भारत के मज़दूर वर्ग को किसका साथ देना चाहिए, इज़रायल का या फ़लस्तीन का?

By आलोक लड्ढा 

ऐसे समय में जब दुनिया लगातार दूसरे साल महामारी की चपेट में है, इज़रायल सरकार ने एक बार फिर से कब्ज़ाए गई ज़मीन पर फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ हिंसा और जनसंहार के अभियान को तेज़ कर दिया। इज़रायल ऐसा बार – बार करता रहा है, जैसा हमने साल 2008, 2012 और 2015 में देखा और अब देख रहे हैं।

इस बार इसमें एक नई बात ज़रूर जुड़ गई है। इस बार इज़रायल में रह रहे अल्पसंख्यकों को को भी वे निशाना बना रहे हैं, जो निकाले जाने का विरोध कर रहे हैं, ख़ासकर पूर्वी येरूशलम से।

हालांकि खबरों में गाज़ा की ओर से रॉकेट हमलों और इज़रायल के ‘बदले’ पर चर्चा हो रही है, सच्चाई ये है कि यह सब तब शुरू हुआ, जब इज़रायल ने अपनी रणनीति के तहत फ़लस्तीनी परिवारों को पूर्वी येरूशलम से निकालने की कोशिश की। यह वह जगह है, जो फ़लस्तीन का हिस्सा है और इज़रायल के न्यायाधिकार क्षेत्र में नहीं आता है।

एक सप्ताह से कुछ पहले, रमजान के पवित्र महीने में, इज़रायली सुरक्षा बलों ने फ़लस्तीनी मुस्लिमों को अलअक्सा मस्जिद में नमाज से रोक दिया, यह मस्जिद इस्लाम की सबसे पवित्र मस्जिदों में से एक है। इसका फ़लस्तीनियों ने विरोध किया, जिसका इज़रायली सैनिकों ने हिंसक जवाब दिया।

जल्द ही यह चिंगारी पूरे इलाके में फैल गई और इसने इज़रायल को गाज़ा पर अंधाधुंध बम गिराने, फ़लस्तीनियों को अंधाधुन गिरफ़्तार करने और उन पर क्रूरता करने का बहाना दे दिया।

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फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ दशकों से नाइंसाफ़ी

लगभग 75 साल से इज़रायल, लगातार फ़लस्तीनियों की ज़मीन को अपने कब्जे में ले रहा है। सारे अंतरराष्ट्रीय कानूनों और मानवाधिकारों को किनारे रखकर इज़रायल ने फ़लस्तीनियों को उनकी जमीन, संसाधनों और राजनीतिक आजादी से महरूम रखा है। इज़रायल के नस्लवादी इतिहासकारों के मुताबिक, अलअक्सा मस्जिद मिथकीय चरित्र राजा डेविड के टेंपल माउंट की जगह पर बनाई गई है।

इज़रायल के यहूदी राज कायम करने वाले कट्टरपंथी यानी ज़ॉयोनिस्ट इस मस्ज्दि को ढहा देना चाहते हैं। हालांकि इज़रायल का सुप्रीम कोर्ट वैसे तो नस्लवादी कानूनी को लागू कराने में आमतौर पर सरकार के साथ रहता है लेकिन इस मामले में उसने इसे ढहाने की अनुमति नहीं दी। इसलिए इज़रायल सरकार ने दूसरा रास्ता निकाला, जिससे वहां के स्थानीय मुस्लिमों के लिए भी यह मस्जिद पहुंच से बाहर हो जाए।

पांच साल पहले इज़रायली सरकार ने मस्जिद में मुस्लिमों के प्रवेश पर रोक लगा दी। दूसरी ओर गैरकानूनी तौर पर ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से फ़लस्तीन में रहने वाले इज़रायली नागरिकों को इस मस्जिद में प्रवेश करने और इबादत की इजाज़त है। इसका इज़रायल में रहने वाले मुस्लिमों ने विरोध किया।

इसे लेकर इज़रायल में रहने वाले मुस्लिमों और फ़लस्तीन में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गया और इसे बहाना बनाकर इज़रायल के सुरक्षा बलों ने निहत्थे फ़लस्तीनी प्रदर्शनकारियों को गोलियां मारीं और उन्हें पहले से और अधिक ज़मीन कब्ज़ा लिया।

अल अक़्सा मस्जिद के ढहाने की योजना का मकसद इससे भी बड़ा है जोकि इज़रायल के और अधिक ज़मीन कब्ज़ा करने की रणनीति में फ़िट बैठता है।

भारतीय वर्कर गौर करेंगे कि इसमें और उनके देश में जो हुआ, उसमें एक अस्वाभाविक समानता है। आरएसएस और उसके संगठन लंबे समय से दावा कर रहे थे कि बाबरी मस्जिद, राम मंदिर की जगह पर बनी है। उनकी भीड़ ने मस्जिद को ढहा दिया और भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने इसे  सामूहिक उन्माद (भीड़ का पागलपन) बताकर विवादित ज़मीन को भगवान राम के क़ानूनी वारिसों को सौंप दिया।

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हिंदुत्व और यहूदीवाद – धर्म के नाम पर हिंसा और कब्ज़े की नीति को जायज ठहराना

हिंदू राष्ट्र के विचार को इज़रायल के यहूदी राज्य से जीवंत प्रेरणा मिलती है, जोकि संवैधानिक रूप से यहूदी राज्य है। बीजेपी सरकार और इसका सरपरस्त आरएसएस ने इज़रायल के ज़ॉयनिस्ट आंदोलन और नस्लवादी नीतियों से बहुत सारी ट्रिक सीखे हैं।

अमित शाह की सीएए और एनआरसी की क्रोनोलॉजी, जिसका मकसद मुस्लिमों को दूसरे दर्ज़े का नागरिक बनाना है ये सिर्फ़ इज़रायली संविधान से ली गई एक नज़ीर भर है, जहां मुस्लिमों के लिए 50 से ज्यादा अलग कानून हैं, जो इज़रायली मुस्लिमों के साथ भेदभाव करते हैं।

जिस तरह भारत ने कश्मीर को सेना के दम पर अपने कंट्रोल में रख रखा है और यहां तक कि उसकी राज्य की मान्यता तक ख़त्म कर दी है, इज़रायल का वज़ूद ज़मीनें हथियाने और फ़लस्तीन को ग़ुलाम बनाने पर निर्भर

जिस तरह भारत में कश्मीर को जीतकर उसे हिंदू रास्ट्र का उपनिवेश बनाने का विचार है, उसी तरह इज़रायल, फिलीस्तीन को जीतकर उसका अस्तित्व खत्म करना चाहता है। उसका यह इरादा तब तक पूरा नहीं होगा, जब तक हर फिलीस्तीनी, इज़रायल से बाहर नहीं कर दिया जाता या फिर वह दूसरे दर्जे के नागरिक में तब्दील नहीं कर दिया जाता।

चाहे इज़रायल में यहूदी राज्य हो या भारत में उभरता हुआ हिंदू राष्ट्र, दोनों की राजनीति अल्पसंख्यक समुदाय ख़ासकर मुस्लिमों को बाहरी बताने पर  केंद्रित है।

जिस तरह से पिछले पांच दशकों में संघ ने भारत में मुस्लिमों को लेकर उन्मादी धारणाएं प्रचारित की हैं, वैसा ही यहूदी आंदोलन के इतिहासकारों और दक्षिणपंथी संगठनों ने इज़रायल में किया। ऐसी ही एक धारणा इज़रायल में ऐतिहासिक अल-अक़्सा मस्जिद को लेकर बनाई गई और भारत में बाबरी मस्जिद को लेकर।

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यह मस्जिद पूर्वी येरूशलम में स्थित है, जो इज़रायल के न्यायाधिकार-क्षेत्र के बाहर है और अभी भी फ़लस्तीन के कब्ज़े में है। इस एरिया में बड़ी आबादी में मुस्लिम रहते हैं। 1972 से बाहर से आए इज़रायल के बाशिंदे, जिनकी इज़रायली समाज में बस इतनी अहमियत है कि वो फ़लस्तीन से छीनी गई ज़मीन पर रहें, सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ रहे हैं।

उनकी दलील है कि चूंकि येरूशलम, यहूदियों के लिए पवित्र जगह है, इसलिए सारे मुस्लिमों को यहां से निकाल देना चाहिए। अगर वे केस जीत जाते तो फिर मस्जिद ढहती या नहीं, लेकिन वह इज़रायल के मुस्लिमों और फ़लस्तीनियों की पहुंच से हमेशा के लिए दूर हो जाती।

दशकों से यह मुद्दा इलाके के लिए टाइम-बम बना हुआ है, जिसमें विस्फोट होते रहते हैं, जैसा कि 2015 में हुआ। इस बार मई के पहले सप्ताह में इज़रायल पुलिस और सरकार ने गैरक़ानूनी रूप से छह परिवारों को मस्जिद के इलाके, जिसे शेख़ ज़र्रा के नाम से जाना जाता है, से बाहर निकाल दिया। यह और कुछ नहीं बल्कि फ़लस्तीनियों के मूल अधिकारों का हिंसक उल्लंघन था।

अगर न्याय का राज होता तो किसी भी इंटरनेशनल कोर्ट में इसे आपराधिक मामला माना जाता लेकिन दुखद यह है कि इंटरनेशनल कोर्ट अमेरिका और इसके पिट्ठू दोस्तों के ख़िलाफ़ लाचार है। इस कार्रवाई का फ़लस्तीन और इज़रायल के अरब नागरिकों ने विरोध किया। इसके जवाब में यहूदी माफिया गैंगों ने मुस्लिमों पर हमले शुरू कर दिए, उन्हें घेरकर मारने लगे और उनके घरों पर पत्थर फेंकने लगे।

दशकों से अंतहीन उत्पीड़न, दबाव, बेरोज़गारी और अभावों का शिकार बने इज़रायल में रहने वाले अरब नागरिक और फ़लस्तीनी लोग हरसंभव तरीके से इस अन्याय का विरोध कर रहे हैं। यहां के फ़लस्तीनी नागरिक, तादाद में ज्यादा होने के बावजूद इज़रायल पुलिस और दक्षिणपंथी संगठनों का शिकार हो रहे हैं।

हर दिन वेस्ट बैंक और गाज़ा में विशाल अहिंसक विरोध-प्रदर्शन होते रहते हैं, जिनपर इज़रायल के सुरक्षा बल गोलियां बरसाते हैं और बर्बर टॉर्चर का सहारा लेते हैं। और गाज़ा की सत्ताधारी पार्टीं हमास इज़रायल द्वारा थोपे गए इस युद्ध में  अपने नागरिकों को बचाने के लिए जवाबी हमले करता है।

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2012 और 2014 की तरह इज़रायल इस बार भी इसी बहाने गाज़ा पर अंधाधुन बम बरसा रहा है। गाज़ा, दुनिया के कुछ सबसे घने बसे इलाकों में से एक है, जिसके नागरिकों को दशकों से इज़रायल, अमेरिका और यूरोप की आर्थिक तालेबंदी से तबाह किया जा रहा है। इनमें से किसी का भी हमास के खात्मे से कोई लेना देना नहीं है।

इनका सीधा मकसद फ़लस्तीनियों को उनकी ज़मीन से खदेड़कर एक नस्लवादी राज्य स्थापित करना है। चूंकि गाज़ा की आबादी नौजवान है, जिसमें ज़्यादातर बच्चे और जवान हैं। बमबारी का मकसद फ़लस्तीन की अगली पीढ़ी को वजूद में न आने देना हो सकता है।

ये बात इसलिए भी सच लगती है क्योंकि 2012 में गाज़ा की गलियों में इज़रायल की एयरफोर्स ने बमबारी की थी, उसकी टाइमिंग से इसका अंदाज़ा मिल जाता है। यह ऐसे समय की गई थी, जब प्राइमरी स्कूल बंद होते हैं और सेकेंड्री स्कूल खुलते हैं, ऐसे में ज्यादातर बच्चे सड़कों पर होते हैं। दुनिया एक बार फिर से जनसंहार की मूकदर्शक बनी और हम देख रहे हैं कि इस बार भी गाज़ा पर इज़रायली हवाई हमलों में सैकड़ों बच्चे मारे गए।

एक सवाल अक्सर खड़ा होता है कि जब एक धार्मिक बहुसंख्यक दूसरे धार्मिक समूह पर अत्याचार कर रहा हो, नागरिकों और बच्चों पर बम गिराए जा रहे हों तो मज़दूर वर्ग की इसमें क्या भूमिका हो सकती है। इज़रायल के उपनिवेशी नागरिकों द्वारा खड़ी की गई त्रासदी से निपटने में इज़रायल और फ़लस्तीन का मज़दूर वर्ग क्या कर सकता है? दुनिया का मज़दूर वर्ग की इसमें क्या भूमिका हो सकती है?

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एक उपनिवेश विरोधी संघर्ष

इज़रायली के ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट और इज़रायली समाजवादी संगठन ‘मात्ज़पेन’ के नेताओं ने 1970 के दशक में इस बात को बहुत सलीके से कहा था।

“फिलीस्तीन के सवाल पर इज़रायल का मज़दूर वर्ग शाशक वर्गा की नीतियों का पिछलग्गू है। बावजूद यहूदी मज़दूर वर्ग के अंदर भी तीखे अंतरविरोध मौजूद हैं। मसलन एशिया के अप्रवासी यहूदी वर्करों के साथ हमेशा से ही भेदभाव का शिकार होते हैं और उन्हें हमेशा ठेके वाली नौकरी मिलती है जिसमें काम ज़्यादा होता है और मज़दूरी कम। इन हालात में दशकों से और अन्य कई मौकों पर उनका ये गुस्सा शोषणकारी स्थितियों के ख़िलाफ़ फूटता है। एक इज़रायली यहूदी वर्कर कब्ज़ा करके यहूदी बस्ती बसाने की सरकारी योजना से खुद को सबसे पहले जोड़ता है। यहां तक कि शोषण झेलने वाला अप्रवासी यहूदी वर्कर भी मुस्लिम और अरब वर्करों की अपेक्षा इज़रायली सरकार के क़रीब होता है। इज़रायल की ट्रेड यूनियनें और मज़दूर वर्ग को हमेशा से ही इज़रायल के अमेरिकी साम्राज्यवाद का इलाकाई दरोगा होने के फायदे मिले हैं। इसके बदले इज़रायल को अमेरिकी मदद मिलने के कारण इज़रायली वर्करों को कई तरह की सहूलियतें मिलती हैं।”

कब्ज़ाई गईं उपनिवेशी बस्तियों में रहने वाले इज़रायली नागरिकों को फ्री में रहने समेत कई सुविधाएं मिलती हैं, इसलिए वे अमेरिका और जर्मनी जैसे देशों को उनकी मदद के लिए शुक्रगुज़ार रहते हैं। यहां बेरोज़गार यहूदी वर्करों को तमाम सुविधाएं दी जाती हैं। इज़रायल की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन हिस्टाड्रट, जो इज़रायल को नस्लवादी राज्य बनाने की दिशा में सक्रिय भूमिका निभाती है, उसने अरब मज़दूर वर्ग से एक भी सदस्य नहीं बनाया है।

1980 के दशक में यहूदी राज्य के विरोध में पहला इंतेफ़ाद आंदोलन शुरू हुआ तो कुछ रेडिकल यूनियनों ने इसका विरोध किया। अब ये यूनियनें पूरी तरह ख़त्म हो गई हैं। अब केवल ऐसी इज़रायली वर्कर्स यूनियनें हैं जो यह मानती हैं कि उनके वज़दू के लिए बिला शक एक नस्लवादी राज्य ज़रूरी है।

ऐसे फ़लस्तीनी, जो इज़रायल में ठेके पर काम करते थे और जिनकी यहां की कुछ यूनियनों में भेदभाव के आधार पर ही सही सदस्यता भी थी, अब संगठित क्षेत्र से बाहर किए जा रहे हैं। यहां तक कि उन्हें अनुबंध के आधार पर भी नहीं रखा जा रहा।

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यह हमारे भारतीय समाज के लिए आईना की तरह है, जहां मारूति जैसी रेडिकल यूनियनों के हिंदू वर्कर भी, बराबर के नागरिक अधिकारों के मामलों में अपने मुस्लिम मज़दूर साथियों का साथ देने की बजाय हिंदू राष्ट्र के विचार से ज़्यादा ओत प्रोत रहते हैं।

फ़लस्तीनी वर्कर हिडसाड्रट यूनियन का अन्य किसी संबद्ध यूनियन की सदस्यता नहीं ले सकते और इस तरह इज़रायल की नस्लवादी राजनीति यूनियन की नस्लवादी राजनीति में उतर आई है।

फ़लस्तीनी मज़दूर वर्ग पूरी तरह से बंटा हुआ है, इस मायने में यह भारत के असंगठित क्षेत्र की तरह है। चूंकि यहां औद्योगिकरण सही मायनों में नहीं हुआ, इसलिए यहां कोई वास्तविक ट्रेड यूनियन आंदोलन भी नहीं है और एक औपनिवेशिक देश के रूप में मज़दूर वर्ग की मुख्य लड़ाई उपननिवेशीकरण के ख़िलाफ़ होती है।

मुस्लिम और यहूदी वर्करों को नस्लवाद के ख़िलाफ़ खड़ा करने की जिम्मेदारी इज़रायल के ट्रेड यूनियन आंदोलन की है लेकिन यह आज तक हो नहीं सका है।

यहां तक कि वेस्ट बैंक के किसान भी सताए जाते रहे हैं और इज़रायली कब्ज़े के ख़िलाफ़ कभी संयुक्त ताक़त नहीं बन पाए। मुस्लिम और यहूदी वर्करों के बीच एकता क़ायम करने का सारा दारोमदार ऐतिहासिक रूप से इज़रायली ट्रेड यूनियन आंदोलन और राजनीतिक रूप से सचेत इज़रायली वर्करों के कंधे पर रहा है लेकिन ऐसा कभी हो नहीं सका।

इसके उलट 1920 में जब मुस्लिम और यहूदी वर्कर, अंग्रेज़ों के राज में एक – दूसरे के साथ संयुक्त बैनर में काम करते थे, तब भी इज़रायल के ट्रेड यूनियन एक्टिविस्टों की मांग थी कि यहूदी वर्करों के लिए अलग चार्टर लागू किया जाए, हालांकि अरब के वर्करों ने यह कभी मंजूर नहीं किया।

यानी यहूदियों के ट्रेड यूनियन आंदोलन का ऐतिहासिक रूप से दो मुख्य उद्देश्य रहा। इज़रायल राष्ट्र पहले और इज़रायल के सत्ताधारी वर्ग की शोषणकारी नीतियों का विरोध बाद में। यह एक सदी से यहां के ट्रेड यूनियन आंदोलन की राजनीति रही है और इसके बदलने की संभावना भी नहीं है क्योंकि इज़रायल, अमेरिकी साम्राज्यवाद का सबसे बड़ा लाभार्थी है।

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दुनिया के मजदूरों को सभी संभव तरीकों से इज़रायल के नरसंहार का विरोध करना होगा। केवल मज़दूर वर्ग ही यह काम कर सकता है, क्योंकि वही इज़रायल की निर्यात केंद्रित अर्थव्यवस्था को झटका दे सकता है। फ़लस्तीन में साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन के समर्थन में अंतरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग को एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी और उन्हें अपनी सरकारों पर दबाव डालना होगा कि वे इज़रायल के नरसंहार को समर्थन देना बंद करें, क्योंकि वह जो कर रहा है वह अंतरराष्ट्रीय कानूनों का हिंसक उल्लंघन है।

हाल ही में इटली के बंदरगाह पर काम करने वालें मजदूरों ने इज़रायल जाने वाले हथियारों को लादने से मना कर दिया था। इस तरह की चीजें पहले भी हो चुकी हैं।

दुनिया, खासकर अमेरिका, यूरोप और भारत के मज़दूर वर्ग का आंदोलन फ़लस्तीन में लगातार कब्ज़े के ख़िलाफ़ आवाज़ को उठाने में अग्रणी भूमिका अदा कर सकते हैं।

वे  इज़रायल के ख़िलाफ़ बाॅयकाट, डिवेस्ट एंड सैंक्शन (बहिष्कार, आर्थिक रूप से कमज़ोर बनाने और प्रतिबंध लगाने)  यानी बीडीएस नीति का समर्थन कर सकते हैं और अपनी सरकार पर दबाव बना सकते हैं कि वे यहूदी राज्य की स्थापना चाहने वाले देश के साथ अपने संबंध सीमित करें।

दशकों तक भारत की सरकार का रुख़ इज़रायली उपनिवेश का विरोध और फ़लस्तीन के समर्थन का रहा। हालांकि देश में अंध राष्ट्रवादी रुख़ की पार्टी के सत्ता में आने के बाद भारतीय सरकार इज़रायल के करीब आई है, यहां तक कि इसकी हिंसा को भी समर्थन दिया है।

भारत का मज़दूर वर्ग उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के साथ धोखा करने के लिए मौजूदा सरकारी नीतियों का विरोध कर सकते हैं।

अगर रक्षा और तकनीक के क्षेत्र में भारत इज़रायल पर बायकॉट का दबाव बनाता है तो उसका इज़रायल की अर्थव्यवस्था और कूटनीतिक संबंधों पर असर पड़ेगा। भारतीय मजदूरों की ऐसी लामबंदी देश में धार्मिक कट्टरता को भी रोकेगी, जिसने हमें धार्मिक आधार पर बांटकर पूंजीवाद का गुलाम बना रखा है।

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भारत का बंटा हुआ और अराजनीतिक मज़दूर तबका बहुत पहले ही सताए जा रहे अल्पसंख्यकों का साथ छोड़ चुका है। उसने कभी कश्मीर के दोबारा उपनिवेश बनने के ख़िलाफ़ कभी आवाज़ नहीं उठाई।

पिछले साल दिल्ली में हुए एकतरफ़ा दंगे के बाद भी गुड़गांव में ऑटोमोबाइल बेल्ट में काम करने वाले मज़दूर चुप रहे। क्या फ़लस्तीनियों के साथ खड़े होकर वे इन भूलों को सुधारने की शुरुआत कर सकते हैं?

लेकिन जैसा कि मॉशेवर और एचीवा ऑर ने इज़रायल के समाज के बारे में तर्क दिए हैं कि प्राथमिक तौर पर अरब के मज़दूर वर्ग की क्रांति इस कहानी को बदल सकती है क्योंकि लोकतांत्रिक तौर पर चुनी गई समाजवादी सरकार ही  इज़रायल और अमेरिका के औपनिवेशिक युद्ध लड़ पाएगी।

इसलिए जब भी अरब और अन्य देशों का मज़दूर वर्ग अपने अपने मुल्कों में विजयी होगा उसे फ़लस्तीन और इस प्रक्रिया में यहूदी वर्करों के साथ खड़ा होना होगा।

दुनिया में कहीं भी अत्याचार और शोषण हमारी आज़ादी के लिए ख़तरा है। केवल वर्गीय एकजुटता के ज़रिए ही हम अपने देश में असली राजनीतिक आज़ादी हासिल कर सकते हैं।

सत्ताधारी वर्ग हमेशा शोषण की नई तकनीक ईजाद करता रहता है। यह हमारे हित में है कि हम ऐसी सोच वाली सत्ता का नाश कर दें और कब्ज़ा करने, दमन करने और भेदभाव की संस्कृति को फैलने से रोक दें।

(लेखक चेन्नई मैथमेटिकल इंस्टीट्यूट से जुड़े हुए भौतिकविज्ञानी हैं।  इस लेख का संपादन  टीएन लेबर से जुड़े एक्टिविस्ट वेंकटेश्वर ने किया है और अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद दीपक भारती ने किया है।)

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