बर्खास्तगी के 10 साल, मारुति के मजदूरों का क्या है हाल! पढ़िए आपबीती

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By शशिकला सिंह

18 जुलाई 2012 को  मानेसर के मारुति प्लांट में हुए एक हादसे के बाद निकाले गए श्रमिक  आज भी जीवनयापन के लिए  दिक्कतों से जूझ रहे हैं।

उन मजदूरों का  कहना है कि,  उस घटना के दस साल बाद आज  भी उन्हें याद है किस तरह से  फैक्ट्री प्रशासन के इशारों पर  घर लौटते समय पुलिस ने बिना किसी क़ानूनी नोटिस के  गैरकानूनी तरीके से उन्हें हिरासत में लिया था। उस  दर्दनाक मानसिक तनाव से वे आज तक उबर नहीं पाए हैं।

अपनी आपबीती सुनाते हुए वे  कहते हैं –  “कारण पूछने पर,  हम पर दंगा करने का झूठा आरोप लगाया गया, और उसे साबित करने के लिए   हमसे जबरन कोरे कागजों पर हस्ताक्षर करवाए गए थे।”

मज़दूर नेताओं की आप बीती

ढाई साल जेल में सजा काटने वाले मज़दूर नेता अमरजीत सिंह उन दिनों को याद कर के भावुक हो गए। जींद के रहने वाले अमरजीत ने वर्कर्स यूनिटी से बातचीत के दौरान कहा कि, “साल  2012 में हुई  उस घटना ने हम सभी बर्खास्त मज़दूरों का जीवन बर्बाद कर दिया।”

उन्होंने बताया – जिस दिन यह हादसा हुआ उस दिन का शिफ्ट करके मैं अपने घर की ओर जा रहा था, तभी अचानक रास्ते में पुलिसवालों ने मुझे यह बोल कर गिरफ्तार कर लिया कि तुम हौंडा कंपनी में झगड़ा करके आये हो!,

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20 लोगों को मरने का लगा आरोप

मैंने उनको बताया कि झगड़ा तो मारुति कंपनी में हुआ है और घटना के समय मैं वहां नहीं था।

लेकिन, कुछ देर बाद खबर आती है कि मारुति में 20 लोगों को मार दिया गया है जिसके बाद वहां मौजूद पुलिस वालों  ने हम पर ये झूठा आरोप लगाना शुरू किया कि तुम सभी लोगों ने मारुति में 20 लोगों को मारा है।

जिसके सफाई में हमने कहा कि, बीते एक घंटे से हम सभी आप के साथ हैं तो फिर हम कैसे मार सकते हैं? लेकिन पुलिसवालों ने हमारी एक न सुनी और हम सभी को गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद एक कोरे कागज पर जबरन हमसे हस्ताक्षर करवाया गया और जेल में डाल दिया गया।”

अमरजीत का आरोप है कि उनको झूठे केस में फंसा कर ढाई साल तक जेल में रखा गया।  फ़िलहाल अमरजीत दिहाड़ी मजदूरी करके अपने परिवार का भरणपोषण करते हैं।

दिहाड़ी मज़दूरी करने को मजबूर

ऐसे ही मारुति के 546 ऐसे बर्खास्त मज़दूर हैं जो मारुति में परमानेंट मज़दूरों के तौर पर काम करते थे लेकिन आज दिहाड़ी मज़दूरी करने को मजबूर हैं ।

बर्खास्त मज़दूरों में से एक  देवेंद्र देलखड़ ने बताया कि 2012 में हुई घटना के बाद किसी भी मज़दूरों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि वह भी अपने अधिकारों की कानूनी लड़ाई लड़ सकता है।

उनका आरोप है कि, जब  सभी बर्खास्त मज़दूरों को इस बात की जानकारी हुई तो उन्होंने 2016 में लेबर कोर्ट में अपने ऊपर चलने वाले झूठे आरोपों निरस्त करने  और कार्यबहाली के लिए याचिका  दायर किया।

झूठे आरोपों के कारण नहीं मिला काम

रोहतक के देवेंद्र अपने गांव में खेतिहर मज़दूरों के तौर पर काम करते हैं। उन्होंने बताया,  “हमने दूसरी कई कंपनियों में काम ढूंढने की कोशिश की,  लेकिन हमारे ऊपर लगे झूठे आरोपों के कारण हमें काम नहीं मिला।”

साल  2007 से 2012 तक मारुति में स्थाई मज़दूर के तौर पर काम करने वाले रवि जागड़ा का कहना है कि 18 जुलाई का दिन याद करके आज भी उनकी रूह कांप जाती है।

रवि कहते हैं -“वो हमारे जीवन का सबसे बुरा दिन था।”

उन्होंने बताया कि उन्हें  तो इस बात की भनक भी नहीं थी कि मारुति में कोई घटना घटी है। वे कहते हैं ,” उस दिन, मैं A शिफ्ट में प्लांट गया था और  काम  के बाद आराम से अपने घर जा रहा था,  तभी अचानक रास्ते में ही मुझे  गिरफ्तार कर लिया जाता है।”

उनका कहना है कि इस घटना के बाद न केवल उन्हें ही परेशान किया गया,  बल्कि पुलिसवालों  आये दिन  उनके घरवालों को भी पूछताछ के नाम पर परेशान करते थे ।

इतना ही नहीं, जब सभी बर्खास्त मज़दूरों ने अपना केस लेबर कोर्ट में लगाया तो हर मज़दूर के घर के बाहर एक-एक पुलिस जवान तैनात कर दिया गया था। जिससे उन सभी का कहीं भी आना-जाना मुश्किल हो गया था।

सदमा झेल पाना आसान नहीं

घटना के बाद डेढ़ साल तक सदमें में रहे सुनील खान ने किराये पर ऑटो चलाना शुरू किया है।

उन्होंने बताया- “मैं 2006 से मानेसर के मारुति प्लांट में काम करता था, आचनक 16 अगस्त 2012 को फ़ोन पर मैसेज आता है, – ‘आप को मारुति से निलंबित कर दिया गया है’।

तीन बच्चों के पिता होने के कारण मेरे लिए यह सदमा झेल पाना आसान नहीं था। काफी दिनों तक कुछ काम नहीं मिला फिर मैंने किराये पर ऑटो चलना शुरू किया। आज भी चलता हूँ।”

उनका कहना है कि  ” जब घटना के समय हम वहां मौजूद ही नहीं तो हम को क्यों निकाला गया? इसलिए हम सभी बर्खास्त मज़दूर बीते 10 सालों से कार्यबहाली की मांग कर रहे हैं।”

खान ने बताया की सबसे पहले  सभी मज़दूरों ने 2013 में कैथल में धरने के माध्यम से कार्यबहाली की मांग की थी। इस दौरान भी मज़दूरों को हड़ताल खत्म करने के लिए लाठी चार्ज किया गया था जिसमें भारी संख्या में मज़दूर घायल हो गए थे।

2012 में क्यों बनानी पड़ी यूनियन

मारुति के बर्खास्त मज़दूरों के प्रोविज़नल कमेटी के नेता खुशीराम ने बताया कि 18 जुलाई 2012 की घटना के मात्र कुछ महीने पहले 1 मार्च 2012 को मारुति मज़दूर यूनियन का झंडा प्लांट में लगाया गया था।

उनका कहना है कि मज़दूर यूनियन बनाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि प्रबंधन ने मज़दूरों को मज़दूर समझना बंद कर दिया था। मज़दूरों को मशीन समझा जाता था।

खुशीराम का कहना है कि मज़दूरों के लिए कोई भी सुविधा मौजूद नहीं थी। यहां तक कि मज़दूरों के एक-एक सेकंड का हिसाब रखा जाता था। काम के दौरान मज़दूरों को पानी तक पीने नहीं दिया जाता था।

प्लांट में कुछ स्टेशन ऐसे भी थे, जिनमें दिसंबर के महीने में भी मज़दूरों को पसीने आते थे।  उस समय मजदूरों का हद से ज्यादा शोषण किया जा रहा था। कई मज़दूरों को बिना बड़ी वजह के सस्पेंड भी किया गया था।

मात्र सात मिनट का होता था ब्रेक

खुशीराम का कहना है कि उस समय यदि कोई मज़दूर के एक सेकंड भी लेट हो जाता था तो उसका आधे दिन का वेतन काट लिया जाता था, लेकिन मज़दूर से काम पूरे दिन करवाया जाता था।

बर्खास्त मज़दूरों ने बताया कि उस समय सभी मज़दूरों को मात्र 7 मिनट के लिए चाय का ब्रेक दिया जाता था, जिसमें मज़दूरों को स्टेशन की लाइट बंद कर, ग्लव्स और एप्रन उतार कर जाना होता था।

पावर स्टेशन से शौचालय आने जाने में ही चार मिनट लग जाते थे। कभी-कभी तो शौचालय के लिए लम्बी लाइन होने के कारण और ज्यादा टाइम लग जाता था। जिसका भुगतान मज़दूरों को प्रबंधन द्वारा किये जाने वाले मानसिक शोषण से भरना पड़ता था।

खुशीराम का कहना है कि, इस तरह की तमाम प्रताड़नाओं और शोषण के शिकार मज़दूरों ने यूनियन बनाने का निर्णय लिया और यूनियन का गठन भी किया गया लेकिन प्रबंधन को यह रास नहीं आया और उन्होंने 2012 में हुई घटना का सारा इल्ज़ाम निर्दोष मज़दूरों के ऊपर डाल दिया।

क्या है मामला

गौरतलब है कि 2011 में मज़दूरों ने कंपनी की अमानवीय काम करने की स्थिति से राहत पाने के लिए यूनियन बनाने की मुहीम चलाई थी।

यूनियन के गठन के कुछ महीने बाद कंपनी ने 546 स्थायी और 1800 ठेका श्रमिकों को बिना किसी नोटिस या घरेलू जांच के कारखाने में आग लगाने और एक प्रबंधक की मौत की घटना के बहाने बर्खास्त कर दिया।

maruti historic struggle

 

मामले की जांच के लिए हरियाणा सरकार द्वारा एसआईटी गठित की गई थी और  जो लोग कंपनी द्वारा दोषी करार दिए गए थे, एसआईटी ने उनको जेल में डाल दिया था।

साल 2017 में सेशन कोर्ट,  गुडगांव द्वारा उस मामले  में एक फैसला भी सुनाया गया, जिसमें 13 मजदूरों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। फिलहाल सभी मज़दूरों को जमानत पर रिहा कर दिया गया है।

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जेल में 10 सालों से सजा काट रहे आखिरी मज़दूर सोहन सिंह को भी बीते महीने जमानत दे दी गयी। जबकि दो मजदूर पवन कुमार और जियालाल की जेल की सजा काटने के दौरान मौत हो चुकी है।

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