मनरेगा के 20 फीसदी मज़दूरों को कर दिया गया अयोग्य घोषित, कॉरपोरेट घरानों तक सस्ता श्रम पहुंचाने की पूरी तैयारी में मोदी सरकार

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मनरेगा में काम करने वाले करीब 20 फीसदी सक्रिय मजदूर जल्द ही अनिवार्य आधार आधारित वेतन पाने के लिए अयोग्य घोषित कर दिए जायेंगे

केंद्र सरकार द्वारा महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के लिए जारी आधार-आधारित भुगतान प्रणाली के आदेश के बाद से मज़दूरों में बेहद ही अफरा-तफरी के हालात बन गए है.

इसके साथ ही 1 सितंबर से आधार-आधारित भुगतान प्रणाली अनिवार्य होने के बाद मज़दूरों को भुगतान कैसे किया जायेगा,इसको लेकर भी स्पष्टता का आभाव दिख रहा है.

सरकारी आकंड़ों के मुताबिक महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत 14 करोड़ सक्रिय मज़दूरों में से लगभग 20 फीसदी अभी तक आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) के तहत मज़दूरी पाने के लिए अयोग्य ठहरा दिए गए हैं.

योजना की वेबसाइट पर सोमवार (28 अगस्त) को प्राप्त आंकड़ों में कहा गया है कि वर्तमान में कुल 14,34,26,231 (14.3 करोड़) सक्रिय श्रमिकों में से 11,72,40,317 (11.7 करोड़) सक्रिय श्रमिक एबीपीएस के तहत भुगतान किए जाने के पात्र हैं.

सरकारी अधिकारीयों का कहना है की 1 सितम्बर से एबीपीएस लागू कर दिया जायेगा और आंकड़े बता रहे हैं की इसके लागू होने के बाद करीब 2,61,85,914 (2.6 करोड़ या ~ 18%) सक्रिय मज़दूर ऐसे हैं जो एबीपीएस के तहत भुगतान पाने के लिए अयोग्य करार दिए गए हैं.

मनरेगा की वेबसाइट बताती हैं की सक्रिय मज़दूर उन मज़दूरों को माना जायेगा जिसके परिवार का कोई भी व्यक्ति जिसने पिछले तीन वित्तीय वर्षों में या वर्तमान वित्तीय वर्ष में किसी भी एक दिन काम किया है.

इसके साथ ही ये भी जानकारी दी गई हैं की इस योजना के तहत मज़दूरों को 15 दिनों के भीतर उनकी मज़दूरी का भुगतान करदिया जाना चाहिए भले ही उन्होंने एक ही दिन काम क्यों न किया हो. सरकार अगर इसमें विफल होती हैं तो मज़दूर अतिरिक्त मुआवजे के हकदार होंगे.

केंद्र सरकार के द्वारा आधार-आधारित भुगतान प्रणाली के अनिवार्य कर देने के आदेश के बाद यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि आने वाले दिनों में भुगतान के लिए अयोग्य करार दिए गए मज़दूरों को उनके काम के लिए कैसे मेहनताना दिया जाएगा.

जो भी व्यक्ति काम की मांग करता है, उसे काम मिलना चाहिए

मनरेगा संघर्ष मोर्चा के कार्यकर्ता निखिल डे ने मिडिया से बात करते हुए बताया की “सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 14 करोड़ से अधिक मज़दूरों में से 20 प्रतिशत अभी भी एबीपीएस के माध्यम से भुगतान के लिए पात्र नहीं हैं. यह एक बड़ी संख्या है. मनरेगा के अनुसार मजदूरी के भुगतान को रोकना अवैध है. 2005 का अधिनियम कहता है कि जो भी व्यक्ति काम की मांग करता है, उसे काम मिलना चाहिए.”

उन्होंने आगे बताया की ” जिन भी मज़दूरों को अयोग्य ठहराया जा रहा ,इस पूरी प्रक्रिया में उनकी थोड़ी भी गलती नहीं है इसके बावजूद उनके काम के अधिकार का हनन किया जा रहा है. इस पूरी प्रक्रिया की एक सबसे बड़ी समस्या ये है, की यदि एक व्यक्ति एबीपीएस भुगतान के लिए पात्र नहीं है, तो पूरे मस्टर रोल (जिसमें 10 लोग होते हैं) का भुगतान प्रभावित होगा. भुगतान एक लेनदेन में सभी 10 के लिए जारी किया जाता है”.

आंकड़े बताते है की कई राज्यों में तो उनके सक्रिय मनरेगा मज़दूरों में से एक चौथाई अभी भी एबीपीएस के तहत भुगतान प्राप्त करने के लिए अयोग्य हैं. उदाहरण के लिए असम राज्य सरकार के दिए आंकड़े बताते हैं की सक्रिय मज़दूरों का केवल 39% इस नए सिस्टम के तहत अपना वेतन प्राप्त करने में सक्षम होंगे.

मनरेगा के तहत पंजीकृत गैर-सक्रिय श्रमिक भी इस योजना के तहत काम करने के हकदार हैं. ऐसे में जब ऐसे मज़दूरों का हिसाब रखा जाता है,तो प्रत्येक राज्य में एबीपीएस के लिए पात्र श्रमिकों की कुल संख्या और कम हो जाती है.

सार्वजनिक सेवा वितरण कंपनी लिबटेक इंडिया के एक कर्मचारी लावण्या तमांग ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि “गैर-सक्रिय मज़दूरों की अनदेखी करके सरकार उनके काम करने के संवैधानिक अधिकार को कम कर रही है”.

किसी भी मनरेगा मज़दूर को एबीपीएस के तहत पात्र होने के लिए, उनके जॉब कार्ड और बैंक खाते को उनके आधार के साथ जोड़ा जाना चाहिए. इसके साथ ही उनका बैंक खाता भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआई) के मैपर से भी जुड़ा होना चाहिए.

जबकि अधिकांश राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 28 अगस्त तक उनके 90% सक्रिय मज़दूरों के आधार विवरण उनके जॉब कार्ड के साथ जुड़े हुए हैं. असम, नागालैंड और मेघालय में क्रमशः केवल 75%, 45% और 33% सीडिंग हुई है.

एबीपीएस के आलोचकों का कहना है कि आधार-आधारित भुगतान प्रणाली की पूरी प्रक्रिया अत्यधिक बोझिल है और यह ग्रामीण लाभार्थियों को मनरेगा के तहत काम मांगने से रोक सकता है.

जानबूझ कर बनाया जा रहा है जटिल

मनरेगा मज़दूरों के बीच काम करने वाले कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया की ‘बैंक खाते की सीडिंग और मैपिंग करना बहुत ही बोझिल काम है. इसमें कड़े केवाईसी आवश्यकताएं, बायोमेट्रिक या जनसांख्यिकीय प्रमाणीकरण और आधार डेटाबेस तथा बैंक खाते के बीच संभावित विसंगतियों को हल करना शामिल है. इनमें किसी भी तरह की गड़बड़ी के बाद मज़दूरों के लिए उसमें सुधार करवा पाना बहुत ही मुश्किल काम हो जाता है,काम छोड़ कर उनके लिए इन सब को समय दे पाना संभव नहीं है’.

अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने द वायर से बात करते हुए कहा की “बैंक खाते की सीडिंग और मैपिंग,इन दोनों में से किसी एक और जॉब कार्ड के बीच विसंगतियां मनरेगा मजदूरी के आधार-आधारित भुगतान के लिए समस्याएं पैदा कर सकती हैं.”

मालूम हो की केंद्र सरकार ने पहले कहा था कि एबीपीएस इस साल 1 फरवरी से अनिवार्य हो जाएगी, लेकिन तब से लगातार इसकी समय सीमा कई बार बढ़ाई गई है.

लिबटेक इंडिया के नीति विश्लेषक चक्रधर बुद्ध ने मिडिया से बात करते हुए कहा “मज़दूर अपने दस्तावेजों के बेमेल होने से तब तक वाकिफ नहीं होते जब तक की वो अपने कार्य स्थल पर न पहुँच जाएँ. मज़दूरों नाम की वर्तनी में एक साधारण अंतर या गलत लिंग उनके जॉब कार्ड को उनके आधार कार्ड के साथ सफलतापूर्वक प्रमाणित नहीं कर पाता ,जिसके बाद उनको अयोग्य करार दिया जाता है.”

इस साल फरवरी से कई समय सीमा विस्तार के बाद समाचार एजेंसी पीटीआई ने पिछले हफ्ते सरकारी सूत्रों के हवाले से बताया कि 1 सितंबर की समय सीमा को अब आगे नहीं बढ़ाया जायेगा.

नए श्रम कानून के नाम पर मज़दूरों को पंगु बनाने से लेकर मनरेगा जैसी योजना को कमजोर किया जाना कही न कही ये इशारा देता है की सरकार द्वारा कारपोरेट घरानों तक सस्ता श्रम पहुँचाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है. योजना को सीधे-सीधे खत्म न कर के उसे जटिल बनाया जा रहा है.

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