मेहनती लोगों के दुःख दर्द से दूर धन्ना सेठों को खुश करता बजट

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By रवींद्र गोयल

किसी भी देश का बजट आने वाले साल के सरकारी आमदनी/ खर्चे का  आकलन और सरकारी मंशाओं का एक ब्यौरा होता है। दिमागी गुलाम भगतों  या मूर्खों की बात छोड़ दी जाये तो समाज का हर तबका  बजट को इस नज़र से देखता है कि उसकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए या उसकी ज्वलंत समस्याओं के हल के लिए  बजट में क्या किया जाना चाहिए था और क्या किया गया है।

बजट पर  मेहनत करने वाले लोगों के नज़रिए से बात  रखने के  पहले,  जानकारी के लिए, इस साल सरकार बजट में कुल 45 लाख करोड़ रुपये खर्च करेगी।

यदि देश की आबादी  130 करोड़ मानें  तो प्रतिव्यक्ति 34/35 हज़ार  रूपया खर्च होगा। औसत 5 आदमी का परिवार मानें तो 26 करोड़ परिवारों पर यह राशी पौने दो लाख रूपया प्रति परिवार के हिसाब  से खर्च होगी ।

यह भी मानलिया जाये कि इस राशी  का आधा पैसा देश को चलाने के काम काज  में खर्च होता होगा तो भी प्रति परिवार शेष 85000 रुपये कि  राशी बाँट दी जाये तो लोगों की ज़िन्दगी में बहुत फर्क पड़ सकता है। लेकिन वर्तमान सरकार को इसकी चिंता हो तब न।

देश के मेहनती मजदूर या किसान और गरीब और माध्यम वर्ग के निचले तबके के लोग  उम्मीद कर रहे थे कि बजट में उनकी कमाई या नौकरी, दवाई, पढाई और रोजाना की ज़िन्दगी को बेहतर  बनाने के लिए कुछ कदम उठाये जायेंगे।

आइये एक एक कर के सरकारी बयानों को मेहनती तबकों की उम्मीदों की रोशनी में देखा जाये।

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किसानों को क्या मिला ?

संयुक्त किसान मोर्चा ने याद दिलाया है  कि सरकार के  वादे के अनुसार किसानों की जो औसत प्रति परिवार आय वर्ष 2016  में  8000  रुपये प्रतिमाह थी वो  2022 में  बढ़कर  21000  रुपये  प्रतिमाह हो जाना चाहिए थी। पर आज भी यह आय केवल 12400 रुपये प्रति परिवार प्रतिमाह (अनुमानित) है।

13000  रुपये सालाना  की लक्षित वृद्धि में से केवल 4400 रुपये कि वृद्धि हासिल हो पाई है। किसानों के साथ बाकि 8600 रुपये का सालाना धोखा क्यों हुआ ?

किसान उम्मीद कर रहे थे कि सरकार बताएगी कि  इस घटत का क्या कारण है और इस वादे को पूरा करने के लिए सरकार क्या कर रही है। लेकिन इस मामले में सरकार  बेईमानी उजागर न हो इसलिए सरकार ने  इस पर कोई जानकारी ही  नहीं दी  है।

केंद्रीय बजट किसानों की आय को दोगुना करने पर मौन है।

आज जब देश की करीबन आधी आबादी, यानि करीबन 13 करोड़ परिवार,  खेती पर निर्भर है तो सरकार ने खेती और ग्रामीण विकास पर केवल  3.82 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का प्रावधान किया है।

यानि बजट के कुल अनुमानित 45 लाख करोड़ के खर्चे का केवल करीबन 8 प्रतिशत या केवल 30000 रुपये प्रति किसान परिवार।

तुलनात्मक रूप से किसानों की हिस्सेदारी कम से कम 85000 रुपये प्रति परिवार बनती है (देखें पैरा 2 ऊपर)  आधी किसान आबादी की के लिए देश के बजट का  इतना कम हिस्सा  किसानो के साथ धोखा न कहा जाए तो क्या कहा जाये।

आज खेती में लगे किसानों और मजदूरों  की आमदनी में बढ़ा करके ही, खेती में गतिशीलता ला करके ही जन कल्याण कारी विकास के बंद दरवाज़े खोले जा सकते हैं।

इसके लिए जरूरी है कि सरकार कम से कम खेती में कम से कम 10  लाख करोड़ रूपया  (जो किसानों का  देश के बजट में  तुलनात्मक हिस्सा बनता है) पैसा आवंटित करे,  स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर अमल करे।

खेती की उत्पादकता बढाने के लिए  भारी पैमाने पर  कृषि शोध में निवेश करे। सिंचाई सुविधाओं और वो जमीन जिस पर केवल एक फसल होती है को दो फसल उत्पादित करने लायक बनाने पर निवेश करे। पर ये सब इस जनविरोधी सरकार की चिंता के विषय नहीं हैं।

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बेरोज़गारी से निपटने के लिए क्या किया

दूसरे नंबर पर बेरोज़गारी इस देश के बड़े तबके की समस्या है। लेकिन इसके बारे में भी सरकार चिंतित नहीं है।

सरकार महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा), जो ग्रामीण श्रमिकों को महत्त्वपूर्ण आय समर्थन प्रदान करती है, के लिए आवंटन को जबर्दस्त रूप से कम कर रही है।

2022 में, मनरेगा के लिए बजट आवंटन 73000 करोड़ रुपये था, लेकिन ग्रामीण बेरोजगारी और बढ़ती मांग के सामने सरकार को मजबूरन 90000  करोड़ रुपये खर्च करना पड़ा था।

आज  जब सामान्य अर्थव्यवस्था और विशेष रूप से ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है, यह अकल्पनीय है कि सरकार ने मनरेगा के आवंटन में  30000 करोड़  रुपये कि कटौती करके 600000 करोड़ रुपये कर दिया है।

हिंदुस्तान के गाँवों में रह रहे  करोड़ों लोग अपने रोजगार के लिए जिस मनरेगा योजना पर निर्भर है, उसके लिए आवंटित राशि, बढती महंगाई और लचर विकास के बावजूद, कम करके सरकार ने आम लोगों के साथ दूसरा बड़ा धोखा किया है।

शेहरी बेरोज़गारी में कटौती करने के लिए  तो बजट में कोई घोषणा ही नहीं है।

यहाँ यह भी याद दिलाना उचित होगा कि सरकार अपने भिन्न भिन्न महकमों में 10 लाख से ज्यादा खाली पदों को भरने में आना कानी कर रही है।

खेती का नकार और बेरोज़गारी में मदद के लिए मनरेगा के आवंटन में कटौती का एक ही उद्देश्य दिखता है कि  गाँवों से शहरों की ओर पलायन बढे। मोदी जी के दोस्त  उद्योगपतियों को सस्ते  सस्ते मजदूर मिले।

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अन्य मेहनती लोगों के लिए क्या किया ?

बढती महंगाई और पेट्रोल डीजल या अन्य जरूरत के सामानों पर GST टैक्स के भारी टैक्स के बोझ  की मार से जूझ रहे अन्य मेहनतकश तबके – मजदूर, निम्न मध्यमवर्गीय नौकरी पेशा या छोटे दूकानदार- भी उम्मीद कर रहे थे की सरकार उनके जीवन को आसान बनाने के लिए  उनपर टैक्स के बोझ को कम करेगी, उनकी जेब में कुछ पैसा बढ़ाएगी और उनको सरकारी खर्चे पर प्रदान की जाने वाली सुविधाओं में बढ़ोत्तरी करेगी।

पर यहाँ भी सरकार ने उनको धोखा ही दिया है। न केवल गरीब आदमी को टैक्स में किसी भी रूप में कोई रियायत दी है बल्कि सरकार  द्वारा दी जाने वाली विभिन्न सुविधाओं में भी कोई बढ़त नहीं की गयी है।

आम  लोगों के लिये  शिक्षा में केवल 1 लाख 13 हज़ार करोड़ रुपये और स्वास्थ्य के लिए केवल 89 हज़ार करोड़ रुपये दिए गए हैं। इतनी कम राशी इन दोनों विकराल समस्याओं के लिए बिलकुल नकाफी साबित होंगे। कई जगह तो आवंटित राशी को कम ही किया गया है।

जब भारत में भूख कि समस्या विकराल रूप लिए हुए है खाद्य सब्सिडी में 90 हज़ार  करोड़ रुपये कि कमी की गई है। वैश्विक भूख सूचकांक भारत को 121 देशों में से 107वें स्थान पर रखता है।

एक विशाल बहुमत के पास पौष्टिक भोजन की पहुंच नहीं है।  भूख संकट को दूर करने के लिए बजट को एक गंभीर क्षण होना चाहिए था, फिर भी हम खाद्य सब्सिडी भारी कटौती देखते हैं।

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तो फिर सरकार किस पर मेहरबान है

उपरोक्त से साफ़ है कि बजट आम मेहनती लोगों की समस्याओं को हल करने की  बजाये  लोगों की बदहाली को ही बढ़ाएगा । तो फिर सवाल उठता है कि ये बजट किसके लिए है।

सच कहें तो  इस बजट में  सारा फायदा मोदी प्रिय  बड़े उद्योगपति  और उच्च मध्यम वर्ग को ही दिया गया है।

बजट में वर्णित नया आयकर ढांचा कहने को तो कम आय वालों को आयकर में कुछ छूट देता  है पर वास्तव में वह उच्च आय वर्ग द्वारा दिए जाने वाले आय कर कि दर में ही भारी  कटौती करता है।

छूट के  हिसाब को बरीकी से देखने से पता चलता है कि आयकर  के दर में कमी से   5 करोड़ रपये  सालाना से ऊपर कमाने  वालों को  20 लाख रूपया सालाना से ऊपर का इनकम टैक्स में फायदा होगा।

शायद यही कारण है की सरकार तो क्या  विपक्ष के नेता भी बजट के इस पहलु के बारे में  जोर से नहीं बोल रहे हैं।

बजट में एक और दावा जोर शोर से किया गया है कि13 लाख 70 हज़ार करोड़ रुपये देश  के विकास के लिए नयी संपत्ति बनाने के लिए खर्च किया जायेगा।

लेकिन ये पैसा आम लोगों कि जरूरत कि संपत्ति  जैसे सिंचाई, खेती में उत्पादकता बढाने  के लिए शोध कार्यों या स्कूल या हस्पताल या पुस्तकालय आदि  बनाने के लिए नहीं खर्च किया जायेगा।

यह पैसे हवाई अड्डे , सड़क निर्माण ( ग्रामीण सड़क नहीं राष्ट्रीय राज मार्ग, जिस पर कारों के मालिक फर्राटे से चल सकें ) आदि पर खर्च किया जायगा। इसका फायदा धनी तबकों को ही होगा।गरीब मेहनती लोगों को तो नुक्सान ही होता है।

देश में जगह जगह बिना उचित पैसे दिए आधारभूत योजनाओं या विकास के नामपर  ली जा रही ज़मीनों पर किसान/ नागरिक गुस्सा इस नंगे सच का सबूत है।

संक्षेप मं कहा जाए तो यह बजट एक दम्भी जन विरोधी सरकार का ऐसा  चिटठा है जिससे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।

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बजट सरकारी मंशा के बारे में क्या इशारा करता है ?

एक बात और गौर की जानी  चाहिए।।  2024 में चुनाव के मद्देनज़र उम्मीद थी कि सरकार कुछ लोक लुभावन नीतियों का सहारा लेगी। लेकिन सरकारी आम जन के लिए महत्व  के मुद्दों पर जो  बेहयाई दिखाई है उससे लगता है कि अगला चुनाव सरकार लोक भलाई के मुद्दे पर नहीं बल्कि उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद और मुस्लिम विरोध की ज़हरीली  राजनीती पर लड़ना चाहती है जिसे नाकामयाब करना हर जागरूक भारतीय का जिम्मा बनता है।

हाँ हालिया अरबों रुपये की हेरा फेरी को लेकर उजागर हुआ अदानी विवाद इस योजना में रोड़ा अटका सकता है। उस हालत में सरकार लोगों के लिए कुछ रियायती घोषणा करे तो अलग बात है।

लेखक वर्कर्स यूनिटी के सलाहकार संपादकीय टीम का हिस्सा हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)https://i0.wp.com/www.workersunity.com/wp-content/uploads/2021/10/ravindra-goel.jpg?resize=200%2C200&ssl=1

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