देश के अरबपतियों पर 1% कोरोना टैक्स लगाए मोदी सरकार, सबका इलाज़ मुफ़्त में हो जाएगा

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By नीरज जैन

कहा जा रहा है कि कोरोना अभी गांव और कस्बे स्तर पर नहीं पहुंचा है लेकिन असल में ये अब मज़दूर बस्तियों में पहुँच चुका है। मैंने आज अख़बार में पढ़ा है कि औरंगाबाद की बजाज ऑटो फैक्ट्री में 300 कामगार कोरोना पोजिटिव मिले हैं।

हमारे यहां कोरोना संक्रमितों का ऑफिशियल आँकड़ा 6 लाख बताया जा रहा है जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि वास्तविक आँकड़ा इससे कई गुना ज़्यादा है। हमारे देश में टेस्टिंग उतनी नहीं की जा रही। ताकि आँकड़ा कम रहे।

हमारे यहाँ प्रति लाख आबादी पर 300-400 टेस्ट हो रहे हैं। जबकि दुनिया के दूसरे देशों पर प्रति लाख आबादी पर टेस्टिंग का आँकड़ा 8000 के करीब है।

इसी तरह मरने वालों की संख्या भी कम करके बताई जा रही है। अस्पतालों और डॉक्टरों को आदेश है वो कोरोना से मरने वालों को हर्ट अटैक और डायबिटीज से मौत बताकर आँकड़ों को कम कर रहे हैं।

24 मार्च को संक्रमितों सी संख्या 600 थी और 1 जून को 2.5 लाख हो गई। और फिर एक महीने बाद 6 लाख। अब तो साफ़ है कि बहुप्रचारित लॉकडाउन सफल नहीं रहा। ऊपर से अर्थव्यवस्था संकट में पहुंच गई तो इन्होंने खोल दिया। जो मरता है तो मरे।

भारत बीमारियों की राजधानी

दरअसल लॉकडाउन इलाज नहीं है। ये सिर्फ़ संक्रमण धीमा करके बीमारी को कंट्रोल करने का मौका देता है। जो प्लानिंग करनी चाहिए थी वो हुई नहीं। सरकार ने अब लॉकडाउन पूरी तरह खोलकर इकोनॉमी को खड़ा करने पर फोकस कर दिया है।

पूरी तरह से सोच लिया है कि जो भी मरे कंपनियां और फैक्ट्रियां चलेंगी। मालिक तो जाएंगे नहीं, मैनेजर देखेगा, मजदूर काम करेंगे। संक्रमति होंगे, मरेंगे पर कंपनी, कारखाने चलेंगे। प्रधानमंत्री ने तो अब कोरोना पर बयान देना भी बंद कर दिया है।

अख़बारों लगातार यूरोप और अमेरिका के कोरोना केसोंपर लिखा जा रहा है, अमेरिका के केसों पर तो विशेषकर, यूरोप में फैल रहा वहां इतने लोग मर रहे और उसके बरअक्श भारत में होने वाली मौत की दरों को रखकर एक तरह से लोगों से संतोष करवाया जा रहा है।

लेकिन जन देशों ने इस बीमारी को सफलता पूर्वक हराया है अख़बारों में उन देशों की चर्चा हो ही नहीं रही। जैसे क्यूबा, वेनेजुएला, निकारागुआ जैसे देशों ने कोरोना को सफलतापूर्वक हराया है और अब वो अपनी इकोनॉमी पर फोकस कर रहे हैं जब ख़तरा टल गया है।

अमेरिका यूरोप और भारत एक तरह की व्यवस्थाएं हैं, पूँजीवादी व्यवस्था। जो सिर्फ़ कंपनियों का हित देखती हैं।

दुनिया भर में भारत को बीमारियों की राजधानी कहा जाता है। क्योंकि यहाँ टीवी और मलेरिया जैसी इलाज़ वाली बीमारियों से भी लोग मर जाते हैं। भारत की स्वास्थ्य सुविधाएं वैसे ही बहुत खराब हैं।

स्वास्थ्य बजट पर सिर्फ 1.5% नाकाफ़ी

भारत अपनी जीडीपी की सिर्फ़ 1.5 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। जबकि यूरोप में जीडीपी का 5-8 प्रतिशत तक स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है। वहीं कई विकासशील देशों में जीडीपी का 3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च होता है।

इसे यदि प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य खर्च के हिसाब से समझें तो भारत में सालाना प्रति व्यक्ति 1100 रुपये इलाज़ पर खर्च किया जाता है। जबकि यूरोप में सालाना प्रति व्यक्ति 3 लाख रुपए खर्च किया जाता है।

भारत स्वास्थ्य सुविधाओं पर लगभग नहीं के बराबर खर्च करती है। जबकि दूसरी ओर प्राइवेट अस्पतालों को सब्सिडी देकर खड़े करने केलिए प्रोत्साहन दिया जाता है। उन्हें सस्ते दर पर ज़मीन और दूसरी सुविधाएं मुहैया करवाई जाती हैं।

सरकारी सुविधाएं नहीं हैं तो लोग प्राइवेट अस्पताल में जाते हैं। इलाज में 65 प्रतिशत खर्च लोगों को अपने जेब से करना पड़ता है।

गरीब लोग प्राइवेट अस्पताल का इलाज वहन नहीं कर सकते तो बिना इलाज के ही मर जाते हैं। यही कारण है कि भारत में इलाज वाली बीमारियों से भी मरने वालों की संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा है।

गंभीर बीमारियों से 60 प्रतिशत लोग मरते हैं जबकि इनकी समुचित चिकित्सा व्यवस्था करके मौतों को टाला जा सकता है।

जो देश सामान्य बीमारियों से नहीं लड़ पा रहा है उस देश में यदि कोरोना बीमारी फैलने लगी तो उस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था उसको टैकल कर ही नहीं सकती।

अमीरों पर लगाएं टैक्स

लॉकडाउन के साथ ही कुछ ज़रूरी कदम उठाना चाहिए था। सरकार को अपना स्वास्थ खर्च बढ़ाना चाहिए था। अभी खर्च 3.4 लाख करोड़ रुपये है। दोगुना या तिगुना करने पर इसमें 3.4 करोड़ रुपये और लगेंगे। ये सरकार कर सकती थी।

सरकार जो अमीरों को टैक्स में छूट देती है वो लगभग 6 लाख करोड़ रुपये सालाना है। सरकार अमीरों के जो बैंक लोन माफ़ करती है वो 2 से 3 लाख करोड़ रुपए है।

खनिज पदार्थों को सरकार ने प्राइवेट हाथों में सौंप दिया है। यदि सार्वजनिक हाथ में रहता ये आमदनी सरकार के पास आती। भारत में अरबपतियों की संख्या तीसरे नंबर पर है। जबकि सरकार उन पर टैक्स बहुत कम लगाती है।

दिलचस्प बात है कि 70 प्रतिशत टैक्स छुपे तौर पर आम जनता से वसूला जाता है और डायरेक्ट टैक्स से 30 प्रतिशत पैसा आता है। जबकि दुनिया में इसका ठीक उलटा है। इसीलिए जीएसटी पर इतना जोर है क्योंकि वो छुपे तौर पर हर आदमी से उगाही करने का सिस्टम है।

हमने एक याचिका डाली है कि यदि ऊपर के 1 प्रतिशत अमीरों पर सरकार 2 प्रतिशत संपत्ति टैक्स लगाए तो भारत सरकार सालाना साढ़े नौ लाख करोड़ रुपये की आमदनी कर सकती है।

जब आप पूरे देश से बलिदान करने की मांग कर रहे हैं तो अमीरों पर कम से कम 1 प्रतिशत कोरोना टैक्स लगा दीजिए।

ये मांग तो अब वैश्विक स्तर पर जोर पकड़ रही है कि इस संकट से उबरने के लिए अमीरों पर वेल्थ टैक्स लगाया जाए। वारिस कर (पिछली पीढ़ी से मिली दौलत) लगा दिया जाए तो 5-6 लाख करोड़ रुपये ऐसे ही इकट्ठा हो सकते हैं।

निजी अस्पतालों को अपने हाथ में ले सरकार

यूरोप के देशों का कोरोना से लड़ने का राहत पैकेज 10-20 प्रतिशत है। सरकार ने जो 20 लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज घोषित किया उसमें से सिर्फ डेढ़ से दो लाख करोड़ ही राहत पैकेज का है बाकी सब फर्जी है।

दूसरा कदम ये उठाना चाहिए था कि जब ज़्यादातर बेड (2/3) और ज़्यादातर वेंटीलेटर (80%) प्राइवेट निजी अस्पतालों के पास हैं।

जबकि कोरेना के समय में अस्पताल बंद करके लोग घरों में बैठे हैं। तो पूरे प्राइवेट अस्पताल नेटवर्क को सरकार को अपने हाथ में ले लेना चाहिेए था। क्योंकि आपके ज़्यादातर अच्छे अस्पताल, अच्छे डॉक्टर प्राइवेट सेक्टर में हैं।

जब मोदी कहते हैं कि ये युद्ध है। कोरोना के खिलाफ़ हमने युद्ध छेड़ा है। तो एक हाथ पीछे बाँधकर थोड़े ही युद्ध लड़ा जाता है। पूरी ताक़त लगाई जाती है। इसका अर्थ है कि देश की सारी स्वास्थ्य सुविधाओं का इसमें झोंकना चाहिए था, सबको इस्तेमाल में लाना चाहिए था।

स्पेन, आयरलैंड न्यूजीलैंड जैसे देशों ने यही किया। वहां जितने भी प्राइवेट सेक्टर के अस्पताल थे, वो सारा इन्होंने टेकओवर किया।

यहां तो प्राइवेट अस्पताल में टेस्टिंग की सुविधा भी 4500 रुपए प्रति व्यक्ति रखी गई, जबकि पब्लिक सेक्टर में टेस्टिंग सुविधा कम थी मगर व्यवस्था अपर्याप्त थी।

तीसरा कदम है बड़े पैमाने पर कांटैक्ट ट्रेसिंग। यानी बीमार लोगों के करीबियों की पहचान करके उनकी टेस्टिंग हो और क्वारंटाइन किया जाए। कई बार लक्षण नहीं दिखता है। यही नहीं बीमारी के कारण गई नौकरियों के बदले राहत पैकेज दिया जाए।

शहरों में भी मनरेगा जैसी स्कीम लाए सरकार

सभी ट्रेड यूनियन व युवाओं, महिलाओं, किसानों के संगठन को विश्वास में लेकर इलाके में सतर्कता अभियान चलाया जाए। ये कार्य होना चाहिए। कुछ महीनों के लिए सरकार को 6-7 हजार रुपए महीने हर परिवार को दिया जाए।

आज देश में 90 प्रतिशत से ज़्यादा लोग असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं। लॉकडाउन के बाद वो बेरोजगार होकर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं।

संकट में एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था खड़ा करने का मौका मिल जाता है। गांव में मनरेगा का बजट बढ़ाया जा सकता है। शहरों में एक अर्बन इंपलॉयमेंट गारंटी स्कीम लांच की जा सकती है।

इन दोनों में सरकार का कुल 4-5 लाख करोड़ रुपये खर्च होता, लेकिन इससे जो बेस बनता वो फायदेमंद होता। मनरेगा के जरिए गांव में जल संरक्षण, मिट्टी उर्वरकता बढ़ाने में किया जा सकता था। इससे खेती मजबूत होती। तो कृषि संकट दूर होता।

जब गांव में इतनी बड़े पैमाने पर लोग वापस पहुँचे हैं तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खड़ा किया जा सकता है, जो गांधी का भी सपना था।

इसके लिए ज़रूरी है कि सभी विपक्षी दल साथ आएं, सोशलिस्ट मूवमेंट इसमें पहले ले और सरकार से एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था, वैकल्पिक स्वास्थ्य व्यवस्था, वैकल्पिक नीति की माँग करे।

(‘कोरोना के बाद का भारत’ श्रृंखला के अंतर्गत आयोजित एक ऑनलाइन सेमिनार में वर्कर्स यूनिटी के फेसबुक लाइव में बोलते हुए सामाजिक कार्यकर्ता और लोकायत प्रमुख नीरज जैन ने अपनी बातें रखीं। इसे टेक्स्ट में रूपांतरित किया है सुशील मानव ने।)

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