बिहार में मनरेगा नहीं बन पाया लाखों श्रमिकों के रोजगार की गारंटी, भूखे मरने की नौबत

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By आशीष आनंद

वैशाली बिहार के चुनाव में 32 जिलों में से एक है, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने के लिए 20 जून को गरीब कल्याण रोजगार अभियान की शुरुआत की। इस योजना से उन प्रवासी मजदूरों को कुछ राहत मिलने की उम्मीद की गई थी जो काम करने के बाद अपने मूल राज्यों में वापस लौट आए थे।

एक अनुमान के मुताबिक, तब तक, देशव्यापी तालाबंदी लागू होने के बाद दिल्ली, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, केरल, तमिलनाडु समेत कई राज्यों से 24 लाख 19 हजार 52 मजदूर वापस आ गए थे। हालांकि, ये आंकड़ा और अनुमान कई जगह इससे कहीं ज्यादा बताया जा रहा है।

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बहरहाल, उस समय रिपोर्टों ने संकेत दिया गया कि 12 विभिन्न विभागों और मंत्रालयों को अपने कौशल सेट के अनुसार जरूरतमंद प्रवासी मजदूरों को रोजगार के अवसर सुनिश्चित करने के लिए सामंजस्य बनाकर काम करना है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी सरकार ने सभी बिहारी मजदूरों से कहा कि वे तालाबंदी के बाद घर लौट सकते हैं। सरकार ने उन्हें अपने गृह राज्य में नौकरी के अवसरों का वादा किया। आरटीआई व सामाजिक कार्यकर्ता निखिलेश ने कहा, राज्य सरकार की ये जिम्मेदारी थी, लेकिन छह महीने बाद प्रवासी श्रमिक और उनके परिवार भूख से मर रहे हैं, क्योंकि इस गरीब-विरोधी सरकार ने हाथ-पांव नहीं हिलाए। निखिलेश के अनुसार, आसपास की पंचायतों के अधिकांश प्रभावित परिवार अति पिछड़ा वर्ग और महादलित उप-श्रेणी के हैं।

चुनाव से पहले जिनके दम पर चुनाव लडऩे की उम्मीद की जा रही है, वे बेहाल हैं। बिहार के अधिकांश गांव की नाराज जनता और युवा सरकार के खिलाफ दिखाई दे रहे हैं। इस भीड़ में मुख्य रूप से 20-35 वर्ष की उम्र वाले बड़ी संख्या में शामिल हैं। वे बेरोजगार हैं, निराश हैं। उन्हें लगता है कि जब तक चुनाव उनके मुद्दे पर नहीं होंगे तब तक कोई सरकार उन्हें गंभीरता से नहीं लेगी।

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बेरोजगारी और दरिद्रता से जूझ रही मेहनतकश आबादी

बिहार के मतदाता युवाओं का कहना है कि सरकार केवल कागजों पर वादे करती है। उन्होंने जॉब कार्ड जारी किए हैं, लेकिन नौकरियां कहां हैं? 25 वर्षीय चंदन कुमार विद्यार्थी महादलित कहे जाने वाले समुदाय से हैं, जो सारण जिले के परसौना गांव के निवासी हैं।

उन्होंने बताया, ‘जब लॉकडाउन लगाया गया तो गुजरात के अंजान में काम कर रहे थे। आठ आदमियों के एक समूह का हिस्सा थे। प्राइवेट ठेकेदार ने जब साथ छोड़ा तो खुद को बेरोजगार और दरिद्र पाया। ठेकेदार ने दो टूक कह दिया कि कोई काम नहीं है, क्योंकि तालाबंदी की गई है। हम तीन महीने तक बिना काम और पैसे के बैठे रहे। घर लौटने की कोशिश कर रहे थे तब। लेकिन यहां हालत ज्यादा खराब है।’ मायूस होकर कहा, ‘मुझे लगता है, कम से कम बाहर इस बात की गारंटी है कि हम कुछ काम करेंगे और एक दिन में 400 रुपये तक कमा सकते हैं। बिहार में कुछ भी नहीं है।’

चंदन ने कहा, ‘मुझे लौटे पांच महीने हो चुके हैं। इन पांच महीनों में हमें बिहार सरकार से एक पैसा भी नहीं मिला। बिहार में नौकरियां नहीं हैं। हमने नौकरी के लिए आवेदन करने के लिए जरूरी कागजों के साथ फॉर्म जमा कर दिए हैं और एक साल हो गया। अभी हम भुखमरी के कगार पर हैं। हम पड़ोसियों से उधार लिए पैसे से जी रहे हैं।’

यहां बता दें, परसौना महादलित गांव है। महादलित बिहार में दलितों के उपश्रेणी माने जाते हैं और दलितों के साथ मिलकर राज्य की आबादी का लगभग 18 प्रतिशत हिस्सा हैं। वर्ष 2007 में नीतीश कुमार 20 सबसे पिछड़ी और वंचित एससी जातियों को एक छत्र के नीचे लाए और समूह को महादलित नाम दिया। उन्होंने अपने आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लिए योजनाओं और कार्यक्रमों की घोषणा की। तब नीतीश ने जीतनराम मांझी को बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया था।

जून तक राज्य में लौटने वाले प्रवासी श्रमिकों को मतदाता आधार का एक बड़ा हिस्सा बनाने पर विचार किया जा रहा था, सरकार क्राइसिस मैनेजमेंट के लिए कुछ कदम उठा रही थी, लेकिन ये काम जमीनी तौर पर ऊंट के मुंह में जीरा जैसा रहा। शायद यही वजह है कि ग्रामीण बिहार के लोग साफ तौर पर कह रहे हैं, ‘राजनीतिक दलों और नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मजदूर जिंदा हैं या नहीं।

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सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है, ‘राज्य सरकार पर भारी राजनीतिक दबाव बना तो लॉकडाउन के बाद शुरुआती दिनों में कुछ काम के अवसर मनरेगा के तहत आए। हालांकि, श्रमिकों को समय पर भुगतान नहीं किया गया। प्रवासी श्रमिक तालाबंदी से पहले नरेगा की मजदूरी 202 रुपये दिहाड़ी से ज्यादा कमा रहे थे। इस पर भी, भुगतान कब आएगा इसकी कोई गारंटी नहीं रही। गरीब श्रमिकों के लिए सचमुच कोई प्रोत्साहन नहीं था। ’

बिहार में एक्शनएड एसोसिएशन के साथ काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता डॉ शरद कुमारी, जो वापसी करने वाले प्रवासियों के साथ थीं, ने कहा कि श्रमिकों को सरकार से कृषि आधारित उद्योगों को प्रोत्साहित करने की उम्मीद थी। उन्होंने बताया, ‘बिहार में किरायेदार बंटाईदार किसानों की एक बड़ी आबादी है। कई प्रवासी कामगार अपने समय को बेहतर जीवनयापन के लिए किरायेदारी की खेती और दूसरे राज्यों में काम करने के बीच बांटते हैं। उनके लिए कोई प्रोत्साहन नहीं था।’

वे कहती हैं, ‘मनरेगा के तहत काम अब पूरी तरह से बंद हो गया है। तथ्य यह है कि भुगतान में बहुत देरी हुई, ये सबसे प्रमुख कारणों में से एक था जिसके चलते मजदूरों ने मनरेगा के तहत काम मांगना बंद कर दिया।’

(स्रोत- फस्र्ट पोस्ट)

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