1925 की रेल हड़ताल जब मज़दूरों के खून से सफ़ेद झंडा लाल हो गया : इतिहास के झरोखे से-5

Strike against East India Railway

By सुकोमल सेन

सन 1930 के दशक में सबसे महत्वपूर्ण हड़ताल उत्तर पश्चिम रेलवे (एन.डब्लू.आर) में हुई। यह हड़ताल के मुख्य नेता, भूतपूर्व गार्ड जे.बी. मिलर, एम. ए खान और एच.टी.हाल थे।

हड़ताल 15 मार्च 1925 को उत्तर पश्चिम रेलवे वर्कशाप से शुरु हुई और सीघ्र ही पूरे उत्तर-पश्चिम अंचल में फैल गई।

यद्पी हड़ताल, यूनियन कार्यकर्ता के खिलाफ अनुशासनिक कार्रवाई के कारण शुरू हुई लेकिन वतन वृद्धि, आठ घंटे का कार्यदिवस, छटनी पर रोक और 1920 से छंटनी किए गए मजदूरों की पुन: वहाली की मांग भी इसमें शामिल की गई।

इस दीर्घकालीन हड़ताल में 22,000 मजदूरों ने भगीदारी की। मजदूरों के संघर्ष को ध्वस्त कर देने के लिए रेलवे आधिकारियों ने बर्बर दमन किया। जुलाई के पहले सप्ताह में हड़ताल टूट गई।

हड़ताल वापसीके बाद आठ हजार मजदूरों की सेवाएं समाप्त कर दी गई और केवल चौदह हजार मजदूरों को ही काम पर लिया गया।

इस हड़ताल ने इंगलैंड की भी ट्रेड यूनियनों का ध्यान आकर्षित किया। 22 मई 1925 लंदन के वर्कर्स वीकली साप्ताहिक ने लिखा, ‘यह मुद्दा इस देश के ट्रेड यूनियन आंदोलन के विचार योग्य है..।’

भारत में एक ट्रेड यूनियन पर हमला हो रहा है। ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने भारतीय मजदूर संगठनों के मसलों के बारे में जांच पड़ताल करने की घोषणा की है। इस हड़ताल के मसले से ही उसकी शुरूआत की जा सकती है।

4 जुलाई को लैंस वर्ग से प्रकाशित लंडन वीकली ने लिखा, विगत माह उत्तर-पश्चिम रेलवे (एन.डब्ल्यू. आर.) के मजदूरों ने अखबार में छपे हड़ताल टूटने के बायन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया।

उनके हाथों में लाल झंडा था जो पहले सफेद होता था लेकिन हड़तालियों के खून से यह लाल हो गया था।

रेलवे की हड़ताल, कोयला और लोहा क्षेत्र तक पहुंची

इस उल्लेख का संदर्भ देते हुए सर डेविड पीटर ने लिखा कि जो हड़ताली लाहौर के प्रदर्शन में भाग ले रहे थे ‘उन्होंने अपने उद्देशय की प्रप्ति के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष करने की दृढ़ता प्रदर्शित करने के लिए भावुककतापूर्वक अपने शरीर से खून निकाल कर झंडे को रंगा।

लंदन में भारतीय मजदूरों का प्रतिनिधित्व करने वाली ‘द वर्कर्स वेलफेयर लीग आफ इंडिया’  ने उत्तर-पश्चिम रेलवे में ही नहीं बल्कि 1922 और 1923 में ईस्ट इंडिया रेलवे और जी.आई.पी. रेलवे में भी हड़तालें हुई।

फरवरी 1922 में ईस्ट इंडिया रेलेव में हड़ताल हुई। इसका केंद्र आसनसोल था।

राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखी भारत सरकार की गोपनीय रिपोर्ट में लिखा गया, ‘ईस्ट इंडिया रलवे की हड़ताल आसनसोल तक फैल गई है जहां स्वामी दर्शनानंद लोगों को घरों से निकालने में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं।’

‘आसनसोल की भीड़ काफी उग्र है और भारतीय सैनिकों की एक कंपनी को वहां और मुख्य लाइन पर आस-पास के स्टेशनों की रक्षा के लिए भेज दिया गया है।’

‘इस बात का संभावना थी कि कुल्टी के लोहा कारखान के मजदूर भी हड़ताल कर रेलवे के हड़ताली मजदूरों का साथ देंगे।’

‘ऐसी भी अफवाह है कि विश्वानंद स्वामी ने कोयला खदान के मजदूरों को भी हड़ताल में शामिल करने का प्रयास किया।’

‘अभी-आभी होने वाली एक सभा में उनकी तरफ से कहा गया कि स्वराज प्राप्ति के लिए आसनसोल, कुल्टी और कोयला खदानों की एक संयुक्त हड़ताल आवश्य होनी चाहिए।’

जब पुलिस ने चलाई मज़दूरों पर गोली

रिपोर्ट मे आगे लिखा है कि 22 फरवरी को हथियार बंद पुलिस ने बर्दवान रेलवे स्टेशन के हड़ताली मजदूरों पर गोलियां चला कर तीन को घायल कर दिया।

रेलवे मजदूरों की हड़ताल ने अंग्रेजों में दहशत पैदा कर दिया। कोलकाता से प्रकाशित होने वाले अखबार इंगलिशमैन ने जो सीधे ब्रिटिशों के हित का प्रतिनिधित्व करता था, 8 अप्रैल 1922 को आतंक की मनोदशा में एक ब्रिटिश महिला के साथ हड़ातली मजदूरों द्वारा बलात्कार की कथित खबर छापी।

इस आंतकपूर्ण प्रचार की पृष्ठभूमि में सरकार ने हड़तालियों से निबटने के लिए गोरखा सैनिक टुकड़ियों को भेज दिया। सैनिकों ने रेलेव मजदूरों पर बर्बर दमन किया।

यहां तक कि गोपनीय सरकारी रिपोर्ट में भी लिखा है 10 मार्च को आसनसोल में गोरखा चौकीदारों के मकान जला दिए गए। यह काम हड़तालियों ने किया, इस बात का कोई सबूत नहीं हैं।

इस जगह के आसपास गोरखा सैनिक टूट पड़े और हर कोई जो मिला उनके दमन का शिकार हुआ… सौभाग्य की बात है कि हड़ताली मजदूर कुछ दूरी पर एक जनसभा कर रहे थे अन्यथा एख गंभीर मुठभेड़ हो गई होती’।

रिपोर्ट में कहा गया है कि असफल हो रही सरकार ने हड़ताल तोड़ने के अन्य तरीके इस्तेमाल किए, मेसर्स वर्ड एंड कंपनी के कुलियों को रेलवे मजदूरों के स्थान पर लगा कर  हड़ताल तोड़ने का प्रयास किया गया।

मार्च माह से संबंधित गोपनीय रिपोर्ट में कहा गया है,  ‘ईस्ट इंडिया रेलवे की हड़ताल जारी है लेकिन इसके भी संकेत हैं कि समाप्ति ज्यादा दूर नहीं है।‘

’20 मार्च के सम्मेलन में हड़तालियों की सहानुभूति में कोयला खानों, अन्य रेलवे और उद्योगों में हड़ताल कराने का विचार पूरी तौर पर असफल रहा।’

‘कुछ समय पूर्व अपनी जनसभाओं के भाषण में स्वामी विश्वानंद पुलिस की निचली आधीनस्थ कतारों की सहानुभूति पाने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन अभी तक इसकी कोई भी संभावना नहीं है।’

बर्बर दमन

हड़ताल तोड़ने के लिए अधांधुध बर्बर दमन के सामने हड़ताली मजदूर अतंतोगत्वा टिक नहीं सके और हड़ताल टूट गई। आधिकारिक तौर पर हड़ताल टूटने की घोषणा 28 अप्रैल 1922 को हुई।

दिसंबर 1923 में जी.आई.पी. रेलवे के अधिकारियों ने मतुंगा वर्कशाप में मजदूरों के आंदोलन करने पर दमन करने के लिए तालाबंदी की घोषणा कर दी। आधिकारियों का उद्देश्य बड़ी संख्या में मजदूरों की छंटनी करना था। अधिकारियों की रिपोर्ट में ही कहा गया।

‘रेलवे कंपनी कुछ सप्ताह तक भी काम बंद रहने से परेशान नहीं है क्योंकि छंटनी की आम नीति के तहत कंपनी मदूरों की संख्या घटाना चाहती थी और हड़ताल ने उसे यह अवसर प्रदान कर दिया।’

मतुंगा रेलवे वर्कशाप की इस हड़ताल का प्रभाव मुंबई के सूती कपड़ा मजदूरों पर भी पड़ा। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, ‘मतुंगा घटना की अप्रत्यक्ष प्रतिक्रिया शहर के मजदूरों में हुई।’

‘वे बोनस भुगतान न होने के मुद्दे पर लंबे अरसे से आम हड़ताल करने पर गंभीरता से विचार कर रहे थे और मतुंगा के मजदूरों द्वारा बनाए गए वातावरण ने उनकों गति प्रदान कर दी।’

जनवरी 1924 में तालाबंदी समाप्त होने पर मुतुंगा वर्कशाप के मजदूर काम पर वापस आए। (क्रमशः)

(भारत का मज़दूर वर्ग, उद्भव और विकास (1830-2010) किताब का अंश। ग्रंथशिल्पी से प्रकाशित)

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