मट्टो की साइकिलः यह फिल्म हर मज़दूर को क्यों देखनी चाहिए?

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By आशुतोष कुमार

साइकिल मेरी प्रिय सवारी है। अलीगढ़ के शुरुआती सालों में साइकिल के सहारे ही सारा शहर धांगता फिरता था। यह कोई दो दशक पहले की बात है। साइकिल से मैंने बचपन में एक से दूसरे शहर की यात्रा भी की है।

आजकल सुबह सुबह साइकिल सवारों के कई जत्थे घूमते मिलते हैं। लेकिन वे या तो शौक से या सेहत के ख़याल से साइकिल चलाते हैं।। दिल्ली एनसीआर की सड़कें साइकिल चलाने लायक बिल्कुल नहीं है।

लेकिन एनसीआर के सिनेमाघरों में “मट्टो की साइकिल” लग गई है। जल्दी ही हम इस का दीदार करने वाले हैं। आप भी वक्त रहते कर लीजिए।

प्रकाश झा सरीखे सफल और समादृत निर्देशक को लीड रोल में अभिनय करते देखने का आकर्षण अपनी जगह है, और ट्रेलर देखकर पता चल जाता है कि झा ने यह साबित कर दिया है कि सिनेमा की भाषा पर उनकी पकड़ कितनी गहरी है।

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लेकिन सबसे खास बात यह है कि फिल्म के निर्देशक M. Gani ने एक भूली बिसरी साइकिल को उठाकर उन मजदूरों के जिंदगी का महाकाव्य रच दिया है, जो भारत में नागरिक अस्तित्व के सीमांत पर रहते हुए न केवल जिंदा है बल्कि क्या खूब जिंदा हैं।

एक बार तालाबंदी ने हमें सच्चाई से रूबरू कराया था। अपने मजदूर पिता को अपनी साइकिल पर बैठाकर हजारों मील ले जाने वाली उस किशोरी को भारत भूल नहीं पाएगा।

हमारी सड़कें आसान किस्तों पर मिल रही महंगी गाड़ियों से खूब भर गई हैं, इसलिए हम देख नहीं पाते कि इन्ही सड़कों के नीचे असंख्य साइकिलों का एक कारवां चलता रहता है। यह साइकिलें इन सड़कों को जिंदा रखने वाली असली श्रम शक्ति हैं।

गनी की फिल्म बिल्कुल ठीक वक्त पर एक चमत्कार की तरह आई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अदानी जल्दी ही दुनिया के सबसे बड़े धन्ना सेठ बन जाएंगे लेकिन पृथ्वी धन्ना सेठों के धन से नहीं मजदूरों की मेहनत से घूम रही है। सच पूछा जाए तो गनी खुद ही एक मजदूर रंगकर्मी हैं।

अब समय आ गया है जब मजदूर अपनी सबसे दिलचस्प और मार्मिक कहानियां सुनाएंगे और वह समय भी जल्दी आने वाला है जब हर किसी को उनकी कहानियां सुननी पड़ेगी। बिना सुने महफ़िल से उठ नहीं पाएंगे। मट्टो की साइकिल देखने की यह सबसे बड़ी वजह है।

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फिल्मकार अविनाश दास लिखते हैं- 

सबसे अच्छी कहानी वो है, जो कहानी न लगे जीवन लगे। सच्ची लगे। सबसे अच्छा अभिनय वो है, जो अभिनय न लगे। आंख सबसे अच्छी वो, जो बिना किसी फिल्टर के साफ़ साफ़ दृश्य दिखा सके। मुझे याद नहीं कि कब मैंने अपनी भाषा की कोई फ़िल्म देख कर ये सब सोचा होगा। हां, बहुत पहले “तिथि” देखी थी और कुछ महीनों पहले “द चार्लीज़ कंट्री”।

मट्टो की साइकिल ऐसी ही फ़िल्मों की क़तार का सिनेमा है। एम गनी की यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा के मौजूदा दौर पर एक तरह का उपकार है कि ऐसी फ़िल्में बनाना हमने छोड़ दिया है।

डे सीका की बाइसाइकल थिव्स का एक बेहद ही उम्दा और मौलिक रूपांतरण। हालांकि हमने जब गनी साहब से अपनी पिछली मुलाक़ात में इस फ़िल्म की प्रेरणा के बारे में पूछा था, तो उन्होंने बताया था कि उनके पिता की कहानी ही मट्टो की कहानी है।

मट्टो की साइकिल बिमल रॉय की फ़िल्म दो बीघा ज़मीन की सिनेमाई परंपरा का सीना चौड़ा करने वाली फ़िल्म है। इस फ़िल्म में शहर भी किरदार है और मथुरा की लोकल ज़बान भी किरदार है। सब कुछ इतना खिला खिला और खुला खुला है, फिर भी जब हम सिनेमा में घुसते हैं तो हर वक़्त जैसे सांस अटकी हुई लगती है।

हिंदी सिनेमा को ऐसी ऊंचाई पर जाने के लिए महानगरीय भव्यता की लीक से उतर कर छोटे शहरों-कस्बों की लीक पर चलना होगा। पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि ऐसी जगहों की कहानियों का कनेक्ट ज़्यादा समझा और सराहा गया है।

अचंभित तो किया है प्रकाश झा ने। ऐसा लगता है जैसे उनमें एक दिहाड़ी मज़दूर की आत्मा सचमुच में घुस गयी हो। किरदार में जैसे पूरी तरह रच-बस गये हों। फ़िल्म में तमाम दूसरे किरदार भी अभिनेता नहीं, शहर-मोहल्ले के मामूली नागरिक जैसे लगते हैं।

मट्टो की साइकिल एक कमाल का सिनेमा, एक बहुत ज़रूरी सिनेमा है। इसे ज़रूर देखिए। देखिए और इस पर बात कीजिए। बात कीजिए कि ऐसी फ़िल्में और और और और बनाने की प्रेरणा मिले।

(फेसबुक पोस्ट से साभार)

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