‘भूख और पोषण की कमी से जूझ रहा देश,अल्प विकसित देशों से भी बदतर स्थिति’:- प्रभात पटनायक

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By सुभोरंजन दासगुप्ता

सुभोरंजन दासगुप्ता के साथ एक चर्चा के दौरान जेएनयू के एक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री, प्रोफेसर प्रभात पटनायक बताते है कि ” बढ़ती संपत्ति असमानता की पड़ताल हम करते हैं तो हमे समझ आता है की कैसे जीडीपी पर ध्यान केंद्रित करके क्रोनी पूंजीपतियों के हाथ में संसाधनों के हस्तांतरण को वैध बनाया जा रहा है.

जबकि सिक्के का एक पक्ष कहता है कि भारत के 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का अनुमान है और जल्द ही यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरेगा, वहीं दूसरा पक्ष ये भी है कि भारत में लगभग 11% आबादी गरीब है. वर्ल्ड बैंक का डेटा बताता है कि भारत में 189.2 मिलियन लोग अभी भी हर रात भूखे सोते हैं.

ध्यान दें कि भारत ने 2011 से अपनी गरीबी के आंकड़े घोषित नहीं किए हैं.राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय 2017-18 में एक सर्वेक्षण जारी करने वाला था, लेकिन सरकार ने इसका प्रकाशन रोक दिया था.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री, एमेरिटस प्रोफेसर प्रभात पटनायक, सुभोरंजन दासगुप्ता के साथ बातचीत में इस महत्वपूर्ण विषय पर प्रकाश डालते हैं.

भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति और स्थिति को इंगित करने के लिए आप किस विशेषण का उपयोग करेंगे – ‘आश्चर्यजनक’, ‘अस्पष्ट’, या पूरी तरह से ‘आपराधिक’?

प्रो. पटनायक बताते है ” दिसंबर 1984 में मैंने गुंटर ग्रास से पूछा, जो संभवतः युद्धोत्तर यूरोप के सबसे महान उपन्यासकार और उत्तर-दक्षिण विभाजन के साथ-साथ वैश्वीकरण के एक कट्टर आलोचक थे से मैंने जब पूछा ‘मेरे देश में आपको सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात क्या लगती है ?’ उनका उत्तर था ‘अत्यधिक निर्धनता का समुद्र, जो अभद्र विलासिता के कुछ द्वीपों से घिरा हुआ है, जिनमें ऐसे नागरिक निवास करते हैं, जो अत्यंत संवेदनहीन और आत्मसंतुष्ट हैं’.”

प्रो. पटनायक कहते हैं ‘ 2024 में भी हम यही तस्वीर देख रहे हैं. इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि अमीर और गरीब के बीच की खाई और गहरी हुई है.असमानता के माप के रूप में हम राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी को मापक के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. आंकड़े बताते है कि अर्थवयवस्था में शीर्ष 1% की हिस्सेदारी और बाकि की जनता के बीच कितना फर्क है.1982 में ये अंतर 6% तक गिर गई थी, 2013-14 में 22% थी जो 1922 में भारत में आयकर अधिनियम लागू होने के बाद से किसी भी वर्ष की तुलना में अधिक था. फिलहाल ये अंतर और गहरा हो गया है.’

हालाँकि कई लोग यह दावा करते है कि भले ही असमानता बढ़ी हो. लेकिन हमारी उच्च विकास दर के कारण गरीबी कम हुई है और वे अपने दावे के समर्थन में यूएनडीपी (संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम) द्वारा तैयार बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) का हवाला देते हैं,जो 2013-14 में हेडकाउंट गरीबी अनुपात में 29.17% से 2022-23 में 11.28% तक भारी गिरावट दर्शाता है.

एमपीआई बौद्धिक भ्रम पर आधारित है

प्रो. पटनायक बताते हैं “उत्पादन के प्रत्येक तरीके में कुछ खास विशेषताएं प्रदर्शित करने वाली खामियां होती हैं. इसलिए गरीबी की पहचान के लिए हर विधा के अपने अलग मानदंड होने चाहिए. सामंतवाद के तहत एक गरीब परिवार के बच्चों को भूखा रखा जाएगा, अशिक्षित छोड़ दिया जाएगा, और कार्यबल में शामिल होने के लिए मजबूर करके उनका अत्यधिक शोषण किया जाएगा. लेकिन पूंजीवाद, विशेष रूप से उन्नत पूंजीवाद के तहत एक गरीब परिवार के बच्चे फटेहाल स्थिति में रहेंगे, बेकार स्कूलों में जाएंगे, उन्हें घटिया स्वास्थ्य सुविधाएं दी जाएंगी.”

“यदि हम गरीबी को केवल इस आधार पर परिभाषित करें कि बच्चे स्कूल जाते हैं या नहीं, तो हम गरीबी में कमी साफ़ तौर पर देखेंगे. यहाँ तक की एक माद्यम आय वाले देश में भी हमे कोई गरीबी नहीं दिखेगी.”

आगे वो बताते हैं ” एमपीआई एक भ्रामक सूचकांक है जो किसी घर को गैर-गरीब मानने के लिए मानदंडों का उपयोग करता है. जैसे पाइप से पानी की पहुंच, गैर-फूस का आवास (जो धातु की छत के साथ केवल एक कमरे की झोपड़ी हो सकती है), शौचालय, एक बैंक खाता होना (भले खाते में राशि शून्य हो). पोषण के आधार पर गरीबी मापने के लिए जिस बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) पद्धति का इस्तेमाल किया जाता है वो भी भ्रामक है.”

प्रो. पटनायक इसे विस्तार देते हुए कहते हैं ” हमारे जैसे समाज में, जहां उत्पादन के विभिन्न तरीके सह-अस्तित्व में हैं. गरीबी को कुछ सुपर-मोड इंडेक्स के संदर्भ में परिभाषित किया जाना चाहिए. न्यूनतम पोषण स्तर तक पहुंच एक स्वीकार्य मापक है, हालांकि एमपीआई द्वारा इसे कम महत्व दी गई है. लेकिन पारंपरिक रूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ये स्वीकृत मार्कर रहा है.”

आगे वो कहते हैं ‘यदि हम ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2,200 कैलोरी और शहरी भारत में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2,100 कैलोरी तक पहुंच को लेते हैं, जैसा कि 1973 से योजना आयोग ने गरीबी को परिभाषित करने के लिए किया था, तो गरीबों का अनुपात 58% से बढ़ गया. ग्रामीण भारत में 1993-94 में 68% से 2011-12 में 80% से अधिक और 2017-18 में 80% से अधिक इसमें बढ़ोतरी हो जाएगी. वही शहरी भारत में ये अनुपात क्रमशः 57%, 65% और अनुमानित 60% था.’

कुछ अर्थशास्त्री जीडीपी और प्रति व्यक्ति पद्धति की आलोचना करने वालों का विरोध करते हुए उन्हें ‘घोर निराशावादी’ कहते हुए इस पद्धति की वकालत करते हैं. दुनिया के कई बड़े अर्थशास्त्री जैसे जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ और अमर्त्य सेन भी इसका पक्ष नहीं लेते. यहाँ तक की जीडीपी को डिजाइन करने वाले साइमन कुजनेट ने भी एक वास्तविक मार्कर के रूप में इसकी सीमा पर ध्यान केंद्रित किया है. कई देशों ने भी इसे मापक के तौर पर अस्वीकार कर दिया है.

पटनायक कहते हैं ‘ पुराने दिनों में कुछ दमनकारी महाराजा अपने लिए महल बनाने के लिए बेगार या कोरवी मजदूरी का इस्तेमाल करते थे. ऐसे महलों के निर्माण से सकल घरेलू उत्पाद को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन निश्चित रूप से कल्याण-वृद्धि के रूप में इसकी सराहना नहीं की जाएगी. जीडीपी पर वर्तमान जोर का कारण एक आधिकारिक उद्देश्य है. इसका उपयोग बड़े पूंजीपतियों, विशेष रूप से घनिष्ठ पूंजीपतियों को कामकाजी [वर्ग] लोगों की कीमत पर इस फर्जी दलील पर हस्तांतरण को वैध बनाने के लिए किया जा सकता है कि वे निवेश करेंगे और जीडीपी को बढ़ावा देंगे. जीडीपी पर जोर देकर देश के हित को पूंजीपतियों के हित के समान बना दिया गया है.’

हम सहमत हैं कि शेयर/शेयर बाज़ार बढ़ रहा है. लेकिन कितने भारतीय शेयर बाजार द्वारा गारंटीकृत टेकअवे से जुड़े हैं? लाभार्थियों का वास्तविक प्रतिशत क्या है?

‘कथित तौर पर भारत की केवल 3% आबादी ही शेयर बाजार से जुड़ी है, जबकि अमेरिका में यह आबादी 55% है. यहां तक कि चीन में भी यह आंकड़ा 13% से अधिक है. बेशक इसका मतलब यह नहीं है कि आम लोगों का पैसा शेयर बाजार में निवेश नहीं किया जाता है, बल्कि इसे वित्तीय मध्यस्थों के माध्यम से निवेश किया जाता है, जिसके कारण लोग शेयर बाजार के जोखिमों से लगभग अछूते रहते हैं.’

‘वित्तीय वर्ष 2023 में भारत के बैंकों ने 2.09 लाख करोड़ रुपये के ऋण माफ किए, जिनमें से 52.3% बड़े उद्योग घरानों के ऋण थे. अति-अमीरों के लिए इस उदारता के बाद एक और कठोर निर्णय लिया गया सबसे गरीब लोगों के लिए कल्याणकारी योजना मनरेगा से अब केवल उन लोगों को लाभ होगा जिनके पास आधार कार्ड हैं, जिसका अर्थ है कि लाखों लोग इससे बाहर हो जाएंगे.’

‘इस तरह का द्वंद्व दक्षिणपंथी सरकारों की पहचान है. यह सरकार किसी न किसी बहाने से मनरेगा को कमजोर करने की कोशिश कर रही है. कोविड-19 महामारी के कारण कठोर और बिना सोचे-समझे किए गए लॉकडाउन के कारण हजारों लोग पैदल ही अपने गांवों की ओर वापस चले गए. वे मनरेगा के कारण बच गए, जिससे इस योजना के लिए ज्यादा फंड देना पड़ा. लेकिन अब इसके ठीक बाद मनरेगा को छोटा करने की कोशिश फिर से शुरू हो गई है.’

प्रो. पटनायक बताते हैं ” दूसरी ओर राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा बड़े पूंजीपतियों को दी गई ऋण माफी, एक नज़र में केवल बजटीय हस्तांतरण है. इस प्रकार माफ किए गए ऋण आंशिक रूप से महज दिखावा हैं, और बुनियादी ढांचे के निवेश के लिए सरकारी निर्देश के तहत की गई अग्रिम राशि का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसे चुकाया नहीं जा सकता है. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) सरकार इसी तरह राष्ट्रीयकृत बैंकों को जोखिम उठाने पर मजबूर करती है. इसकी तथाकथित आर्थिक रणनीति लोगों की खपत बढ़ाने में नहीं बल्कि बड़े पूंजीपतियों को बुनियादी ढांचे में निवेश करने के लिए प्रेरित करने में निहित है . जैसा कि रूसी अर्थशास्त्री मिखाइल तुगन-बारानोव्स्की ने कल्पना की थी ‘निवेश के लिए निवेश’.”

जब भी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां दावा करती हैं कि देश में चार में से तीन भारतीय अल्पपोषित हैं. या वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 125 देशों में से 111वें स्थान पर है, तो सरकार में सेवारत अर्थशास्त्री विरोध का स्वर उठाने लगते हैं. सच कहाँ झूठ है? क्या अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं या वे पूरी तरह से निष्पक्ष हैं?

इसका जवाब देते हुए पटनायक कहते हैं ” जैसा कि मैंने ऊपर बताया, नव-उदारवादी युग में पोषण संबंधी गरीबी में वृद्धि एक निर्विवाद तथ्य है. हाल ही में कोविड-19 के बाद मुफ्त खाद्यान्न वितरण ने इसको कम किया है, लेकिन इसे ख़त्म नहीं किया है. यह हमें फिर से औपनिवेशिक काल में प्रचलित स्थिति की ओर ले जाता है. औपनिवेशिक शासन की पिछली आधी सदी में ब्रिटिश भारत में पोषण संबंधी गरीबी में भारी वृद्धि देखी गई थी, जिसे 1990 के दशक की शुरुआत में नव-उदारवाद की शुरुआत से पहले स्वतंत्रता के बाद की सरकारों के कड़े प्रयासों से पूरी तरह तो नहीं लेकिन कम किया गया था. नव-उदारवाद की शुरुआत के बाद 2008 तक खाद्यान्न की कुल प्रति व्यक्ति उपलब्धता में तेजी से गिरावट आई और अभी भी सुधार-पूर्व स्तर पर वापस नहीं पहुंची है, आबादी में इसका वितरण अधिक असमान हो गया है, जिसके परिणामस्वरूप कैलोरी की कमी के आंकड़े सामने आए हैं.”

सिर्फ विश्व भूख सूचकांक ही इस असमानता को जाहिर नहीं करता है. बल्कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण जिसका डेटा एमपीआई द्वारा उपयोग किया जाता है, से पता चलता है कि 15-49 वर्ष की महिलाओं में एनीमिया की व्यापकता 2015-16 में 53% से बढ़कर 2019-21 में 58% हो गई है. देश में भुखमरी और कुपोषण का बोलबाला है. भारत आज उप-सहारा अफ्रीका और “अल्प विकसित देशों” दोनों से भी बदतर स्थिति में है.

(द वायर की खबर से साभार)

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