28-29 मार्च देशव्यापी आम हड़तालः बहरों को सुनाने के लिए आवाज़ बुलंद करनी होगी- नज़रिया

By गौतम मोदी

23 मार्च 2022 को पूरे देश ने भगत सिंह, सुखदेव थापर, और शिवराम राजगुरु की शहीदी को नमन किया। मोदी सरकार के नेता भी इसमें पीछे नहीं रहे। यह संघ परिवार की इतिहास को मिथक बनाने और अपनी असलियत छुपाने की कोशिश का हिस्सा है। ऐसे में यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि हम उन परिस्थितियों को भी याद करें जिन की वजह से भगत सिंह और साथियों ने कुर्बानी दी। असेंबली हॉल में धमाके के बाद फेंके गए पर्चे में भगत सिंह ने लिखा था कि सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (पब्लिक सेफ्टी बिल) और औद्योगिक विवाद विधेयक (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) की आड़ में मज़दूरों और उनके नेताओं पर दमन बढ़ाने की जो तैयारी सरकार कर रही है और जनता की आवाज़ कुचलने के लिए लाए जा रहे अखबारों द्वारा राजद्रोह रोकने का कानून (प्रेस सेडिशन एक्ट) के ख़िलाफ़ यह कदम उठाया जा रहा है। अंग्रेज़ घुसपैठियों के लिए यह धमाका एक चेतावनी थी कि जनता जाग रही है, कानून का सहारा ले कर लोगों का शोषण नहीं चलने वाला।

हम आज एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जब भगत सिंह का पर्चा उतना ही प्रासंगिक है जितना तब जब 93 साल पहले इसे लिखा गया था। पिछले तीन साल में पूर्ण बहुमत वाली दक्षिणपंथी सरकार ने एक ओर जहाँ मज़दूर वर्ग को कोरोना महामारी के दंश से अपनी जान बचाने के लिए पूरी तरह से ‘आत्मनिर्भर’ छोड़ दिया था, ‌वहीं दूसरी ओर 4 लेबर कोड बिना किसी चर्चा या ‌विमर्श के आनन-फानन पारित कर दिए। इन 4 लेबर कोड में जिन कानूनों का संशोधन किया गया है उन में औद्योगिक विवाद अधिनियम और ट्रेड यूनियन कानून भी शामिल हैं। यह मज़दूरों के यूनियन बनाने और अपने पसंद के यूनियन का सदस्य बनने के मौलिक अधिकार पर सीधा हमला है। जग-जाहिर है कि भाजपा सरकार कानूनों में यह संशोधन अपने पूंजीपति आकाओं को रिझाने के लिए कर रही है क्योंकि कर्ज़ में माफी, टैक्स में भारी छूट और जल-जंगल-ज़मीन की मनमानी लूट करने देने पर भी भाजपा सरकार ‌विदेशी और देशी निजी पूंजी को निवेश करने के लिए प्रेरित करने में पिछले लगभग 8 सालों के अपने कार्यकाल में पूरी तरह से विफल रही है। इसलिए भाजपा सरकार ने अब पूंजी को लुभाने के लिए मज़दूरों की श्रम शक्ति पर निशाना साधा है।

भाजपा सरकार सोचती है कि मज़दूरों को गुलाम बना कर और आंकड़ों का हेर-फेर कर ‘ईज़ आफ़ डूईंग बिज़नेस’ जैसी लफ्फाजी से देश की आर्थिक स्थिति सुधारी जा सकती है। सच्चाई यह है कि महामारी शुरू होने से पहले ही बेरोज़गारी अपने 45 साल के सबसे बुरे स्तर पर थी। महामारी के कारण दुनिया भर में आई आर्थिक गिरावट ने मज़दूर वर्ग का जीना मुहाल कर दिया है। बुरी आर्थिक नीतियों के कारण गए सालों में रोजगार के नए अवसर बनना तो दूर की बात है, सरकार ने खाली पड़े पदों पर भी सालों से नियुक्तियाँ नही की हैं। कोरोना काल में जिन आशा, आंगनवाड़ी, सफाई कर्मी और अन्य कर्मचारियों को अत्यावश्यक सेवा प्रदाता कहा गया, जिन पर फूल बरसाये गए आज उनसे ठेके पर, कौड़ियों को मोल काम करवाया जा रहा है। स्थायी नौकरी और बेहतर मज़दूरी की मांग करने पर उन पर लाठियाँ बरसायी जा रही हैं। ग्रामीण क्षेत्र में लोगों का एकमात्र सहारा नरेगा है, उसमें भी इस साल के बजट में 34 प्रतिशत की कटौती कर दी गई है। ऐसा तब हो रहा है जब शहरों से वापिस गाँव लौटने पर मज़बूर प्रवासी मज़दूरों का एक बड़ा तबका नरेगा पर आश्रित है और पिछले साल का करोड़ों रूपयों का भुगतान होना बाकी है।

आय ना होने और महंगाई बढ़ने के कारण देश की अर्थव्यवस्था गर्त में चली गई है। इस स्थिति से उबरने के लिए जरूरी है कि लोगों को सुरक्षित, स्थायी नौकरी मिले। जब लोगों के पास खर्च करने को पैसे होंगे तब ही बाज़ार में मांग बढ़ेगी और रोज़गार के नए अवसर पैदा होेंगे। यह तभी संभव है जब सरकार अपनी मुद्रास्फीति नीति बदले, सामाजिक सुरक्षा पर अपना खर्च बढ़ाए ताकि पैसा सीधा लोगों की जेब तक पहुँचे। लेकिन भाजपा सरकार की नीतियाँ इसके बिल्कुल विपरीत हैं। पैसे उगाहने के लिए सरकार ने भविष्य निधि पर मिलने वाली ब्याज दर में कटौती कर दी है, जिससे अनिश्चितता और बढ़ गइ है। सरकारी उपक्रमों जैसे की भारतीय बीमा निगम आदि में विनिवेश की तैयारी चल रही है, या फिर उन्हें निजी कंपनियों को औने-पौने दाम पर बेचा जा रहा है। रेलवे स्टेशन, हवाईअड्डे, बंदरगाह समेत बैंक आदि का लगातार निजीकरण हो रहा है। जिन पूँजीपतियों को सरकार सार्वजनिक संपदा बेच रही है वे सरकारी बैंक के कर्ज़दार हैं। राजनैतिक दबाव में इन पूँजीपतियों का कर्ज़ माफ करने के कारण सरकारी बैंक दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गए हैं।

इतिहास बताता है कि जब-जब आर्थिक संकट गहराता है, दक्षिणपंथी ताक़तें सर उठाती हैं। भारत का भी यही हाल है। सत्तासीन पार्टी आर्थिक संकट से ध्यान भटकाने के लिए देश को सामाजिक संकट के कुएं मेंं धकेल रही है। लोगों में धार्मिक विद्वेष बढ़ रहा है, लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन लगातार हो रहा है जिसमें देश की कार्यपालिका और न्यायपालिका भी सरकार का साथ दे रही है। देश के निराश, हताश व बेरोज़गार युवा वर्ग को नफ़रत की अफीम चटा कर हिंसा के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मेहनतकश जनता को जाति, धर्म, प्रांत, भाषा आदि के आधार पर भड़का कर आपस में लड़ाया जा रहा है।

बहुसंख्यक धार्मिक सम्मेलन और चुनावी मंचों से निरंकुश भड़काऊ भाषण दिए जा रहे हैं, संघ परिवार के पुरूष प्रधान और हिन्दुत्व वादी सोच का खुल कर प्रचार किया जा रहा है। इसका प्रतिकूल परिणाम साफ दीखने लगा है, मुस्लिम किशोरियों को शिक्षा से वंचित किया जा रहा है, उनके पहनावे को निशाना बना कर उन पर हमले किए जा रहे हैं, महिलाओं की प्रतिभागिता श्रम बाज़ार में लगातार घट रही है। जनता के हक़ की बात करने वाले लोगों को आतंकवादी और देशद्रोही बता कर उन पर केस चलाए जा रहे हैं। मज़दूर और उनके यूनियन इन फ़र्जी मामलों से अछूते नहीं हैं। ट्रेड यूनियन अधिकार लोकतांत्रिक अधिकारों संग गुंथे हुए हैं। यदि लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन जारी रहा तो मज़दूरों के अधिकार भी सुरक्षित नहीं रहेंगे।

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा है कि देश को आज़ादी का अमृत काल मनाने की तैयारियाँ करनी चाहिए। आज़ादी से अब तक का यह सबसे अंधकारमय काल होगा जब देश बेरोज़गारी, भुखमरी, अशिक्षा और वैमनस्य के चपेट में होगा। मज़दूर वर्ग को अमृत काल नहीं द्रोह काल की तैयारी करनी होगी। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा 28-29 मार्च 2022 को आम हड़ताल का आह्वान मज़दूर विरोधी क़ानूनों और लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल है। न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव इस जंग में मेहनतकश वर्ग के हर लड़ाके के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा है और भगत सिंह की कही बात को दोहराता है कि – एक युद्ध जारी है और यह युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक चंद शक्तिशाली लोगों का मेहनतकश जनता के संसाधनों पर कब्ज़ा ख़त्म नहीं हो जाता।

(लेखक ट्रेड यूनियन एनटीयूआई के महासचिव हैं।)

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