यूरोप में हफ्ते में चार दिन काम की मांग, भारत में 12 घंटे ड्यूटी नॉर्मल बात बन गई है

रिपोर्टः वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे

अगर आप भारत जैसे एशियाई देश के बाशिंदे हैं तो शायद ये बात कल्पना लगे, लेकिन यूरोप में ट्रेड यूनियनें इस बात का दबाव बना रही हैं कि कार्पोरेट घरानों को अपने अकूत मुनाफे को वर्करों के साथ साझा करना चाहिए और हफ्ते में काम के 28 घंटे कर देने चाहिए यानी चार दिन।

उनका तर्क है कि तकनीक ने अब उत्पादन और मुनाफ़े को इस स्तर पर ला दिया है कि 21वीं सदी में ये संभव हो गया है।

इस साल के शुरू में जर्मनी में हफ़्ते में 28 घंटे काम करने की ट्रेड यूनियनों की माँग मानी गई थी।

10 सितम्बर को ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कॉन्ग्रेस (टीयूसी) के सालाना जलसे में हफ़्ते में चार दिन काम और ज़्यादा वेतन की माँग का प्रस्ताव रखा गया है।

जर्मनी के मसले में यह तय हुआ है कि 28 घंटे की सुविधा कोई भी कर्मचारी दो साल के लिए उठा सकता है, फिर वह सामान्य 35 घंटे हर हफ़्ते के हिसाब पर आ जाएगा।

वहाँ कुछ कंपनियों में छह दिन काम का नियम भी है।

ब्रिटिश ट्रेड यूनियनों का कहना है कि आधुनिक तकनीक से हफ़्ते में चार दिन का काम का हिसाब लागू करना मुश्किल नहीं है।

इससे बेरोज़गारी कम करने में भी मदद मिल सकती है।

फ़्रांस में अलग-अलग सेक्टरों में विभिन्न मसलों पर लगातार कर्मचारियों के आंदोलन चल रहे हैं  दूसरी तरफ़, दुनिया में कथित रूप से सबसे ज़्यादा दर से आर्थिक विकास कर रहे हमारे देश में श्रम क़ानूनों को कुछ दहाईयों से लगातार कमज़ोर किया जा रहा है.

जिस विचारधारा का केंद्र और ज़्यादातर राज्यों में सरकारें हैं, उसी विचारधारा से जुड़े मज़दूर संगठन का दावा है कि वह देश का सबसे बड़ा संगठन है.

यह भी अजीब है कि इस संगठन को कभी गंभीरता से कर्मचारियों के पक्ष में आवाज़ उठाते नहीं देखा गया है.

 बीबीसी की रिपोर्टर रेबेका वीयर्न की रिपोर्ट

ब्रिटेन की ट्रेड यूनियन कॉंग्रेस ने अपने सालाना सम्मेलन में एक प्रस्ताव के मार्फत ब्रिटिश सरकार से इस बारे में कार्यवाही करने की अपील की है।

इससे बेरोज़गारी पर लगाम लगाया जा सकेगा।

आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स और ऑटोमेशन अगले एक दशक में ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में 200 अरब पाउंड यानी क़रीब एक लाख चार हज़ार करोड़ रुपये मुहैया करा सकता है।

यहां तक कि वेल्श की एक फ़र्म अपने कर्मचारियों को हफ्ते में चार दिन के काम का पूरा पैसा देती है।

विशेषज्ञों का कहना है कि हम ऐसे युग में रह रहे हैं जहां ये मौका है कि हम ये साबित कर सकें कि उत्पादन के मामले में चार दिन भी उतना ही प्रोडक्टिव हो सकता है जितना पांच दिन का कार्यदिवस।

ट्रेड यूनियन कांग्रेस का कहना है कि ब्रिटेन में अभी भी 14 लाख कर्मचारी हैं जो हफ्ते के पूरे सातों दिन काम करते हैं और उनकी ओर से किए गए सर्वे में 51 प्रतिशत लोगों ने इस बात की आशंका जताई कि नई तकनीक से होने वाले मुनाफ़े का बड़ा हिस्सा कंपनी के मैनेजरों और शेयरधारकों की जेब में चला जाएगा।

सेंटर फॉर सिटीज़ की जनवरी में आई रिपोर्ट के अनुसार, 2030 तक तकनीक क़रीब 36 लाख नौकरियों को ख़त्म कर देगी।

ट्रेड यूनियन कांग्रेस के महासचिव फ़्रांसिस ओ ग्रैडी के अनुसार, यूनियनों ने सप्ताह में दो छुट्टियों और काम के लंबे घंटों को सीमित करने की लड़ाई जीती है और अब ये उनकी अगली चुनौती है।

वो कहती हैं कि बहुत से लोग इस बारे में बहुत नकारात्मक हैं कि तकनीक उनके जीवन को बेहतर बना सकती है लेकिन टेक्नोलॉजी अच्छी भी साबित हो सकती है। हम हरेक की कामकाजी जिंदगी को बेहतर और समृद्ध कर सकते है।

कम्युनिकेशन एंड वर्कर्स यूनियन ने इस लड़ाई की शुरूआत की है। उनकी मांग की है कि ऑटोमेशन से होने वाले फायदे को सभी में साझा किया जाए।

जब डाक विभाग ने चिट्ठियां छांटने की आटोमेटिक मशीनों में निवेश किया तो कर्मचारियों का समय बचा और विभाग ने इसकी जगह कर्मचारियों से दूसरे काम लेना शुरू कर दिया।

इसी तरह मैन्युफैक्चरिंग में अधिक से अधिक ऑटोमेशन हो रहा है।

 

भारत की स्थिति

भारत में बड़े पैमाने की मैन्युफैक्चरिंग में ऑटोमेशन की बड़े पैमाने पर आंधी चल रही है और उसकी वजह है कि महंगी होने के बावजूद इन्हें चलाने के लिए कुशल वर्करों की ज़रूरत ख़त्म हो गई है। वो अकुशल मज़दूर से भी इस काम को करा सकते हैं। इसलिए परमानेंट वर्कर रखने से भी मुक्ति का ये नुस्खा बन गया है।

लेकिन ऑटोमेशन टेक्नोलॉजी इतनी महंगी है कि लघु उद्योग इसे वहन नहीं कर पाते हैं इसलिए अभी भी पुरानी और तकनीकी रूप से कम दक्ष मशीनों से ही काम चला रहे हैं।

श्रम क़ानूनों को इतना सरल बनाया जा रहा है कि पूंजी के एक महत्वपूर्ण हिस्से श्रम को पूंजी के हवाले पूरी तरह छोड़ दिया गया है।

एक्सपोर्ट गार्मेंट इंडस्ट्री में तो वर्करों से 36-36 घंटे काम लिया जाता है।

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