‘पार्टनर’ कहकर शोषण, क्या ये श्रमिक नहीं हैं?

आज के दौर में संचार और तकनीकी क्रांति ने न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया में उपभोक्ता और सेवा प्रदाताओं के बीच की दूरियों को पाट दिया है।
एक ओर, इंटरनेट, मोबाइल ऐप्स और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का उपयोग करके उपभोक्ता वर्ग तेजी से विकसित हो रहा है, जो ऑनलाइन माध्यमों से उत्पाद और सेवाएं खरीदने का अभ्यस्त हो गया है।
वहीं दूसरी ओर, डिजिटल साक्षरता का उपयोग कर इन सेवाओं को उपभोक्ताओं तक पहुँचाने वाला एक विशाल श्रमिक वर्ग भी उभरा है, जिन्हें ‘गिग श्रमिक’ या ‘प्लेटफॉर्म श्रमिक कहा जाता हैं।
नीति आयोग के अनुसार, भारत में 2020-21 में लगभग 77 लाख गिग श्रमिक थे, जो 2029-30 तक बढ़कर 2.35 करोड़ तक पहुँचने की संभावना है।
वहीं, 2024 में श्रम मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार वर्तमान में लगभग 1 करोड़ प्लेटफॉर्म श्रमिक कार्यरत हैं।
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कैसे काम करते हैं प्लेटफ़ॉर्म श्रमिक
ये श्रमिक विभिन्न डिजिटल प्लेटफॉर्म जैसे ज़ोमैटो, स्विगी, उबर, ओला, अर्बन कंपनी आदि के माध्यम से ग्राहकों से जुड़ते हैं और सेवाएं प्रदान करते हैं। बदले में, जो आमदनी होती है, उसका एक हिस्सा कंपनी अपने पास कमीशन के रूप में रख लेती है.
हालांकि कंपनियाँ केवल एक डिजिटल मंच प्रदान करती हैं, परंतु मजदूर की मेहनत की कमाई से एक हिस्सा उनका बन जाता है। ये संबंध एक डिजिटल अनुबंध के तहत तय होते हैं, जो पारंपरिक रोजगार अनुबंधों से पूरी तरह अलग होते हैं।
कुछ प्रमुख कंपनियों द्वारा लिए जाने वाले कमीशन का विवरण इस प्रकार है:
प्लेटफ़ॉर्म श्रमिक को मिलने वाला हिस्सा कंपनी का कमीशन
Zomato/Swiggy (डिलीवरी) 75% – 85% 15% – 25%
Uber/Ola (कैब सेवा) 70% – 80% 20% – 30%
Urban Company (घरेलू सेवाएँ) 80% – 90% 10% – 20%
Freelancer / Upwork पहले $500 तक: 80%, फिर 90% तक 10% – 20% (घटती दर)
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प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों पर थोपे गए अनुबंध: अधिकारहीन व्यवस्था की असलियत
प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों और कंपनियों के बीच कार्य-सम्बंध प्रायः एकतरफा और असंतुलित होते हैं। कंपनियाँ श्रमिकों को केवल अपना डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म उपलब्ध कराती हैं, जबकि श्रमिक ही सेवा-प्रदाय की पूरी ज़िम्मेदारी उठाते हैं। इसके बावजूद, कंपनियाँ श्रमिकों की मेहनत से अर्जित आय का एक निश्चित हिस्सा कमीशन के रूप में अपने पास रखती हैं।
यह आर्थिक संबंध एक अनुबंध के माध्यम से स्थापित होता है, जिसकी प्रकृति पारंपरिक रोजगार—जैसे सरकारी या निजी कंपनियों की स्थायी नौकरियों—से स्पष्ट रूप से भिन्न होती है।
गिग श्रमिक आमतौर पर “ग़ैर-पारंपरिक” या “गिग कार्य अनुबंधों” के तहत काम करते हैं। ये अनुबंध तकनीक-आधारित होते हैं और प्रायः अंग्रेज़ी भाषा में बनाए जाते हैं, जो कि अधिकांश श्रमिकों की पहुँच और समझ से बाहर होते हैं।
नतीजतन, श्रमिक अपने कानूनी अधिकारों और अनुबंधीय दायित्वों को पूरी तरह समझ नहीं पाते।
ऐसे अनुबंध स्पष्ट रूप से यह दर्शाते हैं कि प्लेटफ़ॉर्म श्रमिक कंपनी के स्थायी कर्मचारी नहीं हैं। वे अपनी इच्छा से कार्य शुरू या समाप्त कर सकते हैं, उन्हें प्रति सेवा या डिलीवरी के आधार पर भुगतान मिलता है, और वे अपनी सुविधा के अनुसार कार्य समय चुन सकते हैं।
लेकिन यह स्वतंत्रता केवल सतही है—क्योंकि इन्हीं अनुबंधों के तहत तमाम तरह के इंसेंटिवों व सरचार्जों के माध्यम से श्रमिकों के काम के समय व घंटे कम्पनियाँ ही तय करती हैं तथा इन श्रमिकों को भविष्य निधि (EPF), स्वास्थ्य बीमा, पेंशन, मातृत्व लाभ और भुगतानयुक्त अवकाश जैसी मौलिक श्रमिक सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है।
इन अनुबंधों की प्रकृति भी अत्यंत एकतरफा होती है। ये अधिकांशतः ऐप या वेबसाइट के माध्यम से डिजिटल रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं, जिनकी Terms & Conditions पहले से ही कंपनियों द्वारा तय होती हैं।
अनुबंध की प्रक्रिया में न तो श्रमिकों से कोई राय ली जाती है, और न ही उनकी आवश्यकताओं को इसमें शामिल किया जाता है। नौकरी की तलाश कर रहे श्रमिकों के पास इन शर्तों को मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता—न कोई वार्ता का अवसर, न ही कोई संशोधन का अधिकार।
यह व्यवस्था भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 10 का स्पष्ट उल्लंघन करती है, जिसके अनुसार किसी भी वैध अनुबंध के लिए दोनों पक्षों की स्वेच्छा और स्पष्ट सहमति आवश्यक है।
जब सहमति केवल एक पक्ष की शर्तों पर आधारित हो और दूसरा पक्ष विवश हो, तो उसे अनुबंध नहीं बल्कि एकतरफा आदेश कहा जाना चाहिए।
भारतीय संविधान और श्रम कानूनों के तहत किसी भी मजदूर पर ऐसी एकतरफा शर्तें नहीं थोपी जा सकतीं। सभी श्रम अनुबंधों को पारदर्शी, न्यायसंगत, और परस्पर सहमति पर आधारित होना चाहिए।
संवैधानिक प्रावधानों और श्रम कानूनों के आलोक में देखें, तो कंपनियों द्वारा प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों पर थोपे गए अनुबंध न केवल कानूनी मानकों के खिलाफ हैं, बल्कि यह भारतीय संविधान और श्रम कानूनों की मूल भावना का भी उल्लंघन करते हैं।
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काम के घंटे और आमदनी की हकीकत
विभिन्न रिपोर्टों और अध्ययन से पता चलता है कि प्लेटफ़ॉर्म श्रमिक अत्यधिक समय तक काम करते हैं:
- 85% श्रमिक प्रतिदिन 8 घंटे से अधिक कार्य करते हैं।
- 21% श्रमिक 12 घंटे से अधिक काम करते हैं।
- 83% कैब ड्राइवर प्रतिदिन 10 घंटे से अधिक कार्यरत रहते हैं।
- 78% डिलीवरी श्रमिक 10 घंटे से अधिक काम करते हैं।
- फिर भी, इनकी मासिक आय बहुत सीमित होती है।
- 43% कैब ड्राइवर ₹15,000 से कम कमाते हैं।
- 34% डिलीवरी श्रमिकों की आमदनी ₹10,000 से कम है।
सामाजिक सुरक्षा से वंचित जीवन
लंबे कार्य घंटों और अत्यंत कम मासिक आय के बावजूद, इन प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों को न तो न्यूनतम वेतन की गारंटी प्राप्त है, न स्वास्थ्य बीमा, और न ही सामाजिक सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएँ।
ये श्रमिक भारत के संवैधानिक श्रमिक अधिकारों से पूरी तरह वंचित हैं। हालाँकि सरकार द्वारा शुरू किया गया ई-श्रम पोर्टल एक सकारात्मक पहल के रूप में देखा जा सकता है, जिसका उद्देश्य इन श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से जोड़ना है— लेकिन जब तक इन्हें कानूनी रूप से “श्रमिक” का दर्जा नहीं दिया जाता, तब तक यह प्रयास अधूरा और सीमित प्रभाव वाला ही रहेगा।
पार्टनर नहीं, श्रमिक माने जाएँ
इन लंबे कार्य घंटों के बावजूद, प्लेटफ़ॉर्म श्रमिक उन न्यूनतम संवैधानिक श्रमिक अधिकारों से पूरी तरह वंचित हैं, जो एक सामान्य मजदूर को प्राप्त होने चाहिए। उनकी आय भी अत्यंत अपर्याप्त होती है। यह स्थिति न केवल श्रमिकों की भलाई बल्कि उनके कार्य-जीवन संतुलन के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है।
इस असमानता का सबसे बड़ा कारण यह है कि कंपनियाँ और सरकारें इन श्रमिकों को “मजदूर” के रूप में मान्यता नहीं देतीं। इसके चलते उनकी हकदारी — जैसे न्यूनतम वेतन, सामाजिक सुरक्षा, और श्रम-संबंधी लाभ — उनसे छीन ली जाती है।
यदि सरकार को वास्तव में इनकी दयनीय जीवन स्थिति की चिंता है, तो सबसे पहला कदम यही होना चाहिए कि इन्हें “पार्टनर” या “कॉन्ट्रैक्टर” कहने के बजाय “मजदूर” का दर्जा प्रदान किया जाए।
केवल तभी ये श्रमिक उन तमाम कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठा सकेंगे, जो मजदूरों के लिए चलाई जा रही हैं, और उनकी न्यूनतम वेतन की संवैधानिक गारंटी सुनिश्चित हो सकेगी।
संगठन और संघर्ष की ज़रूरत
इन प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों के लिए भी यह प्राथमिक कार्यभार है कि वे अपने मानवाधिकारों और श्रमिक अधिकारों को प्राप्त करने की दिशा में संगठित संघर्ष करते हुए आगे बढ़ें और सबसे पहले ‘मजदूर’ का दर्जा हासिल करें।
निष्कर्ष:
प्लेटफ़ॉर्म आधारित अर्थव्यवस्था में कार्य कर रहे लाखों श्रमिकों को “डिजिटल दासता” से निकालकर उन्हें गरिमामयी श्रम और अधिकारों की दुनिया में लाना उनके हालत को बदतर होने से रोकने के लिए नितांत आवश्यकता है।
तकनीक का लाभ केवल उपभोक्ताओं और कंपनियों तक सीमित न रहे, बल्कि सेवा प्रदाताओं – यानी श्रमिकों – तक भी समान रूप से पहुँचे, यह सुनिश्चित करना सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी है।
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