WU विशेषः मेडिकल सुविधा में महाबली अमेरिका क्यों फ़ेल, क्यूबा-वियतनाम क्यों हैं अव्वल?

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By संजय कुमार

कोविड बीमारी को फैले हुये 8 महीने हो चुके हैं। अब तक डेढ़ करोड लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं तथा करीब साढे छ: लाख लोग जान गँवा चुके हैं। इस बीमारी का अभी तक कोई इलाज नहीं है।

विश्वस्वास्थ्य संगठन द्वारा मार्च में सुझाये गये कदम यानि ‘टेस्टिंग, ट्रेसिंग तथा आईसोलेशन’ का ही हर देश में पालन किया जा रहा है।

लेकिन, कोरोना के केसों की दर तथा मृत्यु दर विभिन्न देशों में बहुत अलग अलग है। आम तौर पर माना जाता है कि अमीर देशों की स्वास्थय व्यवस्था बेहतर है, वहां के लोग बेहतर खाते पीते हैं इसलिये उनकी सेहत अच्छी होती है, और इस कारण उनको बीमारी भी कम होती है।

लेकिन हम पाते हैं कि दुनिया के सबसे अमीर देश अमरीका में कोरोना की दर दुनिया के बडे देशों में सबसे ज्यादा है।यहींपरइस बिमारीसे सबसे अधिक करीब डेढ लाख लोगों की मृत्यु हुई है।

दूसरी ओर वियतनाम है जिसकी प्रति व्यक्ति आय अमरीका से आठ गुना कम है, लेकिन वहां कोरोना के कारण एक भी मृत्यु नहीं हुई है।

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दुनिया में कोरोना महामारी। अमरीका, ब्राजील व भारत में कोरोना के सबसे अधिक केस हैं

 

मज़दूरों का कमाई का सबसे अधिक खर्च इलाज़ पर

वास्तव में किसी भी देश की स्वास्थ्य व्यवस्था के द्वारा निर्धारित होता है कि समाज के किन व्यक्तियों को किस प्रकार की रोकथाम प्राप्त होती है। इसलिये किसी भी बीमारी का फैलाव स्वास्थ्य व्यवस्था के चरित्र पर निर्भर करता है।

नीचे दी गयी तालिका में चुने हये देशों में कोविड बीमारी व स्वास्थ्य व्यवस्था के आंकड़े तथा प्रतिव्यक्ति आय दिये गये हैं।

दूसरे कॉलम में प्रति 10 लाख लोगों पर कोविड टेस्ट के पॉज़िटिव केसों की संख्या दी गयी है।

तीसरे से छठे कॉलमों में स्वास्थ्य व्यवस्था से सम्बन्धित आंकड़े हैं। तीसरे कॉलम में स्वास्थ्य पर कुल खर्च, तथा अगले कॉलम में कुल खर्च में निजी खर्चे का प्रतिशत दिया गया है।

स्वास्थ्य पर निजी खर्च से अमीर वर्गों को तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जैसे सब लोग जानते हैं कामगार लोगों के लिये बीमारी की रोकथाम पर निजी खर्च बड़ी मुसीबत का कारण होता है।

इसलिये अगर किसी देश में स्वास्थ्य पर कुल खर्च में निजी खर्च का प्रतिशत कम है तो यह दिखाता है कि वहां पर मजदूर वर्ग को रोकथाम अपेक्षाकृत आसानी से प्राप्त हो जाती है।

अगले दो कालमों प्रति 10 हजार लोगों पर डॉक्टरों व अस्पताल के बिस्तरों की संख्या दी गयी है। आखिरी कालम में प्रति व्यक्ति सालाना खर्च दिया गया है।

कुछ चुनिंदा देशों में कोरोना, स्वास्थ्य व्यवस्था और प्रति व्यक्ति आमदनी

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स्रोत: Worldomenter, WHO, तथा UNDP HDR 2019.

क्यूबा में दस गुना कम खर्च इलाज़ पर

तालिका के पहले कॉलम से पता चलता है कि अमरीका में 10 लाख की आबादी पर कोरोना के लगभग 13000 केस हैं।जापान और क्यूबा से यह 50 गुना अधिक है।

जबकि रूस व जर्मनी में इससे आधे व एक चौथाई से भी कम कोरोना है। अगला कॉलम दिखाता है कि अमरीका में स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रति व्यक्ति 10,000 डॉलर (7.5 लाख रुपये) से अधिक खर्च किया जाता है, जबकि जर्मनी व जापान में इससे आधा और क्यूबा में 10 गुना कम।

लेकिन कम खर्च करने के बावजूद इन तीनों देशों में अपेक्षित जीवन काल अमरीका से अधिक है, और यहां के लोग कोरोना से अधिक सुरक्षित हैं।

अमरीका में स्वास्थ्य पर व्यय का बड़ा भाग अस्पतालों, प्रयोगशालाओं व डॉक्टरों की फ़ीस पर जाता है।इसलिये कुल खर्च कम करके भी ये तीन देश अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य प्रदान करते हैं।

इन चारों देशों में स्वास्थ्य पर व्यय के स्रोतों में भी बड़ा भेद है। क्युबा में 90 प्रतिशत से अधिक खर्च राज्य करता है, जबकि अमरीका में सिर्फ आधा।

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अमरीका के एक अस्पताल में थका हुआ स्वास्थ्य कर्मी

भारत से 10 गुना कम आबादी वाले वियतनाम की सफलता की कहानी

जर्मनी व जापान अमरीका की ही तरह विकसित देश हैं, लेकिन स्वास्थ पर निजी व्यय का प्रतिशत यहां पर अमरीका से तीन गुना कम है।

भारत व अमरीका की स्वास्थय व्यवस्था सबसे अधिक निजीकृत है। इसके साथ देखें कि सम्पन्न देशों में अमरीका, तथा मध्यम आय के तीन देशों में भारत में स्वास्थ्य के आंकड़े न्यूनतम हैं।

भारत और वियतनाम की तुलना से महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। वियतनाम की प्रति व्यक्ति आय भारत से 10 प्रतिशत कम है।

लेकिन वहां पर प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर व्यय भारत से दो गुना है, और वहां की सरकार कुल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का तीन गुना अधिक प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करती है।

इसका फल स्वास्थ्य के नतीजों में देखा जा सकता है। एक औसत वियतनामी का अपेक्षित जीवन काल एक भारतीय से आठ वर्ष अधिक है। वियतनाम व अमरीका की तुलना से भी महत्वपूर्ण सूचना मिलती है।

वियतनाम स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति अमरीका से 70 गुना कम खर्च करता है। लेकिन प्रति व्यक्ति अस्पताल के बिस्तरों की संख्या यहां 10 प्रतिशत अधिक है।यानि रोगियों को वियतनाम में बेसिक संस्थागत सहायता बेह्तर मिल पाती है।

स्वास्थ्य सेवायें: सामाजिक दायित्व या खरीद-फ़रोख्त का जाल?

अमरीका व क्यूबा की स्वास्थ्य सेवाओं का चरित्र एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत है।इसलिये स्वास्थ्य व्यवस्था के प्रभाव को जानने के लिये इनकी तुलना से बेहतर कोई उदाहरण नहीं है।

क्यूबा की स्वास्थ्य व्यवस्था समुदाय आधारित सार्वजनिक व्यवस्था है जो सभी नागरिकों को मुफ़्त तथा बराबर सेवायें प्रदान कराती है। स्वास्थ्य सेवाओं के लिये कोई पैसे नहीं देने पड़ते।स्वास्थ्य व्यवस्था सरकारी तंत्र का हिस्सा है।

इसलि ये यहां की कम्युनिस्ट पार्टी की समाजवादी विचारधारा तथा सामाजिक आधार का इसपर बड़ा प्रभाव है।

अमरीका में हर सेवा का दाम है। बीमा व दवाइयों की निजी कंपनियों बड़े अस्पतालों व विशिष्ट डॉक्टरों का यहां बोलबाला है।इसके कारण हर सेवा दुनिया में सबसे महंगी है।

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हवाना, क्यूबा का एक सामुदायिक क्लीनिक। पीछे चे ग्वेरा का चित्र

भारत की तरह ही क्यूबा एक मध्यम आय का देश है। इसकी प्रति व्यक्ति आय भारत से करीब 20% अधिक है।लेकिन यहां के नागरिकों की गिनती दुनिया भर में सबसे स्वस्थ लोगों में होती है।

जैसे तालिका में दिखता है, अपेक्षित जीवन काल अमरीका से भी ज्यादा है।स्वास्थ्य को क्यूबा के संविधान में एक मौलिक अधिकार माना गया है।

स्वास्थ्य व्यवस्था को चेग्वेरा की समानतावादी व मानवतावादी विचारधारा के अनुरूप बनाया गया है।स्वास्थ्य सेवा को लेन देन नहीं बल्कि बीमार व्यक्ति के प्रति समाज का दायित्व समझा जाता है।

क्यूबा की मेडिकल व्यवस्था सबसे अच्छी

स्वास्थ्य व्यवस्था का आधार सामुदायिक क्लीनिक हैं, जो देश के हर मोहल्ले व गांव में फैले हैं। हर क्लीनिक पर एक डॉक्टर व नर्स होते हैं जिनकी ज़िम्मेदारी 120 से 150 परिवारों का स्वास्थ्य होता है।

इन लोगों की रिहायश भी क्लीनिक के साथ होती है, ताकि ये स्थानीय समुदाय के हर सदस्य से सामाजिक सम्बन्ध बना सकें, और 24 घंटे सेवा प्रदान कर सकें।

ये लोग सुबह क्लीनिक में रहते हैं, तथा दोपहर बाद घरों का दौरा करते हैं ताकि स्थानीय समुदाय के हर सदस्य के स्वास्थ्य पर नज़र रखी जा सके। इस प्रकार बीमार को डॉक्टर का पीछा नहीं करना पड़ता, बल्कि डॉक्टर बिना पूछे सबके स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं।

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इटली एयरपोर्ट पर क्यूबा के डॉक्टर और नर्स

प्रति दस हजार लोगों पर क्यूबा में दुनिया में सबसे अधिक डॉक्टर हैं। यह संख्या विकसित देशों से भी दोगुनी है।यह एक सोची समझी नीति का फल है। बाहर से आयातित महंगी मशीनों की बजाय मानव संसाधन विकसित करने पर ज़ोर है।

क्यूबा की स्वास्थ्य व्यवस्था में बीमारी होने से पहले के बचाव को प्राथमिकता दी जाती है। क्योंकि हर नागरिक के स्वास्थ्य की जानकारी सामुदायिक डॉक्टरों को होती है, इसलिये किसी भी महामारी के संभावित पीड़ितों को बचाने की तैयारी की जा सकती है।

लोगों में स्वास्थ्य व्यवस्था में विश्वास है, उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी है, तथा वे सार्वजनिक चेतावनियों का पालन करते हैं।इसलिये आपदाओं का स्वास्थ्य व्यवस्था बखूबी सामना करती है।

क्यूबा में टीबी, डेंगू, मलेरिया नहीं

हर साल आने वाले चक्रवाती तूफानों के स्वास्थ्य संकटों तथा एड्स व डेंगू जैसी महामारियों से क्यूबा की जनता की रक्षा करने में यह व्यवस्था काफी सफल रही है।

टीबी, मलेरिया, डिफ्थीरिया आदि गरीबी की बीमारियों का उन्मूलन कर दिया गया है। दुनिया में जहां भी आपदा आती है, क्यूबा स्वास्थ्य सहायता तथा अपने डॉक्टरों के दल भेजने के लिये तत्पर रहता है।

पाकिस्तान का 2005 का भूचाल हो, 2016 में पश्चिमी अफ्रीका में इबोला वायरस की महामारी हो, या 2020 में विकसित इटली में कोरोना महामारी, इन सभी आपदाओं में क्यूबा की स्वास्थ्य व्यवस्था व डॉक्टरों ने पीड़ितों की सेवा की है।

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इटली में क्यूबा के डाक्टरों का दल

अमरीका में क्यूबा से भी कम बिस्तर

अमरीका की स्वास्थ्य व्यवस्था उपभोक्तावादी प्रणाली पर चलती है। हर टेस्ट, डॉक्टरी सलाह, अस्पताल की सेवा का दाम होता है, तथा पैसे अदा करके प्राप्त की जाती है।

इस प्रकार स्वास्थ्य सेवा के साथ लेन देन का भाव जुड़़ा रहता है, जिसका प्रभाव सेवा देने वालों व लेने वाले दोनों के व्यवहार पर पड़ता है।

सबसे गंभीर स्थितियों के लिये, जैसे वृद्धों की बीमारी, विकलांगों, गरीब बच्चों तथा गर्भवती महिलाओं के लिये सरकार आर्थिक सहायता देती है।

अधिकतर लोग निजी बीमे पर निर्भर रहते हैं, जो अधिकतर उनकी नौकरी से जुड़़ा होता है। स्वास्थय पर कुल खर्चे का 50% सरकार करती है, लेकिन इस पैसे से मिलने वाली सेवाओं को भी निजी कम्पनियां प्रदान करती हैं।

व्यवस्था के कारोबारी तर्क के कारण सेवाओं की लागत को कम तथा दाम बढ़ाने की कोशिश होती रहती है।

उदाहरण के लिये प्रति दस हजार लोगों पर अस्पताल के बिस्तरों की संख्या वियतनाम व क्यूबा से भी कम है। बीमारी होने पर ही व्यवस्था हरकत में आती है। इसलिये बीमारियों से बचाव पर इतना जोर नहीं दिया जाता।

ऊपर से लगता है जै सेअमरीका की व्यवस्था लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं के चुनाव की स्वतंत्रता देती है, लेकिन वास्तव में यह समाज की आर्थिक, नस्लीय व क्षेत्रीयअसमानताओं को ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में पैदा करती है।सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2018 में ढाई करोड़ अमरीकियों के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं था।

ये सबसे ग़रीब लोग जिन्हें स्वास्थ्य सेवाओं की सबसे अधिक ज़रूरत होती है, वे ही इनसे वंचित हैं।

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हर महामारी में अमेरिका में तबाही

बीमा कम्पनियों की लालफ़ीताशाही से व्यवस्था में आंतरिक घर्षण है। आपदाओं के समय में यह एकदम फेल हो जाती है।

सन 2005 में लुसियाना में जब केटरीना तूफ़ान आया था तो लाखों पीड़ित अश्वेत नागरिक कई सप्ताह प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित रहे थे।

कोरोना महामारी के दौरान करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गये हैं जिससे उनका स्वास्थ्य बीमा खत्म हो गया है तथा वे बीमार होने पर भी अस्पताल जाने से कतरा रहे हैं।

क्योंकि स्वास्थ्य व्यवस्था सबको अपने अपने हाल पर छोड़ देती है, लोगों में स्वास्थ्य के प्रति कम जागरूकता विकसित होती है।महामारी के दौरान भी लोग नाज़ुक स्थिति होने पर ही अस्पताल जा रहे हैंं।

बैक्टीरिया या वायरस से फैलने वाली बीमारियां, उनका ईलाज व वैक्सीन जीव विज्ञान के नियमों द्वारा निर्धारित होते हैं जो हर जगह एक समान हैं।

स्वास्थ्य व्यवस्था लेकिन समाज द्वारा बनायी जाती है। भिन्न देशों में इसकी संरचना और खर्च अलग अलग हैं।

स्पष्ट है मज़दूर वर्ग की समाजवादी स्वास्थ्य व्यवस्था अमरीका की पूंजीवादी व्यवस्था से कहीं बेहतर है।

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‘आयुषमान भारत’ मेडिकल व्यवस्था को बेच डालने की शुरुआत

भारत में मोदी सरकार अमरीका की तरह स्वास्थ्य व्यवस्था के निजीकरण पर तुली हुई है।

आयुषमान भारत जैसे कार्यक्रम प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा पर नहीं बल्कि स्वास्थ्य के बीमाकरण को बढावा देते हैं जिससे अन्तत: बीमा कंपनियों और प्राइवेट अस्पतालों को ही फ़ायदा मिलता है।

कोरोना का इलाज मिलने के बाद बहुत संभव है कि हर देश की स्वास्थ्य व्यवस्था सामान्य स्थिति में चली जायेगी।लेकिन इस सामान्य स्थिति में ही हम देखते हैं कि हर साल 15 लाख लोग टीबी से मरते हैं, और 4 लाख लोग मलेरिया से।हर वर्ष तीन लाख महिलायें प्रसव के दौरान मरती हैं।

अकेले भारत में प्रतिदिन 100 महिलायें प्रसव के दौरान मरती हैं।

इन लोगों में से अधिकतर का जीवन बचाया जा सकता है अगर मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्थायें पैसा, नस्ल, लिंग व जाति के आधार पर भेदभाव न करें, और  क्यूबा की व्यवस्था की तरह इन्सानों की ज़रूरतों पर आधारित हों। न कि पूंजीवादी मुनाफ़े पर।

(संजय कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफ़ेंस क़ॉलेज में फ़िजिक्स पढ़ाते हैं।)

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