क्या जो आज जेल में हैं वो कभी नहीं निकल पाएंगे? फासीवादी हमला-अंतिम भाग

varvar rao

By शेखर

गंभीर रूप से बीमार वरिष्ठ क्रांतिकारी कवि वरवर राव, जिनकी विश्वभर में प्रतिष्ठा है, की रिहाई में उठी मांग के ऊपर जनमानस में मचे हाहाकार के बावजूद जमानत पर भी उनकी रिहाई मिल पाने में असफलता, हम सब के मन में एक गंभीर आंतरिक हलचल पैदा कर रहा है।

क्या ऐसे प्रगतिशील, क्रांतिकारी, उदारवादी (लिबरल) और जनवादी विचारों वाले बुद्धिजीवियों, अधिवक्ताओं व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेलों में हमेशा के लिए कैद रहना होगा, वो भी बिना सुनवाई के?

सबसे प्रत्यक्ष रूप से संभव जवाब है – हां। संभवतः हां। क्योंकि उन्हें नए (संशोधित) यूएपीए कानून के अंतर्गत आरोपित किया गया है।

इसलिए उनके रिहा या बरी होने का एक ही रास्ता है, और वह यह है कि सरकार खुद ही उनका रिहा या बरी होना चाह ले और इसकी अनुमति दे दे। इसके अलावा और कोई संभव रास्ता नहीं।

इस तरह यहां से भी एक स्पष्ट संदेश आ रहा है। इस प्रकार की अमानवीय निष्ठुरता भी राजसत्ता के फासीवादी चरित्र को बयां करती है।

वरवर राव के गंभीर स्वास्थ्य संबंधित कारणों के बावजूद उनकी रिहाई के सवाल पर राज्य मशीनरी द्वारा कोई संवेदना या चिंता नहीं दिखाई गई।

शारीरिक रूप से 90 प्रतिशत विकलांग प्रोफेसर साईबाबा की रिहाई में उठी मांग का भी यही अंजाम हुआ। यहां तक कि वरवर राव को उचित गुणवत्तापूर्ण व कुशल चिकित्सा सुविधा भी जनता द्वारा मचे हाहाकार के बाद ही मुहैया कराई गई।

क़ानून की धज्जियां उड़ाना नया क़ानून

यह साफ बताता है कि पूंजीवादी राज्य का फासीवादी रूपरेखा के अनुसार नवनिर्माण हो चुका है जिसे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के जीवन की जरा भी चिंता नहीं है।

ऐसी बातें कि सुधा भारद्वाज ने एक हाई कोर्ट जज बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था, फासिस्टों पर कोई नैतिक प्रभाव नहीं डालती। और यह स्वाभाविक भी है।

बिलकुल हाल में प्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशांत भूषण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुओ मोटो (स्वतः संज्ञान लेते हुए) अवमानना (कंटेम्प्ट) का केस भी इस फासिस्ट नवनिर्माण को बेपर्दा वाला एक और खुला संदेश है।

इन परिस्थितियों में बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, जैसे प्रसिद्ध दलित बुद्धिजीवी आनंद तेलतुम्बड़े आदि, की रिहाई की उम्मीद लगभग ना के बराबर है।

राजस्थान मामला भी दिखाता है कि ‘कानून के रक्षकों’ के पास स्वयं कानून के लिए कोई सम्मान नहीं बचा है। कानून की अवहेलना ही नया कानून है।

जब पूरी मशीनरी ही नियंत्रण में है तो क्या बुर्जुआ कैंप में कोई भी इस ‘कानून की अवहेलना’ के खिलाफ लड़ेगा? यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी अपने पुराने फैसलों का सम्मान नहीं कर रही है। अदालतों में न्याय मिलना अब एक असामान्य सी घटना लगने लगी है।

लेकिन कार्यपालिका को यदा कदा होने वाली इन असामान्य घटनाओं से ज्यादा परेशानी नहीं होती है।

पूंजीवादी जनतंत्र में फासीवाद की पैठ

इनसे भी निपटने के लिए मोदी सरकार द्वारा ईजाद किया गया सबसे बेहतरीन तरीका है इन पर ध्यान ही नहीं देना, और जब यह ज्यादा परेशानी पैदा करे या ध्यान देना जरूरी हो जाए, तो न्याय का बंद लिफाफा मॉडल को अपना लेना जिसके तहत सरकार आदेश के अनुपालन की रिपोर्ट बंद लिफाफे में भेजती है और कोर्ट उसे स्वीकार कर लेता है।

बिना किसी परेशानी के ‘न्याय’ मिल जाता है। और ध्यान रहे कि यह महज कल्पना नहीं है बल्कि असलियत में हो रहा है।

साथ ही याद कीजिये, अदालतों को हमारे गृह मंत्री के द्वारा ही सुझाया गया था कि ऐसे फैसले देने की ‘गलती’ ना करें जिन्हें ‘जनता’ स्वीकार और लागू ना कर पाए।

बीते सालों में अदालतों ने सुझाव में अंतर्निहित संदेश को समझ लिया है और तय कर लिया है कि ‘गलती’ नहीं करना बेहतर है।

फासीवाद ने इस प्रकार देश में लगभग सभी चीजों पर कब्जा जमा लिया है। पूंजीवादी जनतंत्र के अधिकतर अंदरूनी ढांचे, जिन्हें जनतंत्र का स्तंभ कहा जाता है, या तो ढह चुके हैं या उनपर कब्जा कर उन्हें फासिस्टों की रूपरेखा के अनुसार ढाल दिया गया है।

कैसे रुकेगी ये गिरावट

अब केवल क्रांति ही इसे बचा सकती है। और कोई भी सच्ची क्रांति, जो असल में एक जन क्रांति हो और सर्वहारा व मेहनतकश वर्ग की अगुवाई में आगे बढ़े, केवल पूंजीवादी जनतंत्र को ही नहीं बचाएगी, बल्कि जनतंत्र को पूंजी की बेड़ियों से भी बचाएगी।

फासिस्टों को बेदखल कर उन्हें पूरी तरह ध्वस्त कर देने वाली क्रांति समाज को सभी भूतपूर्व शोषणकारी व्यवस्थाओं के पुराने अवशेषों और झाड़-झंखाड़ से भी मुक्त करेगी ताकि फासीवाद को हमेशा के लिए परास्त किया जा सके।

इससे एक बिलकुल नए युग और एक नए, सर्वहारा के अधिनायकत्व वाले, समाज का आगमन हो सकेगा। अगर समाज और उसके साथ संपूर्ण मानव जाति खुद को फासीवाद के चंगुल से छुड़ाना चाहती है तो आज नहीं तो कल, यही उसका अंतिम मुकाम होना है। (समाप्त)

(मेहनतकश वर्ग के मुद्दों के लिए समर्पित पत्रिका ‘यथार्थ’ से साभार। यह लेख बहस के लिए है और इसमें विचार लेखक के हैं। ये ज़रूरी नहीं कि वर्कर्स यूनिटी की इससे सैद्धांतिक सहमति हो। )

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