नई शिक्षा नीतिः पूंजीपतियों को अब पढ़े लिखे मज़दूर चाहिए, वो भी अपने जेब से फ़ीस भर कर

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By रवीन्द्र गोयल

हाल में ही मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 की घोषणा बिना किसी व्यापक चर्चा के कर दी है। कहने को तो यह अब भी ड्राफ्ट रूप में ही है पर ज्यादा सम्भावना है की इसे जैसे पेश किया गया है वैसे ही स्वीकार कर लिया जायेगा। इस ताज़ा कवायद के विभिन्न पहलुओं पर कोई राय बनाने से पहले दो बातें साफ़ होनी चाहिये।

पहला, एक व्यापक जन शिक्षा की व्यवस्था की शुरुआत पूंजीवाद के विकास के साथ ही शुरू होती है। सामंती समाज मूलतः जड़ समाज था जहाँ लोग अपने स्थानीय परिवेश से बहुत कम बाहर जाते थे और व्यापक शिक्षा व्यस्था की कोई ज़रूरत नहीं महसूस होती थी।

दूसरे, इस व्यापक जन शिक्षा व्यवस्था से आम लोगों और शासकों की अपेक्षाएं अलग अलग होती हैं। आम जन शिक्षा को एक बेहतर दुनिया बनाने का औजार समझते हैं और सबके लिए उच्चतम स्तर तक उत्तम शिक्षा की मांग करते हैं वहीँ शोषक पूंजीपति वर्ग, कहे कुछ भी, पर वास्तव में, अन्य नीतियों की ही तरह शिक्षा नीति को भी अपने वर्गीय हितों की पूर्ति का एक औज़ार ही मानता है।

पूंजीवादी समाज में शिक्षा नीति का उद्देश्य मुख्यतः कम से कम सरकारी खर्च में ,पूँजी आधारित उद्योग धंधों के पहिये को घुमाने के लिए कुशल और सक्षम कर्मचारियों और मज़दूरों को उपलब्ध करना ही है।

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उद्योगों की ज़रूरत के मुताबिक शिक्षा नीति

जैसे जैसे पूँजी की जरूरतों में परिवर्तन होता है वैसे वैसे वो शिक्षा की नीतियों में भी परिवर्तन की पहल करते हैं। हाँ यह भी देखा गया है कि जनता के विभिन्न हिस्से भी एक हद तक अपनी ताकत और दबाव के अनुकूल कुछ ऐसे प्रावधान बनवा सकते हैं जो शासकों के हितों को पूरा  करने के साथ साथ आम जन की आशाओं आकांक्षाओं को भी पूरा करने में मदद पहुंचाए।

अभी की कवायद भी इसका अपवाद नहीं है। ताज्जुब की बात नहीं है की वर्तमान नीति को अंतिम रूप देने वाली विशेषज्ञ समिति के प्रमुख, इसरो के पूर्व चेयरमैन, श्री कस्तूरीरंगन, ने दावा किया कि इसमें स्कूल की आरंभिक कक्षाओं से ही व्यावसायिक शिक्षा और कौशल विकास पर जोर दिया गया है।

कक्षा छह से ही छात्रों को रोजगारपरक शिक्षा उपलब्ध कराने की कोशिश की गयी है। शब्दों को छोड़ दें तो क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ की उद्योग धंधों को जहाँ काम करने वालों की ज़रूरत हैं वहां शिक्षा नीति ऐसे सक्षम लोग उपलब्ध करवा सके।

वर्त्तमान नई नीति की बनावट और जोर को समझने के लिए आज़ाद भारत में लागू शिक्षा नीति के इतिहास में जाना होगा। जारी शिक्षा नीति की, वर्तमान समय के लिए कमियों को, अक्षमताओं को समझना होगा और शिक्षा नीति से जो नए कार्यभारों की मांग है उन्हें समझना होगा।

यूँ तो आज़ाद भारत में वर्तमान शिक्षा नीति से पहले 4 दस्तावेज़ उपलब्ध हैं (* University Education Commissioin Report (1948-49), * Secondary Education Commission Report (1952-53), Kothari Education Commission (1964-66) Report ,* National Policy on Education (NPE), 1986 )

लेकिन सही मायने में कहा जाये तो शिक्षा का वर्त्तमान ढांचा कुछ फेर बदल के बावजूद मुख्यतः कोठारी आयोग की सिफारिशों द्वारा ही निर्धारित है। कोठारी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने 1968 की शिक्षा नीति तैयार की थी।

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शुरू में कृषि विज्ञान की पढ़ाई पर था ज़ोर

नीति स्पष्ट रूप से निर्धारित करती है कि शिक्षा के विकास को नियंत्रित करने वाले विभिन्न सिद्धांतों में से एक जरूरी सिद्धांत होगा – कृषि और उद्योग के लिए शिक्षा। 1968 की शिक्षा नीति के पैरा 4 (8) में कहा गया है कि :

  1. कृषि और उद्योग के लिए शिक्षा: कृषि और उद्योग के लिए शिक्षा के विकास पर विशेष जोर दिया जाना चाहिए।
  2. हर राज्य में कम से कम एक कृषि विश्वविद्यालय होना चाहिए। जहाँ तक संभव हो ये एकल परिसर विश्वविद्यालय होने चाहिए; लेकिन जहां आवश्यक हो वहां विभिन्न परिसरों घटक कॉलेज हो सकते हैं। कृषि के एक या अधिक पहलुओं के अध्ययन के लिए मजबूत विभागों को विकसित करने के लिए अन्य विश्वविद्यालयों की भी, जहां आवश्यक क्षमता मौजूद है, सहायता की जा सकती है।
  3. तकनीकी शिक्षा में, उद्योग में व्यावहारिक प्रशिक्षण एक अभिन्न अंग होना चाहिए/ तकनीकी शिक्षा और अनुसंधान का उद्योग के साथ निकट का सम्बन्ध होना चाहिए, दोनों तरफ से कर्मियों के प्रवाह को प्रोत्साहित करना और प्रशिक्षण कार्यक्रमों और सुविधाओं के प्रावधान, डिजाइन और आवधिक समीक्षा में आपसी सहयोग भी होना चाहिए।
  4. देश की कृषि, औद्योगिक और अन्य तकनीकी जनशक्ति आवश्यकताओं की निरंतर समीक्षा होनी चाहिए और संस्थानों के उत्पादन और रोजगार के अवसरों के बीच एक उचित संतुलन बनाए रखने के लिए लगातार प्रयास किए जाने चाहिए 

कृषि और उद्योग के लिए शिक्षा पर इस जोर ने शिक्षा क्षेत्र में शिक्षण और प्रशिक्षण कार्यों पर ध्यान केंद्रित किया यह जोर उस समय की आर्थिक स्तिथितियों के अनुरूप था।

भारतीय अर्थव्यवस्था मूलतः एक कृषि अर्थ व्यवस्था थी। 1960 में कृषि का राष्ट्रीय आय में हिस्सा तकरीबन 40 प्रतिशत था। उद्योगों का हिस्सा 20 प्रतिशत था और शेष 40 प्रतिशत सेवाओं से आता था।

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कृषि क्षेत्र सिमटा, सेवा क्षेत्र का दबदबा बढ़ा

लेकिन समय के साथ साथ यह स्तिथियाँ बदलने लगीं जिन्होंने शिक्षा में आवश्यक परविर्तन के आधार का निर्माण किया। वर्तमान में भारतीय अर्थ व्यवस्था मूलतः एक सेवा अर्थ व्यवस्था है।

वर्तमान में कृषि का राष्ट्रीय आय में योगदान केवल 14 प्रतिशत है , उद्योग का योगदान 28 प्रतिशत है और सेवाओं का हिस्सा 58 प्रतिशत है।

जब तक शिक्षा में कृषि और उद्योग पर जोर आर्थिक वास्तविकता के अनुरूप था तब तक शिक्षा अर्थव्यवस्स्था के संचालन कुशल कार्मिक और मज़दूर मुहैय्या करने का काम बखूबी कर रही थी।

लेकिन जैसे जैसे अर्थव्यवस्था में परिवर्तन होने लगा इस काम को पूरा करने में शिक्षा नीति की अक्षमता उजागर होने लगी।

यहाँ यह बता देना जरूरी है की सेवा अर्थव्यवस्था के लिए सक्षम कुशल कार्मिकों/ मज़दूरों को एक ऊँचे शिक्षा स्तर की जरूरत होती है। कृषि क्षेत्र के मज़दूरों का काम केवल प्राइमरी स्तर की शिक्षा से भी चल सकता है क्योंकि उन्हें ज्यादातर काम किसानों की देखा देखी ही करने होते हैं।

उद्योग में कार्यरत बहुसंख्यक मज़दूरों को कम से कम माध्यमिक स्तर की शिक्षा चाहिए। उन्हें लिखित निर्देशों को समझने और उनका पालन करने की क्षमता होनी ही चाहिए। थोड़ा बहुत विज्ञान की भी जानकारी होनी चाहिए।

इन दोनों क्षेत्रों में ज्यादातर काम एक जैसा बार बार दोहराये जाना वाला होता है। लेकिन सेवा क्षेत्र में, इसके विपरीत, कार्यरत आदमियों को कम से कम स्नातक तो होना चहिये जो बताये गए निर्देशों को रोज़ ब रोज़ काम के दौरान पैदा होने वाली नयी नयी स्थितियों में लागू कर सकें।

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शिक्षित कर्मियों की ज़रूरत

1970-80 के दशक के बाद सूचना प्रौद्योगिकी के विकास ने अर्थव्यस्था के सभी क्षेत्रों में बढ़ते प्रौद्योगिक के इस्तेमाल और तकनीकि के चलते उच्च शिक्षित कर्मियों और कार्यकर्ताओं की मांग को बढ़ावा दिया है।

यही कारण है कि इस सदी के शुरू से ही देश में शिक्षा व्यवस्था से पढ़ कर आये नौजवानों के बारे में नए सवाल उठने लगे। ये सवाल था छात्रों का पढाई के बावजूद काम के लिए नाकाबिल होना। चारों तरफ से यह आवाज़ उठने लगी की शिक्षित कर्मचारियों का एक बड़ा हिस्सा नियोक्ताओं की अपेक्षाओं को पूरा नहीं करता है।

ऐसे में शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन अनिवार्य था और यही मजबूरी इस नई नीति की प्रेरक मजबूरी है। नयी नीति शिक्षा व्यवस्था को सेवा अर्थव्यवस्था की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशीश और अर्थव्यस्था के सभी घटकों में बढ़ते टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की जरूरतों को पूरा करने के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए।

यही कारण है की पहली बार नीति निर्धारकों ने सभी स्कूल जाने वाले आयु के नौजवानों को 2030 तक माध्यमिक शिक्षा उपलब्ध करने का लक्ष्य रखा है।

इसी प्रकार उच्च शिक्षा में जहाँ आज 18- 23 वर्ष आयु के नौजवानों में केवल 25 प्रतिशत के आस पास नौजवान ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।

वहीँ नयी नीति ने 2035 तक 50 प्रतिशत नौजवानों के सकल नामांकन अनुपात ( gross enrollment ratio (GER) का लक्ष्य रखा है।

GER अनुपात असल में देश के भीतर शिक्षा में नामांकित छात्रों की संख्या और इस आयु सीमा के सभी नौजवानों के अनुपात के रूप में व्यक्त किया जाता है।

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प्राइवेट शिक्षा का दबदबा बढ़ेगा

यहाँ यह जानकारी महत्व पूर्ण होगी की भारत में इस सदी के शुरू में उच्च शिक्षा में GER केवल 10 प्रतिशत थी। और आज भी भारत में उच्च शिक्षा में GER अन्य देशों के मुकाबले काफी कम है। चीन में यह अनुपात 43.9 प्रतिशत है जबकि अमरीका मे उच्च शिक्षा में GER 85.8% प्रतिशत है।

इस आलोक में यदि देखा जाये तो वर्त्तमान समाज की मज़दूर कर्मचारी सम्बन्धी चुनौतियों से निपटने का प्रयास है मोदी सरकार की नयी शिक्षा नीति।

और यही कारण है सरकार ने राष्ट्रीय आय का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने के संकल्प को दोहराया है। यह संकल्प कोठारी आयोग द्वारा सुझाये गए खर्च की राशि को दोहराना मात्र है।

यह अलग बात है की केंद्र और राज्य सरकारें शिक्षा पर आज केवल राष्ट्रीय आय का 3 प्रतिशत ही खर्च करती हैं, भविष्य में यह 6 प्रतिशत खर्च करेंगी इसकी कोई सरकारी प्रतिबद्धता नहीं है और पूंजवादी हितों के लिए ही अर्थपूर्ण शिक्षा का ढांचा खड़ा करने के लिए कम से कम राष्ट्रीय आय का 10 प्रतिशत तो खर्च किया ही जाना चाहिए।

वर्त्तमान नीति अपने उद्देश्यों को पूरा करने में समर्थ होगी या नहीं यह इस बात पर निर्भर करेगा की सरकार किस हद तक देश में पूर्णतया राज्य पोषित स्तरीय शिक्षा सुविधाओं का प्रावधान करती है। सरकार ने नीति में येन केन यह बताया है की वो शिक्षा की पूरी जिम्मेवारी उठाने के लिए तैयार नहीं है। वो निजी क्षेत्र को शिक्षा के क्षेत्र में प्रोत्साहित करेगा।

लेकिन यह भी तज़रबा स्थापित करता है की ऐसे देश में जहाँ बहुसंख्यक परिवारों की आय 10000 रुपये महीने से कम है वहां निजी शिक्षण संस्थाओं के कन्धों पर शिक्षा के जिम्मेवारी को छोड़ने का अर्थ होगा शिक्षण की दुकानों की बढ़ोतरी जहाँ व्यापक जन को लूटा जायेगा।

जिनके पास लुटवाने लायक पैसे नहीं होंगे उनको पत्राचार पाठ्यक्रम या ऑनलाइन शिक्षा के झुन झूने से दोयम दर्जे की शिक्षा द्वारा अपने को संतुष्ट करना होगा।

लेकिन सरकार को यह समझना होगा की ऐसा निज़ाम पूँजी आधारित उद्योग धंधों के पहिये को घुमाने के लिए कुशलऔर सक्षम कार्यकर्ता और मज़दूर उपलब्ध कराने में भी नाकामयाब होगा और ज्ञान आधारित नयी अर्थव्यवस्था में दुनिया के पैमाने पर कोई अच्छा स्थान न दिला पायेगा। यह नीति भी मात्र एक अर्थहीन जुमला साबित होगा।

(लेखक शिक्षा जगत से जुड़े रहे हैं और लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर रहे हैं। )


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