मज़दूर संगठन समिति के कार्यालय और श्रमजीवी अस्पताल पर ताला, नेताओं के खाते दो साल से सीज़

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By रूपेश कुमार सिंह, स्वतंत्र पत्रकार

मजदूर संगठन समिति (एमएसएस) पर झारखण्ड सरकार द्वारा प्रतिबंध लगे 2 साल से ज्यादा हो चुका है। सरकार बदल गई लेकिन अभी तक प्रतिबंध जारी है।

यूनियन के कार्यालय, मज़दूरों के चंदे से खड़ा किया गया अस्पताल और दर्जनों यूनियन नेताओं के बैंक खाते सीज हैं। मधुबन में डोली मज़गदूरों के चंदे से 2015 में बना मज़दूरों का अस्पताल दो साल बाद ही सरकार के निशाने पर आ गया।

2018 में झारखंड की सभी ट्रेड यूनियनों ने एमएसएस पर प्रतिबंध के ख़िलाफ़ एकजुटता दिखाने के लिए इसी को एजेंडा बनाकर मई दिवस मनाया था।

कभी लाखों की सदस्यता वाले एमएसएस की स्थापना की कहानी कम दिलचस्प नहीं है।

1989 में वरिष्ठ अधिवक्ता सत्यनारायण भट्टाचार्य द्वारा बिहार श्रम विभाग में एक ट्रेड यूनियन पंजीकृत कराया गया, जिसका नाम था ‘मजदूर संगठन समिति’ और इसको पंजीकरण संख्या 3113/89 मिला।

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प्रारंभ में इस मजदूर यूनियन का कार्यक्षेत्र सिर्फ धनबाद जिला में ही था। धनबाद जिला के कतरास के आसपास में बीसीसीएल के मजदूरों के बीच इनकी धमक ने जल्द ही इसे लोकप्रिय बना दिया।

इसका प्रभाव धनबाद के अगल-बगल के जिलों पर भी पड़ा और जल्द ही यह मजदूर यूनियन तेजी से फैलने लगा। सन् 2000 में बिहार से झारखंड अलग होने के बाद तो मजदूर संगठन समिति की लोकप्रियता बढ़ती गई।

कालांतर में मजदूर संगठन समिति  ने गिरिडीह जिला के रोलिंग फैक्ट्री व स्पंज आयरन के मजदूरों के बीच अपनी पैठ बना ली। साथ में जैन धर्मावलम्बियों के विश्व प्रसिद्ध तीर्थस्थल शिखर जी (मधुबन, गिरिडीह) में स्थापित दर्जनों जैन कोठियों में कार्यरत मजदूरों के अलावा वहाँ हजारों डोली व गोदी मजदूरों के बीच भी इनका कामकाज बड़ी तेजी से फैला।

बोकारो जिला में बोकारो थर्मल पावर प्लांट, तेनुघाट पावर प्लांट, चन्द्रपुरा पावर प्लांट के मजदूरों खासकर ठेका मजदूरों के बीच इन्होंने अपनी एक मजबूत जगह बनाई। साथ ही बोकारो स्टील प्लांट के कारण विस्थापन का दंश झेल रहे दर्जनों विस्थापित गांवों में भी विस्थापितों को गोलबंद करने में इस यूनियन ने सफलता पायी।

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रांची जिला के खलारी सीसीएल के मजदूरों के बीच काम प्रारंभ करने के बाद यहाँ पर दैनिक मजदूर जुड़़े।

राजधानी रांची के कुछ अधिवक्ता और विस्थापित नेता भी इस यूनियन से जुड़े। तत्कालीन हजारीबाग जिला के गिद्दी व रजरप्पा सीसीएल में ठेका पर काम करानेवाली कम्पनी डीएलएफ के बीच भी इन्होंने काम किया। कोडरमा में पीडब्लूडी के मजदूरों के बीच भी इस यूनियन का काम प्रारंभ हुआ।

सरायकेला-खरसावां जिला के चांडिल में विस्थापितों के बीच इनका कामकाज काफी जोर-शोर से शुरु हुआ। साथ ही बिहार के गया जिला के गुरारू चीनी मिल में भी इन्होंने अपनी मजबूत पैठ बनायी। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिला के बागमुंडी और झालदा में बीड़ी मजदूरों के बीच भी इन्होंने कामकाज प्रारंभ किया।

मजदूर संगठन समिति के मजदूरों के बीच बढ़ते प्रभाव व लगातार निर्णायक आंदोलन के कारण जल्द ही यह यूनियन सत्ता के निशाने पर आ गई और इस पर प्रतिबंधित तत्कालीन माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया (एमसीसीआई) का फ्रंटल संगठन के आरोप लगे। इनके नेताओं पर पुलिस दमन भी काफी बढ़ गया।

अब जहाँ भी नये क्षेत्र में यूनियन के नेता संगठन विस्तार के लिए जाते, पुलिस और दलाल ट्रेड यूनियन द्वारा इस यूनियन के ‘नक्सल’ होने का प्रचार इतना अधिक हो जाता कि मजदूरों में इस यूनियन को लेकर पुलिसिया दमन का डर पैदा हो जाता।

खैर, इन्हीं परिस्थितियों में सत्ता की चुनौतियों का सामना करते हुए मजदूर संगठन समिति तीन राज्यों (बिहार, झारखंड व पश्चिम बंगाल) में फैल गई थी, तब 2003 ईस्वी में इसका पहला केन्द्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें वरिष्ठ अधिवक्ता कामरेड सत्यनारायण भट्टाचार्य केन्द्रीय अध्यक्ष व बोकारो थर्मल पावर प्लांट के ठेका मजदूर कामरेड बच्चा सिंह केन्द्रीय महासचिव निर्वाचित हुए।

2003 के बाद प्रत्येक दो साल पर मजदूर संगठन समिति का केन्द्रीय सम्मेलन आयोजित होना शुरु हुआ, जिससे यूनियन के कार्यक्रम व आंदोलन के साथ-साथ संगठन विस्तार पर भी व्यापक सकारात्मक प्रभाव पड़ा। मजदूर संगठन समिति का आखिरी 5 वां केन्द्रीय सम्मेलन 21-22 फरवरी 2015 को झारखंड के बोकारो में हुआ।

वर्ष 2017 मजदूर संगठन समिति के लिए निर्णायक साबित हुआ। वर्ष 2017 में मजदूर संगठन समिति की सदस्यता संख्या लाखों में थी, झारखंड के कई इलाकों में मजदूरों के बीच इनकी मजबूत पैठ थी। कुछ इलाके तो ऐसे थे, जहाँ मजदूर संगठन समिति के अलावा कोई ट्रेड यूनियन था ही नहीं।

इस समय तक मजदूर संगठन समिति का धनबाद के कतरास में केन्द्रीय कार्यालय होने के साथ-साथ गिरिडीह, मधुबन, बोकारो थर्मल, बोकारो स्टील सिटी, गुरारू (बिहार) आदि कई जगहों पर शाखा कार्यालय सुचारू रूप से चल रहे थे। कई शाखा का अपना बैंक अकाउंट भी था।

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इस बीच मजदूर संगठन समिति के मधुबन (गिरिडीह) शाखा द्वारा मधुबन में 5 मई 2015 को ‘मजदूरों का, मजदूरों के लिए व मजदूरों के द्वारा’ बनाये गये ‘श्रमजीवी अस्पताल’ की स्थापना हो चुकी थी, जिसका उद्घाटन गिरिडीह के तत्कालीन सिविल सर्जन डाॅक्टर सिद्धार्थ सन्याल ने किया था। इस अस्पताल में प्रत्येक दिन सैकड़ों मजदूरों का फ्री में इलाज होता था।

हाँ तो वर्ष 2017 मजदूर संगठन समिति के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसी वर्ष महान नक्सलबाड़ी सशस्त्र किसान विद्रोह की 50वीं वर्षगांठ थी और इसी वर्ष रूस में हुई बोल्शेविक क्रान्ति की सौवीं वर्षगांठ भी थी। इन दोनों वर्षगांठ को हमारे देश में कई राजनीतिक दलों, ट्रेड यूनियनों व जनसंगठनों द्वारा मनाया जा रहा था।

झारखंड में भी ‘महान नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह की अर्द्ध-शताब्दी समारोह समिति’ का गठन हुआ था, जिसमें मजदूर संगठन समिति के अलावा दर्जनों संगठन शामिल थे और इसके बैनर तले कई जगह सफल कार्यक्रम भी हुए, जिसमें आरडीएफ के केन्द्रीय अध्यक्ष व प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि वरवर राव भी शामिल हुए। इन कार्यक्रमों की सफलता से झारखंड की तत्कालीन भाजपा की सरकार के हाथ-पांव फूलने लगे और फिर से सत्ता द्वारा मजदूर संगठन समिति को माओवादियों का फ्रंटल संगठन कहा जाने लगा।

इस बीच 9 जून 2017 को मजदूर संगठन समिति का सदस्य डोली मजदूर मोतीलाल बास्के की हत्या सीआरपीएफ कोबरा ने दुर्दांत नक्सली बताकर कर दिया। इसके खिलाफ गिरिडीह जिला में आंदोलन का ज्वार फूट पड़ा, जिसका नेतृत्व भी मजदूर संगठन समिति के नेतृत्व में बने ‘दमन विरोधी मोर्चा’ ने किया। यह आंदोलन गिरिडीह जिला से प्रारंभ होकर राजधानी तक पहुंच गया, परिणामस्वरूप इस फर्जी मुठभेड़ की बात झारखंड विधानसभा से लेकर लोकसभा व राज्यसभा में भी उठी।

मजदूर संगठन समिति के उपरोक्त दो कार्यक्रमों ने झारखंड सरकार की नींद हराम कर दी थी और अब बारी थी रूस की बोल्शेविक क्रांति की शताब्दी समारोह की। झारखंड में इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए ‘महान बोल्शेविक क्रांति की शताब्दी समारोह समिति’ बनायी गई,  जिसमें मजदूर संगठन समिति के अलावा दर्जनों संगठन शामिल हुए।

इस समिति के बैनर तले झारखंड में 17 जगहों पर शानदार कार्यक्रम आयोजित किये गये। इसका समापन 30 नवंबर, 2017 को रांची में हुए एक शानदार कार्यक्रम के जरिये हुआ, जिसमें मुख्य वक्ता के बतौर प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि वरवर राव शामिल हुए थे।

मजदूर संगठन समिति के तत्कालीन महसचिव केन्द्रीय कामरेड बच्चा सिंह बताते हैं कि इन तीनों कार्यक्रमों से झारखंड सरकार विचलित हो गई और उसने मजदूर संगठन समिति के खिलाफ साजिश करना प्रारंभ कर दिया।

जिसका परिणाम 22 दिसंबर 2017 को बिना किसी नोटिस या पूर्व सूचना के अचानक झारखंड गृह विभाग के प्रधान सचिव एसकेजी रहाटे व निधि खरे ने प्रेस कांफ्रेंस के जरिये भाकपा (माओवादी) का फ्रंटल संगठन बतलाकर मजदूर संगठन समिति पर झारखण्ड सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी।

कामरेड बच्चा सिंह बताते हैं कि ‘प्रतिबंध की घोषणा के बाद आनन-फानन में हमारे सारे कार्यालयों को सीज कर दिया गया। हमारे दर्जनों नेताओं पर काला कानून यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज कर जेल में बंद कर दिया गया। हमारे यूनियन के तमाम बैंक अकाउंट फ्रीज कर दिये गये। हमारे कई नेताओं के व्यक्तिगत बैंक अकाउंट भी फ्रीज कर दिये गये।’

‘सबसे दुखद तो यह रहा कि मजदूरों का फ्री इलाज करने वाले ‘श्रमजीवी अस्पताल’ को भी दवा समेत सीज कर दिया गया। वैसे तो मेरे समेत सभी नेता जमानत पर छूटकर जेल से बाहर आ गया हूँ, लेकिन अभी भी हमारे दर्जनों नेताओं के व्यक्तिगत बैंक अकाउंट फ्रीज हैं। श्रमजीवी अस्पताल समेत सभी कार्यालय सीज हैं।’

ये बताते हैं कि इन तीनों कार्यक्रमों से खार खायी झारखंड सरकार ने ‘विस्थापन विरोधी जनविकास आंदोलन’ के केन्द्रीय संयोजक कामरेड दामोदर तुरी को भी मजदूर संगठन समिति का नेता बतलाकर निशाने पर ले लिया।

इनपर भी गोरा कानून यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज कर जेल भेज दिया और इनका भी व्यक्तिगत अकाउंट फ्रीज कर दिया। ये भी जमानत पर जेल से छूट तो गये हैं, लेकिन इनका व्यक्तिगत अकाउंट अभी भी फ्रीज ही है।

कामरेड बच्चा सिंह बताते हैं कि ‘झारखंड सरकार की इस तानाशाही भरे फैसले के खिलाफ हमलोग फरवरी 2018 में ही रांची उच्च न्यायालय में अपील किये हुए हैं, लेकिन अबतक कोई फैसला नहीं आया है।’

मजदूर संगठन समिति की तरफ से रांची उच्च न्यायालय में अपील दायर करनेवाले रांची उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता जितेन्द्र सिंह बताते हैं कि हियरिंग अब अंतिम स्टेज में ही था।

आठ अप्रैल की तारीख लगी थी, लेकिन देशव्यापी लाॅकडाउन के कारण सुनवाई नहीं हो पायी। उम्मीद है कि अगली तारीख पर न्यायालय का फैसला हमारे पक्ष में आएगा।

अधिवक्ता जितेन्द्र सिंह बताते हैं कि दरअसल झारखंड में उसी समय पाॅपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) पर भी झारखंड सरकार ने प्रतिबंध लगाया था, जिसे बाद में जस्टिस रंजन मुखोपाध्याय की अदालत ने प्रतिबंधन मुक्त कर दिया था।

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जज ने अपने फैसले में प्रतिबंध के आधार में व इसकी प्रक्रिया में कमी बतलाया था। हालाँकि बाद में झारखंड सरकार ने सही प्रक्रिया अपनाते हुए पीएफआई पर पुनः प्रतिबंध लगा दिया।

वे बताते हैं कि ‘पहले हमारी अपील भी उन्हीं की बेंच पर गया था, लेकिन कभी वे मजदूर संगठन समिति का वकील रह चुके थे, इसलिए उन्होंने इसपल सुनवाई से इंकार कर दिया। बाद में चीफ जस्टिस ने इस मुकदमे को जस्टिस एस. चन्द्रशेखर को सौंपा। इन्होंने इस मामले पल झारखंड गृह सचिव को अपना प्रतिवेदन सौंपने को बोला है, जो अब तक सौंपा नहीं गया है। उम्मीद है अगली तारीख पर फैसला आ जाएगा।’

इन दो सालों में झारखंड की राजनीतिक तस्वीर भी बदल गई है। अभी झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार है।

झारखंड मुक्ति मोर्चा कई आंदोलनों में मजदूर संगठन समिति के साथ रहे हैं और मजदूर संगठन समिति पर प्रतिबंध को भी भाजपा सरकार की तानाशाही बताते रहे हैं।

अब सवाल उठता है कि क्या झारखंड सरकार मजदूर संगठन समिति को प्रतिबंधन मुक्त कर क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन को नया इतिहास रचने देगी या फिर मजदूर संगठन समिति पर झारखण्ड सरकार का दमन जारी रहेगा?

मजदूर संगठन समिति पर प्रतिबंध लगने के बाद कई ट्रेड यूनियनों ने इसका विरोध किया था और प्रतिबंध हटाने की मांग झारखंड सरकार से की थी। 2018 का अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस तो कई मजदूर यूनियनों ने इसी मांग को केन्द्र में रख कर मनाया था।

तो क्या फिर से ये सारे ट्रेड यूनियन इस मांग को इस अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर उठाएंगे? क्या फिर से ‘मजदूरों का, मजदूरों के लिए व मजदूरों के द्वारा’ बना ‘श्रमजीवी अस्पताल’ मजदूरों व गरीबों का मुफ्त इलाज कर पायेगा?

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