दस्तावेज के अभाव में लेबर कोर्ट ने मज़दूर के दावे को फर्जी करार दिया, भत्ते की याचिका की ख़ारिज

दिल्ली में एक लेबर कोर्ट ने नाथू स्वीट्स के कथित पूर्व मज़दूर की ओवरटाइम और अन्य मजदूरी की भरपाई की याचिका को ख़ारिज कर दिया हैं। मज़दूर का दावा था कि नाथू स्वीट ने उसके ओवर टाइम और अन्य कई भत्तों का हिसाब  नहीं किया था।

ऐसे में कोर्ट ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि कुछ मज़दूर अपने व्यवसायिक प्रतिष्ठान पर झूठा मुकदमा दायर कर क्लेम मांगते हैं। उनके इस कदम से कर्मचारियों के हितों पर प्रभाव पड़ता है।

देश के मज़दूर वर्ग का ज्यादातर हिस्सा ऐसा है जिनका लेबर कानून के तहत कहीं भी पंजीकरण नहीं किया जाता है।

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इस वर्ग के अंदर दुकानों में काम करने वाले मज़दूर, खानसामे, बावर्ची, आदि, इन मज़दूरों के पास यह साबित करने के लिए किसे भी प्रकार का कागज या प्रूफ नहीं होता कि वह उस संसथान में काम करते हैं।

इन ही कागजों या संस्था में पंजीकरण के आभाव के कारण कई मज़दूर हैं जो अपनी हक़ की लड़ाई हर जाते हैं।

लेबर कोर्ट के पीठासीन अधिकारी अजय गोयल की अदालत ने नाथू स्वीट्स बंगाली मार्केट के कथित पूर्व मज़दूर राम नाथ की याचिका पर सुनवाई कर रहा था।

मज़दूर का दावा था कि वह लंबे समय से नाथू स्वीट्स में हलवाई के तौर पर काम कर रहा था लेकिन संस्थान ने उसे बिना किसी पूर्व सूचना के काम से निकाल दिया और उसके ओवर टाइम और अन्य कई भत्तों का हिसाब भी नहीं किया।

इस संबंध में नाथू स्वीट्स की तरफ से मौजूद प्रतिनिधि ने कोर्ट को बताया कि राम नाथ कभी भी संस्था का कर्मचारी नहीं था, वह केवल कांट्रैक्ट के आधार पर काम कर रहा था।

कोर्ट में नहीं दिखा सके कोई दस्तावेज

अदालत ने अपने आदेश में कहा कि कर्मचारी अपने समर्थने में कोई भी दस्तावेज न्यायालय में प्रस्तुत नहीं कर सका। ऐसे में उसका दावा खारिज कर दिया गया।

ऐसे में नाथू राम का 10 सालों से संस्थान में काम करने का दावा झूठा साबित हो गया है। साथ ही कोर्ट ने कहा कि झूठी शिकायत के लिए शिकायतकर्ता के खिलाफ मुकदमा दायर किया जा सकता है।

लेबर कोर्ट ने अपने व्यवसायिक प्रतिष्ठान पर झूठा मुकदमा दायर कर क्लेम मांगने वाले मज़दूरों पर नाराजगी जाहिर की है।

कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि यह परेशान करने वाली बात है कि लोग अपने फायदे के लिए संस्थान पर झूठे मुकदमे दायर कर क्लेम लेना चाहते हैं। उनके इस कदम से कर्मचारियों के हितों पर प्रभाव पड़ता है।

दरअसल आजकल कई ऐसे मामले देखने को मिल रहे हैं, जिनमें ऐसे मज़दूरों के पास कोर्ट को देने के लिए कोई दस्तवेज नही होते हैं।

जिसके कारण एक दो सुनवाई में ही मामला पूरी तरह से खत्म हो जाता है।

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