“मैं नहीं चाहती मेरे ट्रॉमा का कोई मज़ाक़ उड़ाए”- कश्मीरी फ़िल्म डायरेक्टर मधुलिका जलाली

Madhulik Jalali

By आमिर मलिक

 इंडिया हैबिटेट सेंटर, नई दिल्ली में कश्मीरी फ़िल्म डायरेक्टर मधुलिका जलाली की फ़िल्म ‘घर का पता’ की स्क्रीनिंग हुई। यह उनकी पहली फ़िल्म है, जिसमे उन्होंने डायरेक्टर का रोल अदा किया है।

अपने घर का पता ढूंढते हुए मधुलिका उस मक़ाम तक पहुंचीं जहां गुस्से, तनाव और उदंडिता के बरअक्स दयालुता, शांति, प्रेम और दुःख के साथ–साथ लॉस की कहानी कहती नज़र आती हैं।

कीर्ति फ़िल्म क्लब और जागोरी की जानिब से बेयोंड बॉर्डर्स, फेमिनिस्ट फ़िल्म फेस्टीवल के साए में उनकी तीसरी एडिशन के आख़िरी दिन चले फ़िल्म ‘घर का पता’ उस हिम्मत की कहानी है जो बताती है कि लॉस अक्सर आपकी सोच से आगे जाकर आपको काम करने का हौसला अता करती है।

मधुलिका ने अपनी फ़िल्म में इस बात का ख़ास ख़्याल रखा कि वायलेंस को मोहब्बत से काउंटर किया जाए।

यह मोहब्बत प्रोपेगंडा भी नहीं थी। यह और ही तरह की फ़िल्म है जिसमें उन्होंने अपने फ़ैमिली के लोगों की कहानी बयान की है। वह घर की तलाश में पहली बार मई 2014 को कश्मीर गईं थीं। यह वही दिन थे जब नरेंद्र मोदी ने भारत के नए प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लिया था।

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पीछा करता एक ट्रॉमा

इस फ़िल्म के शुरू होने से पहले स्क्रीन पर मई 2014 लिखा था। इस फ़िल्म ने किसी को कश्मीरी पंडितों के विस्थापन का ज़िम्मेदार नहीं बनाया है। सिर्फ़, इस कड़ी को पकड़े रखा कि उनके साथ ज़ुल्म हुआ।

जब उनका विस्थापन हुआ तब मधुलिका महज़ छह बरस की थीं। आज उनकी उम्र छत्तीस बरस है। उस ट्रॉमा से वह आज भी दो-चार हो रही हैं। इसे इंटर जेनरेशनल ट्रॉमा कहते हैं। यह मां बाप से बच्चों में ट्रान्सफर हो जाता है।

इस सवाल के जवाब में कि उन्हें कैसा लगता है जब उनके ट्रॉमा का राजनीतिक इस्तेमाल होता है? इसके बारे में बात करते हुए वह भावुक जाती हैं, कहती हैं, “मैं नहीं चाहती मेरे ट्रॉमा का कोई मज़ाक़ उड़ाए। कोई मेरे दुःख का फ़ायदा उठाए। मैं क्या कोई भी ऐसा नहीं चाहेगा।”

कोई किसी के दुःख का फ़ायदा उठाए, न सिर्फ़ फ़ायदा उठाए बल्कि उन दुःख दर्द से करोड़ों का बिज़नेस कर ले और उसका इस्तेमाल कर के किसी और समुदाय के ख़िलाफ़ दंगा और फसाद का माहौल पैदा कर दे— ऐसे ही हालत को शायद कहते हैं ज़मीन पर पड़े इंसान के गर्दन पर पैर रखना।

मधुलिका जलाली अपने घर की तलाश करते हुए कहती हैं कि काश उन्हें वह जगह का एक कोना या इक दीवार ही नज़र आ जाए जहां उनके पूर्वज और उनका परिवार रहा करता है। बड़ी मुश्किलों से वह उस जगह को ढूंढ लेने में कामयाब तो हो जाती हैं मगर घर अब भी नज़र नहीं आता।

कमला भसीन की कविता की एक पंक्ति है — मैं सरहद पर बनी दीवार नहीं, मैं तो उस दीवार पर पड़ी दरार हूं। यह फ़िल्म भी उस दीवार को गिराते हुए अपनी मंज़िल तलाश करती है जो किसी दौर में राजनेताओं और सरकारों ने वहां के बाशिंदों के दरम्यान खड़ी कर दी हैं।

मधुलिका उस जगह जाती हैं जहां उनका घर था। रास्ते में उनको वहां रह रहे कश्मीरी मुसलमान मिलते हैं। वह मधुलिका और उनकी मां से कहते हैं — ‘आपको डरने की ज़रूरत नहीं है। हम आपके भाई हैं।’

इस कहानी का सबसे अहम रंग यह है कि वह मुसलमान मधुलिका को बताते हैं कि इस ज़मीन पर कभी आपका घर हुआ करता था। यह ज़मीन आपकी है। यह आसमान आपका है।

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जिन्हें अपना घर देखना नसीब न हुआ…

इस सीन को देखने के बाद दर्शक अपने आंसू नहीं थाम सके। उस मुसलमान के होंठ भी लरज़ गए थे। अब उन्होंने अपनी सिगरेट सुलगा ली थी। वह मधुलिका को कहते हैं — ‘मैंने आपके अब्बा से कहा था कि वह यहां दोबारा घर बना लें। वह नहीं आए। इस बात को कई बरस बीत गए थे। अब अब्बा भी इस दुनिया में नहीं रहे।’

यह सुनकर उस घर में रह रही एक मुसलमान औरत ज़ोर से रोने लगती हैं। मधुलिका की मां को गले लगाते हुए वह एक लम्हे में तीस सालों की दास्तां बयां कर देना चाहती हैं। वह मधुलिका को बताती हैं कि जब वह छोटी थीं तो वह उस बच्ची को गोद में उठाकर दुलार किया करती थीं।

मधुलिका को अपना घर देखना अब भी नसीब नहीं हुआ। वह वापिस आ गईं। उनके किसी कज़िन ने बाद में उनको एक वीडियो भेजा जो 1989 का था। उसमें एक छोटा सा शॉट था जिसमें उनका घर उनको देखने को मिला। घर का पता सिर्फ़ एक मधुलिका की कहानी है। दर्शकों में कई ऐसे दर्शक भी मौजूद थे जिन्हें अपना घर देखना नसीब नहीं हुआ।

एक दर्शक ने कहा — मैंने भी यह कोशिश की थी कि मुझे अपना घर दिख जाए, मगर ऐसा नहीं हुआ। वहां बैठे एक कश्मीरी मुसलमान ने कहा कि फ़िल्म देखकर उनकी आंखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।

असम से आए दो मुसलमानों ने कहा कि यह ज़ुल्म किसी के साथ न हो। ऐसा कहकर वह ख़ुद को भी हिम्मत दे रहे थे। किसी कश्मीरी पंडित ने कहा — यह कोशिश होनी चाहिए कि दूरियां मिटा दी जाएं। एक आसमान के नीचे कश्मीरी सारे बैठ सकें। यह सुनकर अल्लामा इक़बाल का इक शेर याद आया:

“आ ग़ैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें

बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें”

एक दर्शक ने कहा — हालत ऐसे हैं कि घर को ख़ुद समझना या किसी को समझा पाना मुश्किल है। बस कभी लगता है कि किसी को कश्मीरी में बात करते हुए देख लिया तो घर जैसा महसूस हो जाता है। यह फ़िल्म उनके लिए एक कम्युनिटी में इकट्ठे बैठने जैसा था।

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वह आगे बताती हैं — किसी को भी जिसे मजबूर किया जाए कि वह घर छोड़ दे, वह उन तमाम लोगों के साथ खड़ी हैं, भले ही वह कश्मीरी हों, बंगाली हों, पंजाबी हों असम के हों या फ़िलिस्तीन के।

मधुलिका ने अपने घर का इक कोना देख लिया। वह कामयाब हैं। हां! वह अपने अब्बा के साथ देख सकतीं तो उन्हें इस बात का मलाल नहीं रहता कि उन्होंने उनके साथ वह जगह नहीं देख सकीं जहां उन्होंने अपनी उम्र के शुरू के छह साल गुज़ारे थे।

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