अभूतपूर्व बेरोज़गारी-5ः रेल समेत 46 सरकारी कंपनियां बेचने से अति विशाल बेरोज़गारी की आहट

bihar railway protest

By एस. वी. सिंह

देश में मौजूद कुल 270 सार्वजनिक निकायों में से 46 को कौड़ियों के दाम देश के धन्नासेठों को बेच डालने की लिस्ट कोरोना काल से पहले ही ज़ारी हो चुकी थी। इनमें भारत पेट्रोलियम और जीवन बिमा निगम जैसे नाम भी शामिल हैं।

ये बिक्री तो अब तक संपन्न भी हो चुकी होती अगर कोविड-19 वायरस ने सरकारी काम में रूकावट ना पैदा की होती। ये लिस्ट तो तब की है जब कोरोना महामारी का आगमन हमारे देश में नहीं हुआ था।

और मोदी के ‘कुशल नेतृत्व’ में अर्थव्यवस्था छलांगें भर रही थी और वो 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था बनने की ओर कूच कर चुकी थी। आज तो अर्थव्यवस्था की फूंक खुद सरकार के आकलन में ही निकल चुकी है।

रिज़र्व बैंक का रिज़र्व भी ये सरकार हज़म कर चुकी है। अब तो सरकारी उपक्रम बेचने की ये लिस्ट निश्चित ही संशोधित होगी और इससे कहीं लम्बी लिस्ट सामने आएगी। हालाँकि तात्कालिक तौर पर सरकार ने अपना एक बड़ा माल बेचने को निकाल दिया है।

रेल मंत्री द्वारा बार बार ‘जनवाद के सर्वोच्च और पावन मंदिर’ संसद में ये आश्वासन देने के बाद भी की रेलवे का निजीकरण नहीं किया जाएगा, कोरोना महामारी के दौरान, आपदा को अवसर में बदलने की निति के तहत, देश के मुनाफ़ा कमाने वाले कमाऊ मार्गों पर चलने वाली 150 रेल गाड़ियों को बेचने की प्रक्रिया शुरू करते हुआ धन्ना सेठ ग्राहकों से खरीदी के आवेदन (RFQ) मांग लिए हैं।

जनता के पैसे से बनी कंपनियों की लूट

इन सब निजिकरणों का परिणाम भयंकर बेरोज़गारी में होगा। इस हमले में वो लोग बे-रोज़गार होंगे जिन्हें सफेदपोश मज़दूर कहा जाता है, जो अपनी नोकरियों के बारे में सपने में भी ये नहीं सोचते थे कि उन्हें भी सर्वहारा की पांतों में आना पड़ेगा।

ये समुदाय अपनी सेवा शर्तों को हांसिल करने के लिए खुद कभी नहीं लड़ा, सब कुछ तश्तरी में परोसा हुआ मिला इसलिए खुद को मज़दूर वर्ग मानने में भी पीड़ा और शर्म महसूस करता था लेकिन आज पूंजीवाद इस स्थिति में रहा ही नहीं कि किसी की पसंद ना पसंद का विचार कर सके। असलियत ये है कि जो भी अपना श्रम बेचकर वेतन पाता है वो मज़दूर ही है।

देश की बहुमूल्य संपदाएँ कॉर्पोरेट को लुटाने का दूसरा पहलू ये है कि इन संस्थानों का निर्माण सरकारी ख़जाने से हुआ है और सरकारी ख़जाने में पैसा टैक्स के रूप में आम लोगों की जेबों और उनके पेट खाली करके आता है।

कुछ बड़बोले उदारवादी पेटी बुर्जुआ ‘खान मार्किट टाइप’ लोग इस मुगालते में रहते हैं कि टैक्स सिर्फ़ अमीर या माध्यम वर्ग वाले लोग ही देते हैं। ये बात झूट और अन्यायकारक है जो ग़रीब लोगों के प्रति तिरस्कार और पूर्वाग्रह से पैदा हुई है।

आम ग़रीब आदमी भी सुबह से शाम तक जिस भी वस्तु का उपभोग करता है जैसे चाय, चीनी, गैस, तेल, बीडी, माचिस, अनाज, दाल, सब्जी, मिर्च आदि कुछ भी, सबकी कीमत में टैक्स जुड़ा होता है।

यहाँ तक की मरने के बाद चिता में जो लकड़ी इस्तेमाल होती हैं उन सब में 18% जी एस टी मिला होता है।

टैक्स दो प्रकार के होते हैं; सीधे कर (DirectTax) जैसे इनकम टैक्स और अप्रत्यक्ष कर (IndirectTax) जैसे जी एस टी आदि।

सरकार द्वारा वसूले गए कुल टैक्स में प्रत्यक्ष कर/ सीधे कर, मतलब अमीरों से वसूले जाने वाले टैक्स का हिस्सा महज 35% जबकि 65% हिस्सा अप्रत्यक्ष कर का है जिसे सारे लोगों से वसूला जाता है।

सरकार प्रत्यक्ष कर की दरें कम करती जा रही है जबकि अप्रत्यक्ष कर की दर बढाती जा रही है। चूँकि आबादी में 90% ग़रीब हैं इसलिए कुल वसूले गए टैक्स में गरीबों का हिस्सा बहुत ज्यादा है।

ये स्वयं- घोषित राष्ट्रवादी सरकार जब अपने पहले संस्करण में आई थी तब इन्होने विनिवेश मंत्रालय का गठन किया था आज वो मंत्रालय अपनी पूरी लय में है क्योंकि बहुत सारे सरकारी निकाय बेचने हैं।

हर साल 2 करोड़ लोगों को रोज़गार देने के सपने दिखाकर सत्ता हांसिल करने वाली मौजूदा सरकार आज तक लगभग 10 करोड़ लोगों से उनके रोज़गार छीन चुकी है।

 बेरोज़गारों से पैसे की ठगी

टी वी के एक विख्यात पत्रकार रवीश कुमार ने महीनों तक लगातार कार्यक्रम चलाकर देशभर में बे-हाल बे-रोज़गारों के भविष्य के साथ हो रही धोखाधड़ी और ठगी अच्छी तरह उजागर की है।

यह लोगों को रोज़गार देने के लिए स्थापित किए गए कर्मचारी चयन आयोगों के माध्यम से इस प्रकार से की जाती है: 50,000 नौकरियों के लिए विज्ञापन ज़ारी किया जाता है, उसमें कम से कम 5 करोड़ बेरोज़गार आवेदन करते हैं।

हर एक से 500 रु शुल्क भी लिया गया तो कुल रकम 2500 करोड़ हो जाती है। पहले परीक्षा की तारीख ही बरसों तक लटकाकर रखी जाती है उसके बाद सालों परिणाम आने में लग जाते हैं, फिर किसी अदालत में याचिका दायर हो जाती है और पूरी प्रक्रिया अनंत काल के लिए ठन्डे बस्ते में चली जाती है।

करोड़ों युवकों को सपने में खोया रखा जाता है जो रोज़गार पत्र का इन्तेज़ार करते रहते हैं और आखिर में उनके अरमानों पर ठंडा पानी फिर जाता है। ये कोई इक्का दुक्का घटनाएँ नहीं हैं बल्कि लगभग हर ‘भरती’ में ये ही हो रहा है।

दो साल पहले यू पी में हजारों लड़कियाँ महिला पुलिस में भरती के लिए योग्य घोषित हुईं और आज तक योग्य ही बनी हुई हैं, सिपाही नहीं बन पाई। रोज़गार आता कहीं नज़र नहीं आता।

अभी कुछ दिन पहले 69,000 युवक प्राईमरी अध्यापक के पद पर नियुक्त घोषित हुए और मामला फिर अदालत में लटक गया। इसी तरह रेलवे विभाग में भी इस तरह की ‘नियुक्तियां’ होती रहती हैं।

रेलवे विभाग द्वारा इस तरह लटकाए गए युवकों की तादाद 3.69 करोड़ है जो जाने कब से ‘नियुक्ति पत्र’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं और जाने कब तक करते रहेंगे।

दरअसल, ये कर्मचारी चयन आयोग खुद ठप्प हो चुके हैं क्योंकि कर्मचारी चयन का काम ही विलुप्त हो चुका है। इनके खुद के कर्मचारी इसी तिकड़म बाज़ी से ही वेतन पा रहे हैं।

शायद जल्द ही वे भी ‘सर्वहारा बे-रोज़गार ब्रिगेड’ में शामिल होने वाले हैं, काफी तो हो चुके हैं। ये खेल रोज़गार ना देने मात्र का ही नहीं बल्कि उससे कहीं संगीन है।

युवाओं को संघर्ष के रास्ते से हटाकर मुंगेरीलाल के हसीन सपनों में खोने को बाध्य करके ये उन्हें हताशा-निराशा की अँधेरी गली में धकेलने की कवायद है। (क्रमशः)

(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)

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