जिस फ़ैक्ट्री ऐक्ट को मोदी सरकार ख़त्म कर रही, उसका इतिहास जानते हैं?

Strike berlin

By बच्चा सिंह

श्रम कानूनों में बदलाव कर उन्हें लचीला बनाना, यह सरकारों के एजेंडे में प्रमुखता से रहा है! भाजपा-नीत सरकार इस होड़ में सबसे आगे निकल गयी।

कोरोना पूर्व भी श्रम कानूनों में बदलाव हुए हैं, कोरोनाबंदी में सबसे बड़ी मार हाशिया के लोगों, श्रमिकों पर पड़ी है, कोरोना से पहले ही वे भूखों मरने को अभिशप्त हैं।

ऐसे में श्रम कानून विहीन भारत किस मुहाने पर खड़ा है? क्या हम आजादी से पूर्व श्रम कानून विहीन के दौर में पहुंच गये हैं? जबकि फैक्ट्री एक्ट होने के बाद भी हमसे मजदूरों की भयावह स्थिति छुपी नहीं हैं। फैक्ट्री एक्ट का संक्षिप्त इतिहास क्या है?

उत्तर-जी, सही कहा आपने। श्रम कानूनों में बदलाव कर उन्हें लचीला करना, सभी सरकारों के एजेंडे में प्रमुखता से रहा है और भाजपा-नीत सरकार इस होड़ में सबसे आगे निकल गयी है।

कोरोना से पहले भी श्रम कानूनों में बदलाव हुए हैं और कोरोनाबंदी में सबसे बड़ी मार हाशिया के लोगों, श्रमिकों पर पड़ी है, कोरोना से पहले ही श्रमिक भूखों मरने को अभिशप्त हैं।

बंधुआ मज़दूरी के दौर में भारत

ऐसे में अगर मैं सच में कहूं, तो श्रम कानून विहीन भारत बंधुआ मजदूरी के दौर में फिर से प्रवेश कर रहा है। यह सिर्फ अंग्रेजों के हाथों भारतीयों को हुए सत्ता हस्तांतरण से पूर्व श्रम कानून विहीन दौर में ही नहीं बल्कि उससे भी बहुत पीछे जा रहा है।

19वीं सदी में यूरोप और अमेरिका में कार्यदिवस 12 से 16 घंटों तक विस्तारित होते थे। औद्योगिक क्रांति तक सुबह उजाला होने से शाम अंधेरा होने तक काम होता था। मजदूर अपने बच्चों को हमेशा सोते ही देखते थे।

कार्यदिवस लम्बा होने के कारण मजदूर की जिंदगी बहुत कठिन थी और प्रतिवर्ष हजारों मजदूर मारे जाते थे। कार्ल माक्र्स के साथी एंगेल्स ने अपने निबंध ‘इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा’ में मजदूरों की स्थिति का बहुत ही विस्तार से वर्णन किया है।

1886 में मई दिवस आंदोलन के बाद दुनिया भर में कार्यदिवस 8 घंटे करने के आंदोलन तेज हुए। 20वीं सदी की शुरूआत तक अनेक देशों में 8 घंटा कार्यदिवस लागू हो गया था। भारत में उद्योगों का विकास अंग्रेजी शासन के अंर्तगत हुआ था।

भारत में 19वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में उद्योगों में कार्यदिवस छोटा करने की मांग उठने लगी। देश का औद्योगिक मजदूर जागा, संघर्ष करते हुए अपने कानूनी अधिकार भी हासिल करता गया।

इस कड़ी में 1881 में देश का पहला फैक्ट्री कानून बना। इसकी मुख्य बात यह थी कि कानूनी रूप से 7 साल से कम उम्र के बच्चों से काम लेना प्रतिबंधित घोषित हुआ।

सवा सौ साल पुराना इतिहास

7 से 12 साल तक के बाल मजदूरों से मात्र 9 घंटे काम लेने, सुरक्षा की दृष्टि से मशीनों को जाली से घेरने आदि का प्रावधान बना, लेकिन बिनौला निकालने, रूई दबाने जैसे मशीनों को मौसमी उद्योगों की श्रेणी में डालकर 1881 के इस कानून की परिधि से उस प्रकृति के कामों को बाहर रखा गया।

यह गौरतलब है कि यह कानून भारतीय पूंजीपतियों के अधिनस्थ कारखानों के लिए ही थे, अंग्रेज पूंजीपतियों के कारखानों के लिए नहीं। फिर भी यह कानून भी वास्तव में कहीं लागू नहीं हुए।

1880 का दशक मजदूर संघर्षों के लगातार आगे बढ़ने का दौर था। इनमें 1884 में मुंबई कपड़ा मजदूरों के आंदोलन प्रमुख हैं। परिणामस्वप 1890 में पहला श्रम आयोग और 1891 में दूसरा फैक्ट्री एक्ट अस्तित्व में आया।

इसमें बाल श्रमिकों की न्यूनतम आयु 9 साल और काम के घंटे 9, महिलाओं के रात्रि पाली काम पर प्रतिबंध के साथ उनके काम के घंटे 11 निर्धारित हुए।

नारायण मेघाजी लोखंडे के नेतृत्व में आठ साल लम्बे संघर्ष के बाद सन् 1989 में रविवार अवकाश का अधिकार मिला। इसके अतिरिक्त सबके लिए आधा घंटा भोजन अवकाश का भी अधिकार मिला।

मुआवज़े का अधिकार

19वीं शताब्दी का पहला दशक मजदूर आंदोलनों के बड़े उभार का दौर था, जब मजदूर न केवल आर्थिक मांगों के संघर्षों को आगे बढ़ा रहे थे, अपितु लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी पर राजनीतिक हड़ताल करके अपने तेवर भी दिखा चुके थे।

इन्हीं दबावों में आयोग और कमिटियां बनी, जिनके सुधार संबंधित कई सिफारिशें आयी और 1911 में फैक्ट्री एक्ट में संशोधन हुआ। इसमें कपड़ा मिल के पुरूष मजदूरों के लिए 12 घंटे व बाल मजदूरों के लिए 6 घंटे का कार्य दिवस घोषित हुआ।

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद नयी परिस्थितियों व सोवियत रूस में मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी जनसत्ता कायम होने से पैदा उभार के नये माहौल में हमारे देश में भी मजदूर संघर्षों व संगठन निर्माण का शानदार दौर आया।

इस परिस्थिति में सत्ताधारियों को नया फैक्ट्री एक्ट बनाना पड़ा। इसका लाभ बिजली से चलने वाले कारखाना मजदूरों को मिला।

जहां काम के घंटे 11 होने के साथ ओवरटाइम सवा गुना निर्धारित हुआ। दूसरी तरफ कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923 द्वारा कार्य के दौरान दुर्घटनाओं के शिकार श्रमिकों के लिए मुआवजे आदि का अधिकार मिला।

मज़दूरों के हक में बना था क़ानून

इसी प्रक्रिया में क्रमशः कई संशोंधनों से गुजरते हुए देश का नया कारखाना अधिनियम, 1948 अस्तित्व में आया।

इस अधिनियम के अनुसार ‘कारखाने’ का अर्थ है ‘‘कोई परिसर, जिसमें वह क्षेत्र शामिल है, जहां बिजली से चलने वाले कारखाने में 10 मजदूर और बिना बिजली से चलने वाले कारखाने में 20 मजदूर काम करता है, तो वह कारखाना अधिनियम के अंर्तगत आता है।

इस एक्ट के अनुच्छेद 56 में यह प्रावधान है कि किसी भी मजदूर को भोजनावकाश की अवधि को मिलाकर 8 घंटे ही काम लिया जा सकता है। इस कानून के अनुसार वयस्क आदमी के काम का घंटा सप्ताह में 48 घंटे से अधिक का नहीं होना चाहिए।

इस एक्ट के तहत ही सुनिश्चित किया जाता है कि वर्कर से यदि कार्य अवधि के अलावा काम करवाया जाता है, तो उसे अतिरिक्त घंटों का भी भुगतान किया जाए। रात में सेवाएं देता है, तो यह रोटेशनल बेसिस पर होना चाहिए।

सामान्यतः रात 10 बजे से सुबह 5 बजे के बीच महिला कर्मचारियों की सेवाएं नहीं ली जाती।

(झारखंड क्रांतिकारी मजदूर यूनियन के केन्द्रीय अध्यक्ष बच्चा सिंह का साक्षात्कार हरियाणा से स्वतंत्र पत्रकार राजकुमार तर्कशील ने लिया है। ये आलेख ट्रेड यूनियन लीडर बच्चा सिंह के इसी साक्षात्कार पर आधारित है। पहला भाग।)

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