कृतिक से जोड़ा।

आयोजन के प्रारंभ में संस्था के निदेशक प्रोफेसर अजय पटनायक ने आयोजन की रूपरेखा प्रस्तुत की। कार्यक्रम में मनीष श्रीवास्तव ने भी कुछ संस्मरण सुनाए। आयोजन की समन्वयक जया मेहता ने संचालन करते हुए कहा कि आज जब देश के मजदूर और किसान काले कानूनों के विरूद्ध संघर्षरत हैं ऐसे समय में कॉमरेड बर्धन को याद करने का मतलब उनसे सही समझ और प्रेरणा हासिल करके मज़दूर वर्ग के संघर्ष को और तेज़ करना है।

एटक के 75 वर्ष पूरे होने पर कॉमरेड बर्धन द्वारा 1995  में लिखी गई किताब से जया मेहता ने कुछ महत्त्वपूर्ण अंश पढ़कर सुनाया।

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