दिल्ली सरकार की न्यूनतम मज़दूरीः काम आज के, दाम बाप के ज़माने के

minimum wage labour

By नित्यानंद गायेन

क्या दिल्ली जैसे महानगर में 874 रुपये के किराये पर कोई मकान/कमरा और यहां तक कि झुग्गी भी मिल सकती है?

अगर इसका जवाब ढूंढना है तो दिल्ली की केजरीवाल सरकार द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम मज़दूरी को तय करने के तरीकों पर ग़ौर फरमाना होगा।

दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी का जो संशोधित प्रस्ताव पेश किया है, उसके अनुसार, चार सदस्यों वाले परिवार को चलाने के लिए 14,842 रुपये प्रति माह पर्याप्त हैं।

इस प्रस्ताव के अनुसार, रिहायश के लिए यानी कमरे के किराए के लिए 8,74 रुपये/माह का खर्च आएगा।

ये समझ से परे है कि एक मज़दूर दिल्ली जैसे महानगर में 874 रुपये प्रति माह के किराए पर कैसे अपने परिवार के साथ किराए पर घर ले सकता है और मिल भी जाए तो कैसे रह सकता है।

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पूरे एनसीआर में न्यूनतम मज़दूरी एक प्रमुख मुद्दा बनती जा रही है। (फ़ोटोः वर्कर्स यूनिटी)

सरकार के द्वारा गठित प्रबुद्ध समिति द्वारा जो ये आंकलन किया गया है, उसकी कुछ और बानगी देखिए-

प्रस्तावित न्यूनतम मज़दूरी में खाने पर 8,736 रुपये/माह, कपड़े पर 6,26 रुपये/माह, ईंधन पर 2,047 रुपये/माह और शिक्षा पर 2,559 रुपये/माह तय किया गया है।

गौरतलब है कि नये न्यूनतम वेतन मान को जिस समिति ने तय किया है, उसने केन्द्रीय भंडार तथा मदर डेयरी से विभिन्न खाद्य मूल्यों का जायजा लिया।

साथ ही खादी ग्रामोद्योग से कपड़ों क़ीमतें देखने के बाद ये सिफारिश दी है।

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एक साल पहले अक्टूबर 2017 में दिल्ली के ओखला में एक झुग्गी में लगी आग से सैकड़ों परिवार बेघर हो गए थे। (फ़ोटोः शालू ट्विटर)
किस दुनिया में हैं जनाब

आवास के लिए इस प्रस्ताव में 874 रुपये प्रति माह प्रस्तावित है।

यह रियायती आवासीय योजना –आई एल सी -1957 के तहत है और खाद्य पदार्थ का 10 प्रतिशत है।

ऐसे में अब सवाल यह है कि क्या दिल्ली जैसे महानगर में 874 रुपये रिहायशी भत्ता पर्याप्त है?

दिल्ली में मज़दूर से लेकर माध्यम वर्ग के लोग जिस हाल में निवास करने पर मजबूर हैं, वो सब जानते हैं।

भले ही केजरीवाल सरकार ने बिजली दरों में भारी कटौती की घोषणा की है किन्तु इसका लाभ किरायेदारों को नहीं मिलता है है उल्टा मकान मालिक सरकारी दर से 3 गुना अधिक बसूलते हैं।

उसी तरह कपड़े के लिए 626 रुपये प्रति माह (66 मीटर सालाना) का प्रस्ताव है। क्या यह प्रयाप्त है?

या सरकार कपड़े के लिए कोई सरकरी आउटलेट उपलब्ध करवाएगी?

क्योंकि खादी भंडार में इस राशि में केवल एक कपड़ा आएगा और यदि सिलवाना पड़े तो उसका खर्चा अलग है।

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दिल्ली सरकार के प्रस्ताव का स्क्रीन शॉट।
क्या बिना  इलाज़ के रहेगा मज़दूर!

दूसरी बात है कि इस प्रस्ताव में स्वास्थ्य (चिकित्सा ) के लिए कोई बात नहीं है।

यानी केजरीवाल सरकार मान कर चल रही है कि उसने सार्वजनिक/सरकारी अस्पतालों का हाल इतना दुरुस्त कर दिया है कि वहां पूरा निःशुक्ल इलाज मिलने लगा है!

दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आज हवा ज़हर बन चुकी है और यहाँ मज़दूर जिस हाल में जीने को मजबूर हैं क्या सरकार या समिति उससे वाकिफ़ नहीं है?

एक और सवाल है कि प्रस्तावित न्यूनतम मज़दूरी या वेतनमान में अवकाश के तहत कोई कटौती होगी या नहीं इसकी जानकारी अभी नहीं है।

किसी भविष्य निधि की भी कोई जानकारी नहीं है।

इस प्रस्ताव पर 11 जनवरी 2019 तक सुझाव मंगाए गए हैं, उसके बाद ही सरकार न्यूनतम मज़दूरी की मुकम्मल घोषणा करेगी।

हालांकि अन्य राज्यों के मुकाबले दिल्ली सरकार का ये प्रस्ताव बेहतर है लेकिन महानगर के हिसाब से पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।

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दिल्ली सरकार के प्रस्ताव का स्क्रीन शॉट।
मॉल और फ़ूड कोर्ट पर भी लागू होगा?

सरकार द्वारा यदि यह प्रस्ताव लागू होती है तो क्या इसका लाभ उन हजारों युवाओं को भी मिलेगा जो निजी क्षेत्र यानी शापिंग मॉल, फूड कोर्ट माने कि केएफसी, सब वे, मैकडोनॉल्ड आदि जैसी जगहों पर काम करते हैं?

दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अमीरों के कोठियों के बाहर और बड़े बड़े शो रूम के बाहर जो लोग चौकीदारी करते हैं उन पर भी न्यूनतम वेतनमान का यह कानून लागू कर पाएगी सरकार?

अभी हाल ही में डीटीसी कर्मचारियों ने अपनी मांगों को लेकर सरकार के खिलाफ आन्दोलन किया था।

ऐसे में न्यूनतम मज़दूरी का यह प्रस्ताव कहाँ तक किस प्रकार लागू हो पाएगा यह देखने की बात है।

निजी कारोबारियों पर भी इसे लागू करवाने का दबाव रहेगा ही।

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निकाले गए रिको परमानेंट मज़दूर। (फ़ोटोः वर्कर्स यूनिटी)
न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम

न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948 भारत की संसद द्वारा पारित एक श्रम कानून है जो कुशल तथा अकुशल श्रमिकों को दी जाने वाली मज़दूरी तय करता है।

यह अधिनियम सरकार को असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए न्यूनतम मज़दूरी निर्धारित करने का अधिकार देता है।

इसमें उपयुक्त अन्तरालों और अधिकतम पाँच वर्षो के अन्तराल पर पहले से निर्धारित न्यूनतम मजदूरियों की समीक्षा करने तथा उनमें संशोधन करने का प्रावधान है।

केन्द्र सरकार अपने प्राधिकरण द्वारा या इसके अर्न्तगत चलाए जा रहे किसी अधिसूचित रोज़गार के लिए या रेलवे में या खदानों, तेल क्षेत्रों या बड़े बन्दरगाहों या केन्द्रीय अधिनियम के अर्न्तगत स्थापित किसी निगम के संबंध में इस अधिकार का इस्तेमाल करती है।

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राज्यों के अधिकार

अन्य अधिसूचित रोज़गारों के संबंध में राज्य सरकारें न्यूनतम मज़दूरी तय करती हैं।

केन्द्र सरकार का अधिकार, भवन एवं निर्माण कार्यकलापों जो अधिकतर केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग, रक्षा मंत्रालय आदि द्वारा संचालित किए जाते हैं, में तथा रक्षा एवं कृषि मंत्रालयों के मातहत कृषि फार्मो तक ही सीमित है।

असंगठित क्षेत्र के अधिकतर रोज़गार राज्य क्षेत्रों के तहत आते हैं।

और राज्य सरकार से ही उम्मीद की जाती है कि वो समय समय पर न्यूनतम मज़दूरी तय करे।

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र मीडिया और निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुकट्विटर और यूट्यूब को फॉलो करें।) 

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