मुनाफ़ा खोजने वाले महामारी से नहीं बचा सकते! कोरोना नहीं, पूंजीवाद सबसे बड़ी महामारी भाग-4

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लॉकडाउन अमूमन पूरी दुनिया में क्यों असफल रहा और क्यों कोरोना महामारी को रोक पाने में सरकारों को मुंह की खानी पड़ी?

असल में एक वर्ग विभाजित अन्यायपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था में यह कदम किसी विशेष स्थिति में जरूरी हो जाने पर भी नाकामयाब होना तय है क्योंकि इस व्यवस्था में निजी संपत्ति मालिक पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफे की हवस से उत्पादन में अव्यवस्था छाई रहती है।

पूंजीवाद में उत्पादन इसलिए नहीं होता क्योंकि समाज को उन उत्पादों की वास्तविक आवश्यकता है। उत्पादन इस मकसद से होता है कि मालिक पूंजीपति उन्हें बाजार में बेचकर लाभ कमा सके।

अतः किसी वस्तु की करोड़ों व्यक्तियों को कितनी भी आवश्यकता होने पर भी उसका उत्पादन नहीं किया जाएगा अगर वह बिक न सके क्योंकि ये करोड़ों लोग उसकी कीमत चुकाने में असमर्थ हैं।

ऐसे उत्पादन में लगे श्रमिकों को छंटनी कर बलपूर्वक खदेड़ दिया जाता है। श्रमिकों को उतनी ही न्यूनतम मजदूरी मिलती है जिससे वे जिंदा रहकर पूंजीपतियों को अपनी श्रमशक्ति बेचते रहें।

इस न्यूनतम से अधिक जो भी मूल्य इस श्रमशक्ति से उत्पन्न होता है वह सारा अधिशेष पूंजीपतियों के मालिकाने में चला जाता है। यही पूंजीपति वर्ग का मुनाफा है।

अगर मुनाफा मुमकिन न हो तो उत्पादन रोक दिया जाता है और मजदूरों को भुगतान बंद कर दिया जाता है। लेकिन मजदूरों को जिंदा रहने के लिए तो न्यूनतम संभव भुगतान ही मिलता है।

उनके पास किसी ‘बचत’ का सवाल ही नहीं उठता जिसे वो बेरोजगारी की आफत में ज़िंदगी चलाने के काम ले सकें। अतः अपने परिवारों के साथ भुखमरी उनकी विवशता बन जाती है। चुनांचे, तालाबंदी का अनिवार्य नतीजा भुखमरी और बेघरबारी ही होना था।

हम ऐसी व्यवस्था में रहते हैं जहाँ पुराने रखे 7 करोड़ टन भंडार के साथ नई फसल आ जाने से 1 जून को खाद्य निगम के पास 10 करोड़ 40 लाख टन अन्न भंडार हो चुका है।

खुले में रखे होने से इसमें बहुत सारा सड़ और बरबाद हो जाने वाला है। किन्तु पूंजीवादी व्यवस्था में इसे बरबाद होने दिया जा सकता है पर शहरों-गाँवों में भुखमरी के शिकार मेहनतकश लोगों को इसके वितरण की उचित व्यवस्था नहीं की जा सकती।

हम ऐसी व्यवस्था में रहते हैं जिसमें दुग्ध उत्पादक लाखों लीटर दूध बहा देते हैं और किसान पके फल-सब्जियों को फेंक देते हैं या पूरे खेत में ट्रैक्टर चला फल-सब्जियों को नष्ट कर डालते हैं जबकि बच्चों को पीने को दूध नहीं मिलता और फल, सब्जी, दाल, या बस आलू तक भी खरीदने में असमर्थ करोड़ों गरीब लोग सिर्फ पानी के साथ सूखी रोटी निगलने के लिए मजबूर हैं।

बस इसलिए क्योंकि इस व्यवस्था में उत्पादन की चालक शक्ति मुनाफा है, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं। हम ऐसे निजाम में रहते हैं जिसमें लाखो घर-फ्लैट खाली छोड़े जा सकते हैं जबकि भाड़ा चुकाने में असमर्थ बेरोजगार हुये मजदूर अपने नन्हें बच्चों के साथ सड़कों पर सोने को मज़बूर हैं। हम मुनाफा संचालित ऐसी व्यवस्था में रहते हैं।

जहाँ एक तरफ अस्पतालों में बिस्तर खाली रहते हैं वहीं दूसरी तरफ गरीब लोग इन अस्पतालों के बाहर सड़क और फुटपाथ पर इलाज बगैर मरते रहते हैं। हम इतनी विकृत-दूषित सामाजिक व्यवस्था में रहते हैं जिसमें अधिसंख्य लोग जरूरी सामान्य खाद्य सामग्री खरीदने में भी असमर्थ होने से इनकी माँग घट जाती है।

जबकि उधर इनके उत्पादन और आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, और फिर भी इनके दाम बढ़ते जाते हैं! हम ऐसे निजाम में रहते हैं जहाँ तालाबंदी की वजह से यातायात से लेकर कारखानों तक में ऊर्जा की जरूरत और माँग घट गई। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी क्रूड के दाम नीचे हैं। फिर भी हमारे देश में हर दिन इनके दाम बढ़ाये जा रहे हैं और जिंदा रहने की लागत और भी बढ़ती ही जा रही है।

चुनांचे, ये कोविड नहीं जिसने एक अरब से अधिक लोगों के जीवन में भूख, बीमारी व मृत्यु की विराट एवं भयावह पर कतई गैरज़रूरी आफत ढायी है। ये कोविड नहीं,शोषणमूलक पूंजीवाद है।

जिसने असल में इस संकट को जन्म दिया है। वक्त के साथ कोविड तो चला भी जाएगा, पर जब तक पूंजीवाद रहेगा, ऐसे कितने ही संकटों, मुसीबतों, आफतों को लाकर मेहनतकश जनता के जीवन को दुख-तकलीफ के समंदर में डुबोते रहेगा।

अतः ये पूंजीवाद ही इंसानियत के लिए सारे बैक्टीरिया-वाइरसों से भी संक्रामक, सबसे बड़ी, सबसे खतरनाक, सबसे भयावह बीमारी है, सब संकटों और बीमारियों के कष्टों में राहत के लिए सबसे पहले इस बीमारी को ही दुनिया के नक्शे से मिटा देना जरूरी है। (समाप्त)

(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)

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