जेल की बैरकों जैसे वर्कर हॉस्टल, महिला हॉस्टल में 8 बजे के बाद जड़ दिया जाता है ताला

By खुशबू सिंह

पूंजीवाद अब जहां पहुंच गया है, वहां उसके शब्दकोश से मज़दूर रिहाईश का शब्द लगभग ग़ायब हो चुका है।

हालांकि पहले भी नहीं था और सिर्फ नाममात्र के लिए उद्योगों के समानांतर मज़दूरों की रिहाईश बनाने की कोशिशें हुईं, जिनमें जमशेदपुर में टाटा ग्रुप का नाम लिया जा सकता है।

लेकिन देश में 30 साल पहले शुरू हुए नव उदारीकरण के बाद से रिहाईश की ज़िम्मेदारी भी मज़दूरों पर डालनी शुरू कर दी गई।

अब तो इसके बारे में सरकारों ने चिंतित होना छोड़ दिया है। लेकिन नए पूंजीवादी मॉडल में कुछ नमूने पेश किए गए और इन्हीं में से है राजस्थान के नीमराना औद्योगिक क्षेत्र में वर्कर हॉस्टल।

दिल्ली जयपुर नेशनल हाईवे-8 पर दिल्ली से क़रीब सवा सौ किमी दूर राजस्थान के नीमराना में स्पेशनल इकोनॉमिक ज़ोन बनाए गए हैं। इन्हीं में से एक है जापानी ज़ोन जहां अधिकांश जापानी कंपनियां उत्पादन में लगी हुई हैं।

औद्योगिक क्षेत्र के बीचों बीच बहुमंजिली इमारतें मज़दूर, कंपनी के स्टाफ़, मैनेजरों और अधिकारियों के रहने के लिए बनाई गई हैं।

रिपोर्टर्स ऑन व्हील अभियान के तहत नीमराना पहुंची वर्कर्स यूनिटी टीम को मज़दूरों ने बताया कि एनएच-8 के उत्तर तरफ़ इस तरह की इमारतों का पूरा नेटवर्क खड़ा किया गया है।

वहां पर रह रहे मज़दूरों से बातचीत से पता चला कि मज़दूरों के लिए अलग क्वार्टर्स बनाए गए हैं, कंपनी स्टाफ़ के लिए अलग। मज़दूरों के लिए 10×15 के एक कमरे का सेटअप, जिसमें चार से छह मज़दूर रहते हैं।

पार्क है लेकिन वीरान पड़ा हुआ

आम तौर पर मज़दूरों की रिहाईश वाली इमारतें 4 फ्लोर की हैं। इनमें लिफ्ट भी लगी है पर बंद है, मज़दूरों को इस्तेमाल करने की इज़ाजत नहीं है। हालांकि ऐसा नहीं है कि लिफ़्ट चलती नहीं है।

लेकिन इसे तभी खोला जाता है जब फ्लैट का मालिक आता है। इन्हीं में से कुछ ब्लॉक महिला मज़दूरों के लिए हैं जहां आठ बजे रात के बाद गेट पर ताला लग जाता है।

बिल्डिंग के सामने फुटबॉल ग्राउंड इतना पार्क भी नज़र आता है। लेकिन पार्क में वीरानी छाई है क्योंकि कंटीली झाड़ियां उगी हुई हैं, पूरे पार्क में पत्थर बिखरे हुए हैं।

इसी बिल्डिंग में रह रहे एक मज़दूर ने कहा, “पार्क में गंदगी का अंबार है। बिल्डिंग का गंदा पानी भी पार्क में छोड़ा जाता है। प्रबंधन की साज़िश है ताकि मज़दूरों को सामाजिक जीवन से अलग रखा जा सके।”

इस इलाके में काम करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना था, “प्रबंधन को डर है। यदि मज़दूर इकट्ठा होंगे तो कंपनियों में मज़दूरों के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ चर्चा होगी, मज़दूर एक हो जाएंगे। मज़दूरों को एक – दूसरे से दूर रखा जा सके इसलिए तरह – तरह की तरकीब अपनाई जाती है।”

यही नहीं बिल्डिंग में रह रहे मज़दूरों को एक साथ गुट बनाकर नीचे खड़े रहने की इज़ाजत भी नहीं है।

मज़दूरों की बस्ती

बिल्डिंग में प्रवेश करते ही गंदगी का अंबार शुरू हो जाता है। इसकी सफाई तभी होती है जब कोई अधिकारी कंपनी की तरफ से आने वाला होता है।

बिल्डिंग के हर फ्लोर पर कचरे का ढेर नज़र आता है। इसी बिल्डिंग में रहने वाले शुभम कुमार बताते हैं कि सफाई हफ्ते में केवल एक बार ही होती है।

इन इमारतों में कई ब्लॉक हैं और हर ब्लॉक में क़रीब 70 कमरे हैं। एक कमरे में चार से अधिक लोगों को रहने की इज़ाजत नहीं है। कमरे के किराए की शुरुवात 3500 से होती है।

लेकिन आम तौर पर हर कमरे में चार लोग रहते हैं और इस तरह एक मज़दूर को क़रीब हज़ार रुपये किराया पड़ता है।

विशेष औद्योगिक क्षेत्रों में इस तरह के रिहाईश का इंतज़ाम इसलिए किया गया है कि कंपनी को जब ज़रूरत हो मज़दूरों को फैक्ट्री बुला सके।

स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता ने बताया कि हर ठेकेदार को पता है कि उसके साथ काम करने वाले कितने मज़दूर किस किस कमरे में रहते हैं। इस तरह मज़दूरों की 24 घंटे उपलब्धता सुनिश्चित हो जाती है।

हालांकि हरियाणा में गुड़गांव से धारूहेड़ा तक पूंजीपतियों की सरकारों ने इतनी भी जहमत नहीं उठाई है। आईएमटी मानेसर बड़ा औद्योगिक क्षेत्र है लेकिन वहां मज़दूर आस पास के गांवों में रहते हैं। जहां बिल्डिंगें भी हैं और खाली प्लॉट पर झुग्गियां भी हैं।

गुड़़गांव और धारूहेड़ा का एक जैसा हाला है। लेकिन नीमराना के बाद जब हम जयपुर पहुंचते हैं तो वहां मज़दूरों के लिए बन रही स्काई स्क्रैपर टाइप की बहुमंजिली इमारतें देख हैरानी होती है।

जयपुर के प्रताप नगर में पिछले डेढ़ दशक से 3000 फ्लैटों वाली बहुमंजिली इमारतों का क्लस्टर अब अपने अंतिम चरण में पहुंच गया है।


मज़दूरों के आवास का सवाल

सत्तर साल की आज़ादी का जश्न मना रहे इस देश में अव्वल तो मज़दूरों की रिहाईश को लेकर सिर्फ ज़बानी जमा ख़र्च ही हुए लेकिन जो आवास बनाए गए वो भी उद्योगपतियों के मुनाफ़ा मुताबिक ही बनाए गए।

ट्रेड यूनियनों के संघर्षों में भी मज़दूरों के आवास को लेकर कभी गंभीरता नहीं रही और ना ही इसको लेकर कोई ठोस मांग की गई।

अब हालात ये हैं कि ट्रेड यूनियन आंदोलन अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। 95 प्रतिशत नौकरियां असंगठित क्षेत्र में हैं जिनका कोई नामलेवा नहीं।

दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में तो अधिकांश मज़दूर झुग्गी झोपड़ियों में रह रहे हैं और इनकी संख्या हज़ारों लाखों में नहीं बल्कि करोड़ों में है।

मोदी के नेतृत्व में बेलगाम हुआ पूंजीवाद अब इन मज़दूरों को झुग्गियों से भी भगाने पर अमादा है क्योंकि अब उसे इन मज़दूरों की ज़रूरत नहीं। इसीलिए झुग्गियां तोड़ने में तेज़ी आई है।

ट्रेड यूनियनें पांच प्रतिशत मज़दूरों का प्रतिनिधित्व करती हैं और वे भी ऐसे परमानेंट मज़दूर हैं जिन्होंने मौजूदा व्यवस्था से समझौता कर लिया है।

ऐसे में जो भी नया मज़दूर वर्ग का आंदोलन उभरेगा, उसके सामने मज़दूरों के आवास की समस्या एक महत्वपूर्ण मांग बनेगी।

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