वर्करों की ज़िंदगी मायने रखती है, अगर चाहे सरकार सबकुछ कर सकती हैः महामारी के 8 सबक

workers in factory

By रॉबर्ट राइश

इस महामारी ने दुनिया को कुछ सबक दिए हैं। मज़दूर वर्ग, सरकार, अमीर, अर्थव्यवस्था – इनसे जुड़ी सारी बातों में कुछ अमूल चूल बदलाव लाने का वक्त है।

इस महामारी ने दुनिया के सामने कुछ सबक दिए हैं, जिनसे सीख कर हम एक बेहतर दुनिया बना सकते हैं।

1- कोरोना महामारी के बीच अमेरिका ज़िंदा नहीं बच पाता अगर वेयरहाउस, डिलीवरी, ग्राशरी और अस्पताल में काम करने वाले दसियों लाख वर्करों ने अपनी ज़िंदगी दांव पर लगा कर अपनी सेवाएं देना जारी नहीं रखा होता। फिर भी इन्हें बहुत मामूली मज़दूरी दी जाती है।

अमेज़ॉन 15 डॉलर प्रति घंटे वेतन देने का वादा करता है लेकिन अगर एक वर्कर की इस हिसाब से सैलरी देखी जाए तो वो 30,000 डॉलर से अधिक नहीं होती। अधिकांश ज़रूरी वर्करों के पास न तो स्वास्थ्य बीमा होता है न ही उन्हें सवैतनिक छुट्टी मिलती है।

यहां तक कि दुनिया के सबसे अमीरों में गिने जाने वाले जेफ़ बेज़ोस और एलन मस्क भी अपने वर्करों को व्यक्तिगत सुरक्षा के उपकरण नहीं मुहैया कराते हैं।

इसका सबक ये है कि ज़रूरी सेवाओं में लगे वर्करों को बेहतर सैलरी मिलनी ही चाहिए।

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2- क्या आपको पता है कि एक कौड़ी खर्चे बिना कैसे आपको वैक्सीन मिल गई? असल में पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था ऐसी ही हो सकती है। अमेरिका में जो लोग कोरोना से संक्रमित हुए उनके अस्पताल के बिल कमोबेश एक जैसे आए।

साल 2020 के मध्य तक क़रीब 33 लाख अमेरिकी नागरिकों का नौकरी आधारित बीमा छिन चुका था और बिना बीमा के लोगों की संख्या 19 लाख तक पहुंच गई थी। अरबन इंस्टीट्यूट की ओर से किए गए शोध में पता चला कि महामारी के दौरान गंभीर बीमारी के इलाज में काले अमेरिकियों और ग़रीब लोगों के बच्चों को इलाज़ मिलने में देरी हुई या इलाज मिला ही नहीं।

इसीलिए ज़रूरी है कि अमेरिका के हरेक नागरिक को स्वास्थ्य सेवाओं के दायरे में लाना ही होगा। यानी स्वास्थ्य सेवा नागरिकों का मूल अधिकार बनाना होगा।

3- बीते जून तक हर चार अमेरिकी में से एक का मानना था कि महामारी निश्चित रूप से या हो सकता है जानबूझ कर पैदा की गई है। ये बात प्यू रिसर्च सेंटर के एक अध्ययन में सामने आई। इसके अलावा कई अन्य साज़िशों वाली थ्योरी के चलते लोगों ने मास्क पहनने और वैक्सीन लगाने की अहमियत नहीं समझी और बड़ी संख्या में लोग बीमार हुए या मौत के मुंह में चले गए।

इसका मतलब ये है कि जनता तक सही सूचनाएं पहुंचना ज़रूरी हैं। कुछ तो हमारी ज़िम्मेदारी है और कुछ फ़ेसबुक, ट्विटर और ऐसे ही सोशल मीडिया प्लेटफार्म की, जो फ़र्ज़ी ख़बरों को बढ़ावा देते हैं।

4- महामारी के पूरे दौर में स्टाॅक मार्केट उपर चढ़ता रहा और इसकी वजह से दुनिया के एक प्रतिशत सबसे अधिक अमीरों की दौलत बेशुमार बढ़ी, जो आधे शेयरों के मालिक हैं।

जबकि मार्च 2020 से फ़रवरी 2021 के बीच आठ करोड़ अमेरिकियों की नौकरी चली गई। जून से नवंबर 2020 के बीच लगभग 80 लाख लोग गरीबी में धंस गए। इसमें भी काले और लैटिन लोगों की संख्या गोरे लोगों की अपेक्षा अधिक है, ये 16% ग़रीब हैं जबकि ग़रीब गोरे केवल 6% हैं।

इसका मतलब ये हुआ कि शेयर बाज़ार को अर्थव्यवस्था का पैमाना मानना बंद कर देना चाहिए। इसके बजाय यह देखिए कि कितने फीसद अमेरिकी काम कर रहे हैं और उन्हें औसतन कितना वेतन मिल रहा है।

5- अधिकांश अमेरिकी वेतनभोगी हैं यानी सैलरी पर जीते हैं। महामारी से निपटने के लिए उनके पास कोई बचत नहीं थी। मार्च में अमेरिकी कांग्रेस ने 300 डॉलर प्रति सप्ताह का बेरोज़गारी भत्ता तय किया था। इसे लेकर कुछ सांसद आरोप लगा रहे थे कि ये काम करने से हतोत्साहित करेगा। लेकिन असल में काम करने से हतोत्साहित होने का कारण तो बच्चों की देखभाल करने वाला चरमराता ढांचा और मामूली वेतन है।

यानी न्यनूतम भत्ता बढ़ाना चाहिए, मजदूर यूनियनों को मजबूत करना होगा और कंपनियों को लाभ अपने कर्मियों के साथ बांटने की नीति बनानी होगी।

6- अप्रैल 2020 में 70 फीसद लोग घरों से काम (वर्क फ्राम होम) कर रहे थे। हालांकि बड़ी तादाद में लोग अब भी अपने रहने की जगहों से काफी दूर काम करते हैं। 40 फीसद लोग घरों से ही काम करते रहना चाहते हैं।

ये कंपनियों को एडजस्ट करना होगा। जबकि व्यावसायिक रियल एस्टेट खाली पड़े थे। इन्हें अफोर्डेबल हाउसिंग में क्यों नहीं बदला जा सकता है।

7- अमेरिका के कुल 657 अरबपतियों की आमदनी में महामारी के दौरान 1.3 ट्रिलियन डॉलर या 44.6% बढ़ोत्तरी हुई। जेफ़ बेज़ोस की दौलत 183.9 अरब डॉलर हो गई है और वो दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति हो गए हैं। गूगल के सह संस्थापक लैरी पेज की दौलत में 11.8 अरब डॉलर की बढ़ोत्तरी हुई और उनकी कुल संपत्ति 94.3 अरब डॉलर है। गूगल के ही एक दूसरे सह संस्थापक सेर्गे ब्रिन की दौलत में इसी दौरान 11.4 अरब डॉलर की बढ़ोत्तरी हुई।

इसके बावजूद अरबपतियों से पहले के मुकाबले कम टैक्स लगाया गया। आज अमेरिका के अमीर 1953 के मुकाबले टैक्स का छठा हिस्सा ही देते हैं।  अगर अमीरों पर टैक्स लगाया जाता तो इसका एक बड़ा हिस्सा जनता के कल्याण में लगाया जा सकता है।

8-पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की एक मशहूर उक्ति है कि सरकार हमारी समस्याओं का समाधान नहीं है, बल्कि सरकार अपने आप में समस्या है। इसको यूं समझा जाए कि ट्रंप ने जब तेज़ी से वैक्सीन बनाने के लिए ऑपरेशन वार्प स्पीड योजना की शुरुआत की थी, तो विशेषज्ञों की अनुमान से भी तेज़ वैक्सीन बनाई गई।

नए राष्ट्रपति जो बाइडेन, शायद इसीलिए इतिहास के किसी भी वैक्सिनेशन प्रोग्राम के मुकाबले बहुत तेज़ी से लोगों को तक पहुंचाने में सफल रहे।  यानी सरकार चाहे तो जो भी संभव है, वह कर सकती है।

इसके अलावा अमेरिकी संसद ने बीते दिसम्बर में 900 अरब डॉलर के राहत पैकेज का जो ऐलान किया था उसने दसियों लाख लोगों को बेरोज़गारी के दौर में बड़ी मदद पहुंचाई और अर्थव्यवस्था को धाराशायी होने से बचाया।

डेमोक्रेट्स की नई सरकार ने मार्च में 1.9 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था में डाला, वो निश्चित रूप से अमेरिका को भारी मंदी से उबारने  में मदद करेगा, जो 2008-09 के बाद भी नहीं हो सका।

(लेखक अमेरिका के लेबर सेक्रेटरी रह चुके हैं और बर्कले में कैलीफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में पब्लिक पॉलिसी के प्रोफ़ेसर हैं। यह लेख द गार्ज़ियन में  प्रकाशित हुआ था और साभार यहां दिया जा रहा है। अंग्रेज़ी से हिंदी में इसका अनुवाद दीपक भारती ने किया है।)

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