कैसे मेक इन इंडिया योजना के नाम पर मज़दूरों के अधिकार छीन रही हैं मोदी सरकार : स्वयंस्फूर्त विद्रोह-3

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                                                              By एम. असीम

परमेश नामक एक और श्रमिक ने बताया कि जब अक्तूबर में काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 किए गए तो ओवरटाइम के लिए प्रति मजदूर प्रतिदिन 100 रु देने का वादा किया गया था।

दिन में मिलने वाले दो विश्राम अवकाश छोड़ने पर भी 300 रु प्रतिदिन अतिरिक्त भुगतान का वादा एक नोटिस निकालकर किया गया था।

अधिकांश मजदूरों के लिए यह अतिरिक्त भुगतान बड़ी रकम था अतः उन्होने इसे मंजूर कर लिया। किन्तु नवंबर में परमेश के बैंक खाते में 12,670 रु ही आए जो उसकी तय बेसिक सैलरी 15,600 रु से भी कम थे, जबकि उसने महीने में एक दिन भी छुट्टी नहीं की थी।

दशहरा के दो दिन काम के लिए भी 3,500 रु का वादा किया गया था लेकिन दोनों दिन काम करने के बाद भी एक पैसा नहीं दिया गया।

कुछ ठेका मजदूरों को तो दो-दो महीने तक की मजदूरी नहीं चुकाई गई थी। दिनों-हफ्तों की देरी तो आम बात थी।

कारखाने के निर्माण के दिनों से ही काम कर रही संध्या के अनुसार कंपनी जब चाहे, कभी 14 तारीख तो कभी 20-22 तारीख तक भुगतान करती थी।

इससे श्रमिकों को बहुत तकलीफ थी और वक्त पर मजदूरी का पैसा न मिलने पर उन्हें बार-बार खर्च के लिए कर्ज लेने के लिए मजबूर होना पड़ता था।

परमेश के अनुसार पहले भी 500 श्रमिकों ने इकट्ठा होकर कंपनी के एचआर विभाग के सामने अपनी शिकायत रखी थी। मगर उन्हें जवाब दिया गया कि इसमें कंपनी की कोई गलती नहीं और वे ठेकेदार से बात करें।

अक्तूबर के महीने में 100 से अधिक मजदूर कोलार की जिलाधिकारी सत्यभामा से भी मिलकर हस्तक्षेप का आवेदन कर चुके थे। सत्यभामा के अनुसार वे फ़ैक्टरी गईं थीं और प्रबंधन से कानून अनुसार काम के घंटे 8 करने के लिए कहा था और कंपनी ने उन्हें समस्या सुलझाने का आश्वासन दिया था।

स्पष्ट है कि कंपनी में चल रहे शोषण की पूरी जानकारी सरकार को भी थी। 13 दिसंबर को फैक्टरी बोइलर्स इंडस्ट्रियल सेफ़्टी निदेशक द्वारा दी गई रिपोर्ट में भी माना गया है कि कंपनी द्वारा किए भुगतान में गड़बड़ी थी और कंपनी ने इसे सुधारने पर सहमति जताई थी।

इस घटना पश्चात श्रम विभाग की आरंभिक जांच में भी पाया गया कि बहुत से श्रमिकों को भुगतान देर से किया गया था,हाजरी का रिकॉर्ड सही नहीं था और ओवरटाइम की मजदूरी नहीं दी जा रही थी और 1936 के रोजगार की दशा कानून के तहत कंपनी को नोटिस देने की सिफ़ारिश की गई है क्योंकि पाया गया कि “कांट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970 व न्यूनतम मजदूरी कानून 1948 के प्रावधानों का उल्लंघन किया जा रह था।

खुद राज्य के श्रम मंत्री शिवराम हेब्बर को स्वीकार करना पड़ा कि” 5 ठेकेदार मजदूरों को 3 महीने से सही मजदूरी नहीं दे रहे थे, यही हिंसा का मुख्य कारण था तथा “कुछ शिकायत यह थीं कि श्रमिकों से 8-12 घंटे काम कराया जाता था जिसमें सिर्फ 50 मिनट का विश्राम दिया जाता था।“

स्पष्ट है कि यह कंपनी सभी श्रम क़ानूनों का उल्लंघन कर रही थी और सभी उद्योगों में होने वाले आम पूंजीवादी शोषण के अतिरिक्त उनकी तयशुदा मजदूरी में से हेराफेरी और ठगी के जरिये भी कटौती व चोरी करती थी।

यह सब राज्य सरकार के श्रम विभाग की भी जानकारी में था, मगर बदस्तूर कोई कार्रवाई नहीं की गई। अंत में परेशान होकर लंबे समय से दबा हुआ मजदूरों का गुस्सा इस स्वतःस्फूर्त विद्रोह के रूप में फूट पड़ा।

मौजूदा दौर में श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करते हुये ऐसा शोषण सभी उद्योगों में आम हो चला है खास तौर पर इसलिए कि मेक इन इंडिया के नाम पर मोदी सरकार देशी-विदेशी पूंजीपति निवेशकों को आकर्षित करने के लिए उन्हें ‘श्रमिक समस्या’ न होने देने का भरोसा देने में जुटी है और श्रमिकों ने लंबे संघर्ष और बलिदान के बाद जो सीमित अधिकार हासिल किए हैं उन्हें भी संकुचित करने की पूरी कोशिश जारी है।

क्रमश:

(प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं। ज़रूरी नहीं कि वर्कर्स यूनिटी सहमत हो।)

(यथार्थ पत्रिका से साभार)

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