एक ज़रूरी फ़िल्म Mephisto: एक कलाकार जिसने अपनी आत्मा नाज़ियों को बेच दी

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By मनीष आज़ाद

जर्मन फासीवाद पर वैसे तो कई बेहतरीन फिल्में हैं, लेकिन 1981 में आयी यह फिल्म एकदम अलग तरह की है!

‘हेन्डरिक’ एक स्टेज कलाकार है। वह आम तौर से वाम की ओर झुका हुआ है, और उसी तरह के नाटक करता है। उसके ग्रुप में ज्यादातर कलाकार वाम की ओर झुके हुए हैं।

यह वह समय है जब जर्मनी में नाजीवाद तेजी से अपने पैर पसार रहा है। फिर एक दिन अचानक से खबर आती है कि हिटलर ने सत्ता पर कब्जा कर लिया है!

परिस्थिति पूरी तरह बदल जाती है। हेन्डरिक के बहुत से दोस्त ‘प्रतिरोध दस्तों’ में शामिल हो जाते हैं और बहुत से देश छोड़ के चले जाते हैं। हेन्डरिक की पत्नी भी देश छोड़ कर फ्रान्स चली जाती है।

जाने से पहले वह हेन्डरिक को भी देश छोड़ने के लिए मनाती है, लेकिन वह नहीं मानता और तर्क देता है कि ये नाजी लोकतान्त्रिक तरीके से ही तो सत्ता में आये हैं, और मेरा काम थियेटर करना है और मुझे कुछ नहीं पता।

जब उसके दोस्त उसे प्रतिरोध दस्ते में शामिल होने के लिए कहते हैं तो वह कहता है कि “मुझे रिजर्व में रख लो, अभी तत्काल मैं शामिल नहीं हो सकता!”

यहीं से उसका व्यक्तित्व बदलने लगता है, और वह अपने आपको नयी परिस्थिति में ढालने में लग जाता है और उसके अनुसार ही तर्क भी गढ़ने लगता है।

आगे बढ़ने से पहले यह जान लेते हैं कि फिल्म का नाम ‘मेफिस्टो’ का मतलब क्या है?

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‘मेफिस्टो’ का मतलब

जर्मन लोक कथा में ‘फास्ट’ और ‘मेफिस्टो’ को लेकर अनेक कहानियां हैं। फास्ट एक कलाकार-बुद्धिजीवी है। मेफिस्टों एक ‘दानव’ है। मेफिस्टों हमेशा लोगों की आत्मा का सौदा करने के लिए घूमता रहता है। जो उसे अपनी आत्मा बेच देता है उसे वह खूब सारा धन व शोहरत देता है।

एक दिन फास्ट भी मेफिस्टो को अपनी आत्मा बेच देता है और इस एवज में उसे बहुत सा धन व शोहरत मिलती है।

इसी दौरान एक बार स्टेज पर ‘मेफिस्टो’ का रोल करते हुए वीआइपी दर्शक दीर्घा में बैठा हुआ नाजी जनरल, हेन्डरिक के अभिनय से प्रभावित हो जाता है और उसे अपने पास बुलाता है।

दोनो के मिलन को दर्शक सांस बांधे देख रहे हैं। यह पूरी फिल्म का बहुत ही पॉवरफुल दृश्य है और बेहद प्रतीकात्मक है।

मानो यहीं पर फास्ट यानी हेन्डरिक अपनी आत्मा का सौदा मेफिस्टो यानी नाजी जनरल के साथ करता है, और उसके बाद शुरु होती है आत्मा विहीन खोखले हेन्डरिक की शोहरत की यात्रा और जल्द ही उसे संस्कृति का पूरा जिम्मा दे दिया जाता है!

इसी समय सांस्कृतिक मंत्रालय की तरफ से उसे फ्रांस जाना होता है। वहां वह अपनी पूर्व पत्नी से मिलता है। वह आश्चर्य करती है कि वह ऐसे माहौल में बर्लिन में कैसे रह पा रहा है!

वह कहता है कि मैं थियेटर में रहता हूं, तो उसकी पूर्व पत्नी बोलती है कि आखिर थियेटर बर्लिन में ही तो है! यह बहस इस सर्वकालिक बहस की ओर संकेत करती है कि “कला निरपेक्ष होती है या समाज सापेक्ष?”

इससे पहले भी जब उसकी पत्नी उससे स्टैण्ड लेने को कहती है तो वह बोलता है कि “मेरा स्टैण्ड शेक्सपियर है।” (उस समय वह शेक्सपियर का नाटक ‘हैमलेट’ करने जाने वाला था)

उसकी पत्नी गुस्से से बोलती है कि “तुम शेक्सपियर के पीछे छिप नहीं सकते! नाजी लोग अपनी गन्दगी पर पर्दा डालने के लिए शेक्सपियर जैसा क्लासिक नाटक करते हैं, तुम्हे इसे समझना चाहिए!”

आज भारत की परिस्थिति में भी हम इसे देख सकते हैं। जब नाटककार या कलाकार आज के तीखे सवालों से आंख चुराते हुए अपनी कायरता पर पर्दा डालने के लिए पुराने ‘क्लासिक’ नाटक के पीछे अपने को छुपा लेते हैं।

फ्रांस में जब हेन्डरिक की अपनी पूर्व पत्नी से बहस हो रही होती है तो वहीं पास में बैठा उसका एक पुराना दोस्त इसे सुन रहा होता है।

कुछ समय बाद वह आता है और हेन्डरिक को एक थप्पड़ जड़ देता है! यह दृश्य भी बहुत ही पॉवरफुल है। हेन्डरिक इस थप्पड़ का जरा भी विरोध नहीं करता। ‘क्लोज अप’ में चेहरे का भाव यह बताता है कि उसे पता है कि वह इसी लायक है।

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प्रतिरोध की आवाज़

जब उसकी दूसरी काली पार्टनर अकेले में उसे उसके समझौते या कहे कि उसकी मक्कारी के लिए धिक्कारती है, तो वह कोई प्रतिरोध नहीं करता बल्कि तुरन्त आइने में देखता है कि “क्या वह सचमुच कमीना है?’

उसके साथ वह कभी पब्लिक में नहीं होता क्योकि उस दौरान जर्मनी में प्रचलित नस्लीय शुद्धता के सिद्वान्त से यह मेल नहीं खाता, इसलिए वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके अपनी काली पार्टनर को देश से निकल जाने के लिए बाध्य करता है और उस पर यह अहसान भी जताता है कि उसने उसे सम्भावित नाजी हमले से बचा लिया!

नाजी जनरल की चापलूसी करते हुए वह यहां तक चला जाता है कि एक प्रोग्राम में वह कहता है-

‘‘बिना संरक्षण के कला टूटे पंखों वाली चिड़िया की तरह होती है।’’

दरअसल जब जब कैमरा हेन्डरिक का क्लोज अप लेता है तो उसके व्यक्तित्व का खोखलापन बहुत पावरफुल तरीके से सामने आ जाता है; और यही लगता है कि जब वो आरम्भ में वाम की ओर झुका था, तब भी उसे वाम से कुछ लेना देना नहीं था। बस उस समय वाम ही उसके आगे बढ़ने के लिए एक सीढ़ी की तरह था, जैसे इस समय नाजी है।

फिल्म में एक और दृश्य बहुत ही प्रतीकात्मक और शक्तिशाली है। एक बार जब वह अपने आफिस आता है तो देखता है कि किसी ने आफिस के अन्दर नाजी-विरोधी पर्चे फेंके हुए है।

वह जल्दी से जल्दी दूसरे लोगों के आने से पहले सभी पर्चे इकट्ठा करता है, बाथरुम में जाकर उन्हें जलाता है और फिर करीने से राख को इकट्ठा करके उसे अपनी जेब में रख लेता है!

दरअसल ऐसे कलाकारो का यही मुख्य काम होता है- प्रतिरोध की आंच से व्यवस्था को बचाना!

भारत में भी ऐसे कितने कलाकार हैं जो इस काम में जी जान से लगे हुए हैं!

फिल्म का अन्त बहुत शक्तिशाली है। नाजी जनरल हेन्डरिक को विशाल नवनिर्मित नाटक हाल में ले जाता है और कहता है कि “यहां तुम्हारे प्रदर्शन पर तुम्हें बहुत शोहरत मिलेगी।” उसे जबर्दस्ती हाल के बीच में जाने को कहा जाता है और उस पर चारों तरफ से लाइट डाली जाती है।

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भारत के मेफिस्टो!

इस तेज लाइट से बचने के लिए वह अपना चेहरा छुपाने का असफल प्रयास करता है और अपने से कहता है कि “ये लोग मुझसे चाहते क्या हैं, आखिर मैं एक कलाकार ही तो हूं।”

यहीं पर ‘फ्रीज फ्रेम’ के साथ फिल्म समाप्त हो जाती है।

इस पूरी फिल्म को यदि हम आज के अपने देश के हालात में और उसमें कलाकारों की भूमिका के सन्दर्भ में अनुदित करें तो हमें गजब का साम्य नजर आयेगा!

आपको भारत के फास्ट (हेन्डरिक जैसे कलाकार) और मेफिस्टो (फासीवादी यानी सरकारी तंत्र) के बीच की जुगलबन्दी को पहचानने में ज्यादा वर्जिश नहीं करनी पड़ेगी; लेकिन यह काम मैं आप पर ही छोड़ता हूं।

वे नहीं कहेंगे कि वह समय अंधकार का था
वे पूछेंगे कि
उस समय के कवि
चुप क्यो थे?
-ब्रेख्त

[इस फिल्म को 1981 में विदेशी भाषा की कैटेगरी में बेस्ट फिल्म का ऑस्कर अवार्ड भी मिला। इस फिल्म को हंगरी के डायरेक्टर ‘Istvan Szabo’ ने निर्देशित किया था]

(अमिता शिरीन की वॉल से)

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