मज़दूरों का ही पैसा मज़दूरों में बांट कर बजा दिया राहत का डंका

workers on the road barefoot

1996 में बने भवन व अन्य निर्माण मजदूर कानून के अंतर्गत राज्य सरकारें सभी किस्म के निर्माण व्यवसाइयों से मजदूरों के लिए सेस वसूल करती हैं।

इसका कोष को एकत्र करने का उद्देश्य निर्माण मजदूरों का कल्याण बताया गया था। यह एक किस्म से संगठित मजदूरों के पेंशन फंड जैसा ही है।

यानी उनकी मजदूरी का वह पैसा जो उनकी सहायता के लिए सरकार के पास एकत्र है।

33 सालों में इस कोष में 31 हजार करोड़ रुपये इकट्ठा हो गया था मगर कभी भी इसमें से मज़दूर कल्याण के लिए सरकारें खर्च करने में कोताही बरत रही हैं।

लेकिन अब तालाबंदी की महाविपत्ति के दौरान अधिकांश बेरोजगार हुए 5.5 करोड़ निर्माण श्रमिकों की सहायता की आवाजें उठने लगीं तो सरकार ने मजदूरों का ही पैसा मजदूरों को देकर उन पर कल्याण का अहसान जताने का फैसला किया।

विभिन्न राज्यों ने पंजीकृत निर्माण श्रमिकों को 5-6,000 रु प्रति श्रमिक देने की घोषणा की।

24 जून को बिजनस स्टैंडर्ड में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, दो महीने से भी अधिक में सभी राज्य सरकारों ने मिलकर खुद मजदूरों के ही इस 31 हज़ार करोड़ रु में से भी सिर्फ 5,000 हजार करोड़ रु ही मजदूरों के खातों में जमा किया है।

बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसी राज्य सरकारों ने तो अब तक एक भी मजदूर को कोई पैसा नहीं दिया है।

(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुकट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।))