‘मृत्यु-कथा’- बस्तर, दांतेवाड़ा, अबूझमाड़ में आदिवादी संघर्ष की सच्चाई बयां करती किताब

By आशुतोष कुमार पांडे

दिल्ली के पत्रकार और चमकीले संपादक- कस्बों और ग्रामीण पत्रकारों/लोगों/दोस्तों को ‘सोर्स’ का नाम देते हैं।

उनके बनाये वीडियो और सूचनाओं के आधार पर खबर लिखकर पत्रकारिता का बड़ा सम्मान हासिल कर लेते हैं, मगर अपने साथियों, दोस्तों और ग्रामीण-कस्बाई पत्रकारों का नाम भी नहीं लेते हैं।

अप्रैल 2014 में छत्तीसगढ़ के सुकमा में हुए एक माओवादी हमलें में CRPF के 25 जवान शहीद हो गए।

इस घटना के तुरंत बाद दिल्ली में बैठे एक संपादक ने तुरंत ट्वीट किया- ‘CRPF के जवानों को बख्तरबंद गाड़ी मिलनी चाहिए, क्या यह मांग राष्ट्रविरोधी है?’

उस मूर्ख संपादक को यह पता नही था- माओवादी हमलें के दौरान CRPF के जवान बख्तरबंद गाड़ी में ही सवार थे। हमलें में बख्तरबंद गाड़ी के परखच्चे उड़ गये और 25 जवान शहीद हुए थे।

वर्कर्स यूनिटी को सपोर्ट करने के लिए सब्स्क्रिप्शन ज़रूर लें- यहां क्लिक करें

कश्मीर सैलानियों के अलावा लेखक, फिल्मकार, लेखक और पत्रकारों को अपनी ओर खींचता है जबकि बाहरी लोग तो दूर छतीसगढ़ के लोग भी बस्तर के अंदरूनी इलाकों में नहीं जाते।

कश्मीर की काया बड़ी निखरी है- करीने से बिछे पेड़,तहों में लिपटे बादल, समर्थ और अभिव्यक्ति-सम्पन्न नागरिक।

बस्तर बेतरतीब और बेफिक्र है- उलझे हुए जंगल और नदियों की भूल भुलैया, खोए-मुरझाए वनवासी। कश्मीर अपनी अस्मिता के प्रति सजग है जबकि बस्तर अपनी पहचान से अमूमन अनजान रहा आया है।

यूट्यूब, ट्वीटर, इंस्टाग्राम से लेकर टीवी प्रोगाम में चमकते संपादकों और पत्रकारों का नक्सल विषय पर अज्ञान अचंभित करता था। अब लगता है- इन पत्रकारों के पास बोलने की कला है, अच्छे और चटकीले कपड़े हैं, बाकि मई में चौसा आम चूसने का जी चाहता है।

यह सीजन का आखरी आम होता है। वैसे चौसा आम बहुत खराब माना जाता है। पता नही शेरशाह शूरी ने इसे अपना प्रिय आम कैसे बना लिया था। इस आम में पीले रंग के ऐसे कीड़े रहते है- जो आम संपादकों के समझ में नहीं आयेंगे।

‘मृत्यु-कथा’ किताब के लेखक ने 21 दिन तक अबूझमाड़ के जंगल में आदिवासी माओवादियों के साथ बिताए। उनसे सभी तरह के सवाल पूछे। यहाँ तक- उनके निजी जीवन और सेक्स जैसी विषय पर बात की।

जबकि 21 दिनों में उन नक्सलियों ने लेखक का सभी तरह से ख्याल रखते हुए बहुत ज्यादा बात नही की। लेखक के निजी जीवन से संबंधित कोई सवाल नही। कितना पढ़े लिखे हो, कहाँ से आये हो? कहाँ घर है? कितना वेतन मिलता और काम चल जाता या नही?

उनलोगों ने कभी राजनीतिक सवाल किए और कुछ नही। लेखक के जीवन में कोई दखल नही।

आजकल तो लोग मिलते ही पूछते हैं- क्या करते हो? अभी तक गाड़ी नहीं खरीदे? आरा में जमीन नही लिए? क्या रुचि है?

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक कविता पंक्ति याद आ रही है-

हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।

इस किताब के लेखक के समानांतर मौत भी यात्रा करती है। यहाँ मुर्दों के रिश्तेदार और दुश्मन दोनों है। यहाँ अपने साथी की शहादत का जिक्र है।

कहने में स्वर नही बदलता है। यहाँ मौत उत्सव की तरह है। दाह-संस्कार के तौर तरीके में भी उन्माद है।

इस किताब में लेखक अबूझमाड़, दंतेवाड़ा, बस्तर में हो रहे गतिविधियों के साथ भेदभाव युक्त भारतीय सामाजिक जीवन का दृश्य प्रस्तुत करता है।

इस किताब को पढ़ते हुए बतौर पाठक लेखक का सहयात्री हो जाता हूँ। मौत आगे-पीछे, दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे साथ-साथ चलती है।

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुकट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.