दलित लेखिका सुकीरथरणी ने अडानी समर्थित अवार्ड लेने से क्यों किया मना?

By अमिता शीरीं

“किसी ऐसी संस्था से या किसी ऐसे समारोह में अवार्ड लेने में मुझे कोई ख़ुशी नहीं होगी जिसे अडानी समूह द्वारा वित्तीय मदद मिल रही हो, क्योंकि ऐसा करना मेरी राजनीति और विचारधारा के ख़िलाफ़ होगा।” – सुकीरथरणी

एक ऐसे दौर में जब प्रधानमंत्री तक जिस शख्स के ख़िलाफ़ एक लफ्ज़ बोलने को तैयार न हो, अधिकांश लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी चारण बनते जा रहे हों, ऐसे में एक तमिल दलित कवित्री सुकीरथरणी का पुरस्कार इसलिए न लेना कि इसके प्रायोजकों में अडानी समूह शामिल है, स्वागत योग्य है। सुकीरथरणी को उनके इस साहस के लिए सलाम!

हाल ही में न्यू इण्डियन एक्सप्रेस ने देवी पुरस्कारों की घोषणा की। देवी पुरस्कार 12 महिलाओं को अपने अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने के लिए दिया जाता है। इन 12 महिलाओं में अपना नाम देखकर सुकीरथरणी को बेहद ख़ुशी हुई।

उन्हें साहित्य में, ख़ासतौर पर दलित साहित्य के लिए यह अवार्ड दिया जाना था। उन्होंने फ़ौरन इसकी सहमति दे दी। लेकिन जब आयोजकों ने पुरस्कार के प्रोमो रिलीज़ किये तो उन्होंने पाया कि उसमें अडानी ग्रुप का लोगो लगा हुआ है। इसके बाद उन्होंने बिना हिचके अवार्ड लेने से इंकार कर दिया।

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दलित आंदोलनों में रहती हैं सक्रिय

बीबीसी के अनुसार, उन्होंने अपने फ़ेसबुक पोस्ट में लिखा “अडानी समूह इस सम्मान समारोह का मुख्य प्रायोजक है। मेरी दिलचस्पी ऐसे किसी सम्मान में नहीं है जिसको अडानी समूह की वित्तीय मदद मिल रही हो। मैं इस मुद्दे पर बोलती रही हूं, इसलिए मैं सम्मान लेने से इंकार कर रही हूं।”

अवार्ड समारोह 8 फरवरी को चेन्नई में आईटीसी ग्रैंड चोल होटल में आयोजित हुआ। 12 पुरस्कृतों में वैज्ञानिक गगनदीप कंग, भरतनाट्यम नृत्यांगना प्रियदर्शिनी गोविन्द, समाजसेवी राधिका शंतिकृष्ण, स्क्वाश खिलाडी जोशना चिनप्पा शामिल हैं।

सुकीरथरणी पिछले 25 सालों से तमिल में लेखन करती रही हैं। वह एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। हम जानते हैं कि तमिलनाडु लम्बे समय से दलित आन्दोलन की भूमि रही है।

तमिलनाडु में एक सचेत दलित के रूप में जीवन बसर करते हुए इन आंदोलनों से अलग रहना लगभग नामुमकिन है। संभवतः इसी कारण से वह लम्बे समय से सामाजिक मुद्दों से जुड़े संघर्षों में सक्रिय हैं। उन्होंने अपने लेखन में भी दलित वन्चितों को जगह दी है।

बीबीसी तमिल से बातचीत में उन्होंने बताया कि बचपन से ही वह पेरियार, अम्बेडकर और मार्क्स के विचारों से प्रभावित रही हैं। इनके दर्शन का उन पर असर रहा है। उनके अनुसार उनके लेखन में भी इनके विचार ज़ाहिर होते हैं।

उन्होंने बीबीसी को आगे बताया, “शुरुआत में मैं बहुत ख़ुश थी। हालांकि नास्तिक होने की वजह से मैं देवी के नाम पर मिलने वाले सम्मान को लेने से हिचक भी रही थी। लेकिन लोगों ने मुझे बताया कि ये महिला शक्ति का सम्मान है। इसके बाद मैंने 28 दिसंबर को उन्हें सम्मान लेने की स्वीकृति दे दी।”

बीबीसी ने पूछा कि फिर इसके बाद ऐसा क्या हुआ कि सम्मान नहीं लेने की घोषणा करनी पड़ी?

इस बारे में लेखिका ने बताया, “मेरी स्वीकृति के बाद हिंडनबर्ग की रिपोर्ट सामने आयी। यह सम्मान समारोह आठ फ़रवरी को होना था। न्यू इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप ने इसको लेकर प्रोमो वीडियो चलाने, पोस्ट करने शुरू किए। तीन फ़रवरी को मैंने वीडियो देखा तो उस पर अडानी समूह का लोगो था।”

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अडानी समूह द्वारा आयोजित अवॉर्ड फंक्शन का विरोध

सम्मान के साथ अडानी के जुड़ाव पर सुकीरथरणी को हैरानी हुई। उन्हें फैसला करने में देर नहीं लगी। वह आजीवन जिन विचारों के साथ खड़ीं थी। उसके ख़िलाफ़ वह कैसे हो जातीं। फलतः उन्होंने अवार्ड न लेने का निर्णय किया।

अपने साहसिक लेखन के लिए विख्यात सुकीरथरणी का जन्म एक गरीब दलित परिवार में 1973 में हुआ था। उनके पिता एक एक फैक्ट्री में दिहाड़ी मजदूर थे। वह तमिलनाडु में रानीपेट ज़िले के लालापेट में सरकारी स्कूल में शिक्षिका हैं। वह तमिल भाषा पढ़ाती हैं। तमिल में ही उनके 6 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

उनकी अनेकों कविताओं का अंग्रेज़ी, मलयालम, कन्नड़, हिंदी और जर्मन भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। तमिलनाडु में सिलेबस में उनकी कवितायें पढ़ाई जाती हैं। 1921 में दिल्ली विश्व विद्यालय में पढ़ाई जाने वाले उनके और बामा के लेखन को हटा दिया गया। इस फैसले की व्यापक निंदा की गई थी। स्वयं तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने इसकी निंदा की थी।

सुकीरथरणी के समूचे लेखन में दलितों और वंचितों के पक्ष में आवाज़ उठाई गई है। दलितों ख़ास तौर पर दलित औरतों के लिए सरोकार उनके लेखन में बहुतायत से मिलता है। इस अवार्ड से पहले उनको पुदुमैपीतन अवार्ड, द वीमेन अचीवर्स अवार्ड, द आवी अवार्ड, द वाइब्रेंट वोइस ऑफ़ सबाल्टर्न अवार्ड मिल चुके हैं।

1921 में इन्डियन कल्चरल फोरम को दिए गए अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा –‘जैसे ही मैं घर से बाहर अपने कदम रखती हूं, जाति कुत्ते की तरह मेरा पीछा करती है…भारत के अधिकांश गावों में आज भी जाति के आधार पर विभाजन है। जिस गांव में मैं रहती हूं उसके भी दो भाग है। एक मुख्य हिस्सा और दूसरा दलितों का भाग…. मेरी सामाजिक गतिविधि इन दो भागों को एक करने के लिए है।’

हिंडेनबर्ग रिपोर्ट आने के साथ ही वह बहुत नज़दीकी से इस फ्रॉड की खबर को देख सुन समझ रही थीं। ऐसे में किसी ऐसे अवार्ड को स्वीकार करना उनके लिए असंभव था जिसमें इतने बड़े फ्रॉड का करता धर्ता शामिल हो।

उनका कहना है कि ‘मुझे इस अवार्ड के लिए चुनने के लिए मैं निर्णय कर्ताओं की शुक्रगुज़ार हूं, लेकिन मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकती।’ इसके अतिरिक्त अडानी जिस तरह से तमिलनाडु में कतुपल्ली पोर्ट भी बना रहा है, जिसमें किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है और मजदूरों को विस्थापित किया जा रहा है। मैं इन सब से सहमत नहीं हूं। इसलिए मैं यह पुरस्कार लेने से इंकार कर रही हूं।’

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‘अवार्ड वापसी गैंग’

यह सही है कि लेखकों और बुद्धिजीवियों की जमात में व्यापक सन्नाटा पसरा है। लेकिन अवार्ड वापसी के लिए लेखक एकजुट होकर पहले भी आगे आ चुके हैं। अपने देश में असहिष्णुता के ख़िलाफ़ बड़ी संख्या में लेखक आगे आये। जिसे सत्ता पक्ष ने ‘अवार्ड वापसी गैंग’ की संज्ञा दी।

हम जानते हैं अवार्ड की भी अपनी राजनीति होती है। सरकारें अवार्ड्स के माध्यम से अपनी राजनीतिक विचारधारा को आगे बढ़ाना चाहती हैं। हम याद करें सात्र को जिन्होंने नोबल पुरस्कार यह कह कर ठुकरा दिया था कि उनके लिए यह एक बोरी आलू के समान है। भारत में भी कई लोगों ने अपनी अपनी राजनीति के अनुरूप विभिन्न अवार्ड्स को समय समय पर नकारा है।

सुकीरथरणी ने भी इस अवार्ड को एक ऐसे समय में अस्वीकार कर दिया जब कि देश में अडानी के ऊपर चौतरफ़ा हमले हो रहे हैं। संसद हंगामे के बाद बिना इस मुद्दे पर चर्चा किये निरस्त हो गई।

प्रधानमंत्री ने अपने मित्र अडानी पर लगे आरोपों पर एक शब्द भी नहीं कहा। संसद में अडानी का ज़िक्र करने वालों और इस सन्दर्भ में सवाल पूछने वालों को सज़ा देने की तैयारी की जा रही है। राजनीतिक रूप से गर्म माहौल में जबकि आम फिज़ां अडानी के ख़िलाफ़ है, ऐसे में सुकीरथरणी का देवी पुरस्कार वापस करने के बाद चर्चा में आना लाज़िमी है।

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