एमएसपी की शुरुआत कैसे हुई? एमएसपी से खरीद गारंटी तक- 1

farmers protest at singhu border

                                                                              By एम. असीम

प्रसिद्ध भौतिकीविद रिचर्डफाइनमैन वैज्ञानिक पद्धति को बहुत सरल शब्दों में समझाते हुये बोलते थे कि सिद्धांत कितना भी तर्कपूर्ण,

सुगढ़ व शानदार क्यों न हो अगर वह परीक्षण-निरीक्षण से प्राप्त तथ्यों से टकराने लगे तो सिद्धांत को संशोधित-संवर्द्धित करना पड़ता है।

यही पद्धति हमें मौजूदा किसान आंदोलन के बारे में अपनानी होगी तभी हम यह समझ कि पायेंगे अपने मूल और बाह्यरूप में कुलक

या धनी किसानों का आंदोलन होते हुये भी इसे छोटे-सीमांत किसानों सहित व्यापक किसान आबादी ही नहीं कुछ हद तक अन्य

मेहनतकशों का समर्थन और हमदर्दी भी क्यों व कैसे हासिल हो गई है।

जैसा नाम से ही स्पष्ट है एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य, बाजार में दाम कम होने की स्थिति में दिये जाने वाले न्यूनतम सहारे के तौर

पर शुरू किया गया था अर्थात उस वक्त उम्मीद यह की जाती थी कि बाजार में दाम अक्सर इससे ऊपर ही होंगे लेकिन किसी वर्ष

आपूर्ति ज्यादा बढ़ जाने से अगर दाम अधिक गिर जायें तो उस स्थिति में एमएसपी किसानों के लिए एक तरह की आपात बीमा पॉलिसी

थी कि तब वे कम से कम इतने दामों पर सरकार को बेचकर भारी हानि से बच सकें और कम दाम मिलने से किसान गेहूँ, आदि

अनाज की खेती से हतोत्साहित न हों।

यह पूरी उपज की सरकारी खरीद की गारंटी नहीं थी और सरकारी खरीद की योजना सार्वजनिक वितरण प्रणाली और बाद में बनाये

गए बफर स्टॉक की जरूरतों पर आधारित थी।

उस वक्त कृषि उत्पादन कम था अतः बाजार दाम अक्सर इस एमएसपी से अधिक चले जाते थे – फसल के वक्त गिर भी जायें तो कुछ महीने बाद तो बाद बढ़ते ही थे।

अतः धनी-मध्यम किसान खुद ही उस वक्त एमएसपी पर सरकारी खरीद को पसंद नहीं करते थे, गिरे दामों वाले मजबूरी के साल अपवाद होते थे।

1970 के दशक में ही 20-25 कुंतल अनाज भंडारण की क्षमता वाली धातु की टंकियाँ बनाने का व्यवसाय शुरू हुआ और सभी धनी-

मध्यम किसानों के घरों में ऐसी कई-कई टंकियाँ पहुँच गईं ताकि वे फसल के वक्त 10-20 टन तक अनाज भंडार कर उसे कुछ महीने

बाद ऊँचे दामों पर बेच सकें(हालांकि इसके साथ ही सल्फास की वो गोलियां भी घर-घर पहुंची जो बाद में खेतिहर परिवारों में

खुदकुशी का सबसे बडा तरीका बन गईं)।

सरकारी खरीद के लिए उस वक्त किसान इतने अनिच्छुक थे कि 1970 के दशक में रकबे के हिसाब से किसानों पर लेवी लगानी पड़ी

थी कि उन्हें कम से कम इतना अनाज सरकार को बेचना ही होगा ताकि उस वक्त की सीमित ही सही पर वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली चल सके।

कई बार इसके लिए पुलिस के साथ छापे तक डालने पड़ते थे क्योंकि कई किसान अपना अनाज छिपाने की कोशिश करते थे।

परंतु छोटे, गरीब नकदी की जरूरत वाले गरज बेचा किसानों को यह मौका नहीं था।

वे अपना अनाज एमएसपी पर बेचने के लिए सरकारी खरीद केन्द्रों पर नहीं ले जा पाते थे।

उन्हें अपनी उपज में से जो थोड़ा बहुत बेचने लायक सरप्लस या कहें पैसे के लिए बेचने की विवशता होती थी, तो उन्हें गाँव में ही किसी व्यापारी या व्यापारी-किसान को सस्ते दामों बेचना पड़ता था।

इसीलिए पुराने सभी आंकड़े बताते थे कि एमएसपी का लाभ मात्र 6% किसानों तक पहुंच पाता था – बड़े किसान इसे सिर्फ बाजार संकट में उपयोगी पाते थे और छोटे किसान इसका लाभ लेने में असमर्थ थे।

हम यहाँ विस्तार में नहीं जायेंगे लेकिन गन्ना मूल्य पर भी उत्तरप्रदेश के बडे किसान आंदोलन इसी नीति पर चलते थे- अगर कोल्हू क्रशर के खुले बाजार में दाम ज्यादा हों तो वहाँ बेचने की आजादी और वहाँ दाम गिर जायें तो सरकार निर्धारित मूल्य पर चीनी मिलों द्वारा अधिक खरीदी का दबाव।

यह विवरण इसलिए कि उस वक्त धनी-मध्यम किसान आबादी पूंजीवादी बाजार व्यवस्था को अपने विरुद्ध नहीं पाती थी बल्कि उसके उतार चढाव में अपना लाभ देखती थी और उसे पसंद करती थी।

यही 1970 से 1995 के दौर के किसान आंदोलनों में अभिव्यक्त होता था। उस दौर के चार सबसे बड़े किसान नेताओं – चौधरी चरण सिंह, महेंद्र सिंह टिकैत, शरद जोशी और नंजुंदास्वामी के भाषणों, लेखों और वक्तव्यों के तर्कों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। क्रमश:

(प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं। ज़रूरी नहीं कि वर्कर्स यूनिटी सहमत हो।)

(यथार्थ पत्रिका से साभार)

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