आत्मनिर्भरता के नाम पर बिक जाएंगे 6 सरकारी बैंक, 5 अगस्त को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान

all india bank employee strike in august 2020

मोदी सरकार जो छह साल में चाह कर भी नहीं कर पाई, उसे कोरोना के बहाने लगाए गए आपातकाल में ही कर डालने पर अमादा है।

छह सरकारी बैंकों को निजी हाथों में देने की तैयारी चल रही है और जल्द मोदी सरकार इन बैंकों की अपनी हिस्सेदारी निजी कंपनियों के हवाले कर देगी।

इसके ख़िलाफ़ सरकारी बैंक कर्मचारी संगठनों ने पांच अगस्त को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है।

सभी सरकारी बैंकों के कर्मचारियों और अफसरों की 9 यूनियनों के संयुक्त मंच युनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्स (यूएफ़बीयू)  ने 5 अगस्त को एक दिवसीय हड़ताल की अपील की है।

मोदी सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि इतने सारे सरकारी बैंकों की जगह सिर्फ एक या दो सरकारी बैंक होंगे जिससे परिचालन का खर्च बचेगा।

अभी बीते शनिवार को ही बैंकों के राष्ट्र्रीयकरण की 51वीं वर्षगांठ के अवसर पर ऑल इंडिया बैंक एंप्लाईज एसोसिएशन (एआईबीईए) ने 17 सरकारी बैंकों के 2,426 विलफुल डिफॉल्टर्स (जानबूझ कर पैसा हड़पने वालों) की एक सूची जारी की थी।

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बैंकों का डेढ़ लाख करोड़ लेकर बैठे चंद पूंजीपति

एसोसिएशन के अनुसार, इनके ऊपर 1.47 लाख करोड़ रुपये का कर्ज़ बकाया है, जो बट्टे खाते में डाल दिया गया है।

विलफुल डिफ़ाल्टर्स की संख्या में इन 17 सरकारी बैंकों में टॉप पर है भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई)।

केन्द्र सरकार और बड़ी कंपनियां यह दावा करती हैं कि निजी मालिकाने वाले बैंक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से ज्यादा कुशल हैं।

इस दावे के समर्थन में विभिन्न तथाकथित विशेषज्ञ यह दिखाने के लिये आंकड़े पेश करते हैं कि सरकारी बैंकों की तुलना में, निजी बैंकों में प्रति कर्मचारी मुनाफे ज्यादा हैं।

लेकिन मनमाने तरीक़े से बड़े कार्पोरेट घराने को पूंजी उपलब्ध कराकर ये अपनी पूंजी गंवा रहे हैं और इनका एनपीए बढ़ रहा है।

हमारे देश में सरकारी बैंकों के पास चल और अचल संपत्ती अकूत है। सरकारी बैंकों के पास बड़े और छोटे शहरों में काफी ज़मीन-जायदाद और इमारतें भी हैं। निजी कंपनियों की इसी पर नज़र है।

बैंकों के निजीकरण के कदम के पीछे असली कारण यह है कि विदेशी और देशी पूंजीपति आज सरकारी बैंकों की विशाल सम्पत्ति को हड़पना चाहते हैं।

भारत के सरकारी बैंक आज भी दुनिया में सबसे सेहतमंद बैंकों में गिने जाते हैं, जबकि अमरीकी और यूरोपीय बैंक घोर संकट में हैं और उनका स्टॉक गिरता जा रहा है।

मुनाफ़ा निचोड़ने का तर्क

बैंकिंग सेक्टर सर्वाधिक रोज़गार देने वाले चंद क्षेत्रों में से एक है। मोदी सरकार की चली तो बड़े पैमाने पर बढ़ रही बेरोज़गारी में और इजाफ़ा होगा।

पिछले 40 सालों में कई बार इन बैंकों के निजीकरण की कोशिशें हुईं लेकिन कोई सरकार इनको हाथ नहीं लगा सकी।

यह हमला 80 के दशक में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में शुरु हुआ, जब राजीव गांधी ने तथाकथित आधुनिकीकरण कार्यक्रम शुरु किया था।

आज बैंक कर्मचारी खंडेलवाल समिति नामक एक गैर सरकारी समिति की मज़दूर विरोधी सिफारिशों के अनुसार पूंजीवादी हमले को बढ़ाने की एक नयी योजना के खिलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं।

सरकारी नेशनल अकाउंट्स स्टैटिस्टिक्स में प्रतिवर्ष “बैंक और बीमा में जोड़े गये मूल्य” को (1) बेशी मूल्य, जिसे “कार्यकारी बेशी मूल्य” कहा जाता है, और (2) कर्मचारियों को दिया गया मूल्य, जिसे “श्रम की आमदनी” कहा जाता है, इन दोनों भागों में बांटा जाता है।

सरकारी बैंकों के “आधुनिकीकरण” के तमाम कदमों और निजी कंपनियों के लिये बैंकिंग क्षेत्र को खोल देना, इन दोनों की वजह से बेशी मूल्य श्रम की आमदनी की तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ा है।

कार्ल मार्क्स ने इस अनुपात को पूंजी द्वारा श्रम के शोषण का स्तर बताया है।

बैंकिंग सेक्टर का संकट

बैंकों के निजीकरण से दोहरे शोषण के नर्क का दरवाज़ा खुलने वाला है। एक तरफ़ सुरक्षित नौकरियां चली जाएंगी और लाखों कर्मचारी बेरोज़गार हो जाएंगे तो दूसरी तरफ़ बड़ी कंपनियों का बैंकों पर एकाधिकार हो जाएगा और छोटे उद्योगों को लोन देने की शर्तों के आधार पर उन्हें अपने कब्ज़े में ले लेंगी।

तीसरा एक और ख़तरा है कि इन सरकारी बैंकों में लोगों की जीवन भर की जमा पूंजी है और कंपनियों के अधीन ये बैंक अगर अधिक से अधिक मुनाफ़ा लूटने का मकसद रखेंगे तो यह खतरा बना रहता है कि लोग अपनी मेहनत की कमाई को खो बैठेंगे।

मुनाफाखोर बैंक बड़े पैमाने पर सट्टेबाजी में पैसा लगाते हैं। इसी प्रकार की सट्टेबाजी के कारण 2008 में वैश्विक संकट शुरु हो गया, जिसकी वजह से पूरी दुनिया में सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया और लाखों-लाखों लोगों के रोजगार को बहुत नुकसान हुआ।

लाखों-लाखों मेहनतकशों ने अपनी बचत या अपने घर या दोनों खोये।

असल में बैंकिंग सेक्टर में आया संकट चंद पूंजीपति घरानों की लूट का नतीजा है जो पिछले कई दशकों से होता आया है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि इन्हें बेच दिया जाए और अपना पिंड छुड़ाया जाए।

बल्कि इसे दुरुस्त करने की ज़रूरत है, राजनीतिक दख़लंदाज़ी से आज़ाद करने और किसानों, छोटे कारोबारियों, लघु और मध्यम उद्योगों को कर्ज देने को बढ़ावा देने की ज

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