लॉकडाउन की कहानियांः मैं उस बच्चे की आंख में नहीं देख सका, उसने बिस्कुट टेबिल पर रखा और चल पड़ा

child need shoes

By सचिन श्रीवास्तव

करीब चार दिन पहले नंगे पैर जख्मों को देखा था तो भोपाल के साथियों से जूतों की अपील की थी। कई साथियों ने अपने गली, मोहल्ले और घरों से जूतों चप्पलों की खासी संख्या विदिशा बाईपास पर हमारे “मजदूर सहयोग केंद्र” पर पहुंचा दी थी। वो जूते एक बच्चे की आंखों में खुशी, जरूरत और हौसले में इस तरह चमकेंगे यह नहीं सोचा था।

सुबह करीब 9 बजे का वक्त था। मैं फोन पर उलझा हुआ साथियों के साथ बातचीत कर रहा था कि उस पर नजर पड़ी। करीब 3 या साढ़े तीन की उम्र होगी। पीली टीशर्ट और मटमैली नीली हाफ पेंट में वह अपनी नाप के जूते देख रहा था। उसे भूख थी, प्यास थी या फिर घर पहुंचने की जल्दी। मुझे नहीं पता। दूर बैठा उसे तकने लगा। साथी उजैर उसकी मां को चप्पल खोजने में मदद कर रहे थे। फिर उसे जैसे जैसे देखता गया, अपने भीतर बहुत कुछ टूटता महसूस किया।

अपने पैरों के जूतों की ओर देखते हुए सोचा कि अभी अभी कार में गर्मी लगने की शिकायत की थी मैंने। एसी ठीक से काम नहीं कर रहा है। अपनी शर्मिंदगी को मैंने झटक दिया। वह बड़ी तल्लीनता से अपने लिए जूते ढूंढ रहा था। मैं उसके पास गया और बिस्कुट का एक पैकेट उसकी तरफ बढ़ाया। उसने बिस्कुट को देखा और फिर जूतों को। हाथ में बिस्कुट ले लिया। इतने में एक फोन आ गया और मैं जवाब देने में मशगूल हो गया।

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child bare foot at bidisha highway in bhopal

थोड़ी देर बाद देखा तो वह दूर अपने भाई के पीछे पीछे जा रहा था, और बिस्कुट का पैकेट करीब टैबिल पर ही पड़ा हुआ था। वह मेरी दया, मदद करने के दंभ और इसके अलावा भी हर तरह के विशिष्टता बोध को तोड़कर जा चुका था।

उसे बस जूते चाहिए थे। न मेरी सांत्वना, न मेरा प्यार, न अपनापन। उसे पता है कि उसे इस दुनिया ने क्या दिया है।

अपनी मां और बड़े भाई के साथ जूते—चप्पलों की बिखरी हुई संपदा को निहारता यह बचपन मेरे सामने सवाल की तरह है। इसे हमने बनाया है। इस बच्चे के ​साथ की जा रही ज्यादती को हम एक समाज की तरह किस तरह देखेंगे कह नहीं सकता। इन मुसीबतों को झेलते हुए वह किस तरह का नागरिक बनेगा, कोई नहीं जानता।

इन तस्वीरों को देखकर आप खुद समझ सकते हैं कि तमाम दावों के बावजूद एक समाज के तौर पर हम कहां हैं।

कल क्या होगा, हम क्या करेंगे इसका हमें बिल्कुल अंदाजा नहीं है। बस जो आ रहे हैं, उनकी परेशानी सुनते हैं, फिर उसे हल करने की अनगढ़ कोशिशों को अंजाम देते हैं। आगे “मजदूर सहयोग केंद्र” के जरिये हम आपसे बातें करते रहेंगे, लेकिन शायद यह बच्चा, इस जैसे तमाम बचपन हमेशा जेहन में रहेंगे।

 

आपसे बस एक अपील है। इस आपदा में सबने अपनी अपनी तरह से एक—दूसरे की मदद की है, आगे भी करेंगे, लेकिन क्या हम आगे जो भी करें, जहां भी रहें, बस सड़क से गुजरते इन बच्चों की शक्ल याद कर सकते हैं। अगर आपके किसी एक कदम से इस या इस जैसे लाखों बच्चों के चेहरे पर एक मुस्कुराहट तैरती है, तो शायद उम्र में कुछ और पाना शेष नहीं रह जाएगा। कोई लड़ाई, कोई झगड़ा, कोई राजनीति, कोई नफ़रत, कोई बहस इस बच्चे को हंसा सके तो उसे सौ सौ सलाम।

विदा मेरे नन्हें दोस्त

उम्मीद है घर पहुंच गए होगे

हमें माफ़ कर देना

तुम्हारे नन्हें पैरों को मुलायम घास पर दौड़ना था

अफसोस हमने तुम्हें कंकड़ों, पत्थरों से भरी सड़क दी है

जिस पर तुम धूप के तीखेपन के बावजूद सफर पर हो…

हम माफ़ी के हकदार तो नहीं

लेकिन अपने बड़े दिल की दौलत लुटा देना कि

हम सचमुच बहुत बौने हैं तुम्हारे कद से।

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