कोयला खनिकों से भी बदतर हालत फिर भी काजल बनाने वालों को क्यों नहीं माना जाता मज़दूर? – मई दिवस विशेष

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By मेघा आर्या

बात की जा रही है घर में रहकर उत्पादन कार्य करने वाले उन मजदूरों की जो मजदूर कहलाए जाने के हक से अभी तक वंचित हैं। घर में रहकर उत्पादन के क्षेत्र में काम करने वाले इन मजदूरों में अधिकांशतः महिला मजदूर ही हैं, उनमें भी वे महिलाएं जिनके बच्चे अभी छोटे हैं, दूध पीने वाले हैं। जो घर से बाहर जाकर काम नहीं कर सकती।

इसके अलावा इन उद्योगों में वे नौनिहाल बच्चे भी हैं जो स्कूल से आकर आम बच्चों की तरह खेलने कूदने और पढ़ने की बजाय अपने इस काम में जुट जाते हैं। इससे वो अपनी पढ़ाई लिखाई का खर्चा भी उठाते हैं और घर के छिटपुट खर्चों में सहयोग भी करते हैं। आर्थिक तंगी के कारण घर की बदहाल स्तिथि से निपटने के लिए ये महिलाएं और बच्चे बहुत सस्ती कीमत पर अपना श्रम बेच देते हैं।

रामनगर के ज़ाकिर अंसारी जिनके पेट के तीन ऑपरेशन हो चुके हैं, जिससे कि वो ज्यादा वजनदार काम करने में असमर्थ हैं। ज़ाकिर अंसारी का पूरा परिवार पूर्णतः अखबार के लिफाफे बनाने के काम पर निर्भर है। ज़ाकिर जी की पत्नी और उनकी चार बेटियां सुबह सभी घरेलू काम निपटाने के बाद यही लिफाफे बनाने बैठ जाती हैं।

सबसे बड़ी बेटी गुलनाज बताती है कि कई बार हम लोग काम में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि बाकी के सारे कामकाज रात के 11,12 बजे तक निपटाते रहते हैं। क्योंकि परिवार के हम सभी सदस्यों को मिलकर हर हाल में रोजाना का इतना पैसा जुटाना ही होता है जिससे कि एक वक्त का ढंग का खाना थाली में लग जाए।

इस प्रकार इन महिलाओं और बच्चों की ये नौकरी 12 से 15 घंटे तक की हो जाती है।छोटी बेटी गुलशन बताती है कि रोजाना ही हम लोग लिफाफे बनाते बनाते खाना खाते हैं,अम्मी हमारे मुंह में निवाले डालती हैं। ज़ाकिर जी की पत्नी बताती हैं कि कितनी बार हमारा रात का खाना 9 बजे से बनना शुरू होता है जब जाकिर जी शहर भर की दुकानों में लिफाफे बेच कर कुछ पैसा ले आते हैं।

जिंदगी कुआं खोदों,पानी पियो जैसी चल रही है। ज़ाकिर अपने इस रोजगार के बारे में कुछ इस तरह बताते हैं- बड़ा पैकेट (2kg) का ,10 रुपए में,जिसमें 30 लिफाफे बनाने होते हैं। मध्यम आकार का पैकेट (1/2kg) का ,2 रुपए में,जिसमें 16 लिफाफे बनाने होते हैं। छोटे पैकेट ( 250 gm) का,1 रुपए में,जिसमें 16 लिफाफे बनाने होते हैं।

वो बताते हैं कि हमारा उद्देश्य रहता है कि एक दिन में 250 रूपए जरूर कमा लें जिससे कि अखबार खरीदने में , आटे की लेई बनाने में 50 रुपए की लागत निकल भी जाए तो 200 रुपया जरूर बचे।

जाकिर के पास कोई वाहन भी नहीं है। अपने ऑपरेशन हुए पेट से वो पैदल चल कर ही दुकानों में गड्डियां बेचते हैं। जाकिर की बड़ी बेटी सिलाई करके अपने छोटे भाई बहनों की पढ़ाई लिखाई का खर्चा वहन करती है।

9 साल की छोटी बेटी सानिया और 7 साल का उनका सबसे छोटा बेटा आसिफ भी अपने पिता की तरह दूसरी दुकानों में जाकर गड्डियां बेचते हैं। घर के 7 सदस्य मिलकर सुबह से लेकर शाम तक मेहनत करने के बावजूद 10,000 रुपये भी नहीं कमा पाते। ये सिर्फ एक घर की कहानी है। लेकिन इसी प्रकार की कई कहानियां है जो बमुश्किल ही कहीं दर्ज हो पाती हैं।

काजल बनाने वाले कारखाने के मालिक भी अपने कारखाने के आस पास के लोगों से काम लेते हैं। मजदूर कारखानों से काजल की बोरियां और काजल की डिबिया ले जाते हैं । ये मजदूर पहले काजल की डिब्बी और उसके ढक्कन को छांटकर अलग अलग करते हैं उसके बाद उसमें काजल भरते हैं लेबल चिपकाते हैं।

इस काम को करते हुए मजदूरों के कपड़े , उनके हाथ पांव, घर की दीवारों फर्श तक काले हो जाते हैं, समय भी लगता है और सामान की ढुलाई भी मजदूर खुद ही करते हैं, लेकिन इस काम का मिलता है कुल 50 या 60 रुपया।

काजल का काम करने वाले मजदूर किसी कोयला खदान में काम करने वाले मजदूर से कम नहीं लगते हैं। हालांकि काजल और लिपिस्टिक की बड़ी कंपनियां खुलने से छोटे छोटे कारखानों में काजल और लिपिस्टिक बनने का कारोबार अब कम हो गया।

इसी प्रकार गद्दे लिहाफ बनाने के ठेकेदार अपने कार्यस्थल के आस पास के लोगों को गद्दे में टांके लगाने का काम देते हैं और एक गद्दे में टांके लगाने का 10 से 15 रुपया मिलता है।

इसी प्रकार एक सूट पर तुरपाई करने के 2 रुपए। एक मीटर की फूलों की एक माला बनाने पर 5 रुपए। इसी तरह की कई तरह की मैन्युफैक्चरिंग कंपनियां अपने उत्पादों की पैकिंग,कटिंग,छंटाई, कटाई लेबलिंग आदि के काम में घरेलू महिलाओं का उपयोग करती हैं।

सरकार द्वारा इनकी कमर तोड़ मेहनत को स्वरोजगार या कुटीर उद्योग का नाम देकर छुट्टी कर दी जाती है व प्रयास किया जाता है ये दिखाने का कि ये लोग अपने खाली समय को पैसा कमाकर प्रयोग में लाते हैं। जबकि सच्चाई ये है कि कई परिवार की महिलाएं यहां पर दोहरे शोषण की मार झेल कर ज़िन्दगी की गाड़ी को पटरी पर लाने का प्रयास कर रही होती हैं।

तमाम दकियानूसी रिवाजों के आज भी जस के तस कायम होने के चलते सभी घरेलू काम आज भी महिलाओं के जिम्मे ही होते हैं और फिर घर में रहकर घरेलू कार्य के साथ साथ इन उत्पादन कम्पनियों के कार्य को लेकर वो घर के खर्चे में भी अपना योगदान देती हैं।

सरकार द्वारा इन मजदूरों के श्रम और उनकी मजबूरी को स्वरोजगार या खाली समय को उपयोग में लाने का नाम देकर इन्हें मजदूर कहलाए जाने के हक से वंचित करने का प्रयास रहता है ताकि ये मजदूर उन तमाम श्रम कानूनों के दायरे से बाहर हो जाएं जिनसे ये कई प्रकार की सुख सुविधाओं,अधिकारों के हकदार होते हैं।

तमाम श्रम कानूनों को चार लेबर कोड में तब्दील कर सरकार पहले ही इन श्रम कानूनों पर हमला बोल चुकी है।और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले इन मजदूरों के श्रम को स्वरोजगार,या खाली समय को उपयोगी बनाने का नाम दे दिया जाता है।

संगठित क्षेत्र के मजदूर अपने हक हकों के लिए जिस प्रकार एकजुट हो जाते हैं उस कदर ये मजदूर एकजुट नहीं हो पाते। सबसे बड़ी समस्या ये है कि ये मेहनतकश खुद को मजदूर नहीं मानते हैं।

इसकी वजह भी है। आम जनता के बीच एक भ्रांति फैली हुई है कि कल कारखाने में काम करने वाले और मकान बनाने वाले मेहनतकश ही मजदूर कहलाए जाते हैं।

उसके अलावा घर में रहकर कम्पनियों के उत्पादों की पैकिंग, छंटाई, लेबलिंग करने वाली महिलाओं को मेडिकल स्टोर में काम करने वाले व्यक्तियों को, फड़ खोखे पर सहायता के लिए रखे लोगों को, घरों में झाड़ू पोंछा, बर्तन, कपड़े धोने वाली महिलाओं को होटलों व ढाबों में बर्तन धोने के लिए रखे गए लोगों को व इसी तरह कई काम करने वाले मेहनतकशों को मजदूर नहीं माना जाता। ये दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन हकीक़त ऐसी ही है।

काम के प्रचार प्रसार के लिए कारखाने मालिकों के फ़ील्ड वर्कर सोशल मीडिया और बाकी माध्यमों से इस कमर तोड़ मेहनत को टाइम पास साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। अंततः राष्ट्रीय उत्पादन में इनकी भूमिका की कहीं कोई गिनती नहीं, श्रम कानूनों का इनके जीवन में कोई महत्व नहीं।

बेरोजगारी अपने विकराल रूप में है। आलम ये है कि आजकल यदि कोई व्यक्ति एक काम को छोड़ता है तो उस काम को पकड़ने के लिए अनगिनत बेरोजगार हाज़िर हैं। ऐसे में ये मजदूर एकजुट होकर संघर्ष करने से भी कतराते हैं।

दूसरा यह कि इन मजदूरों की वर्गीय चेतना को विकसित करने के लिए बड़े पैमाने पर सामाजिक राजनीतिक संगठनों की पहुंच इन तक नहीं है। ऐसे में इनका एकजुट होना काफी कठिन है। लेकिन एकजुट होकर संघर्ष करना ही श्रमिकों के लिए अंतिम विकल्प होता है, तभी जाकर हम लोग गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा,भेदभाव जैसी तमाम समस्याओं से निजात पा सकते हैं।

(लेखिका युवा सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मज़दूर वर्ग के बच्चों के शिक्षण प्रशिक्षण का स्वैच्छिक रूप से काम करती हैं।)

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