याराना पूंजीवाद और बैंकिंग घोटाला के गोलमाल रिश्ते: किस्सा एबीजी शिपयार्ड लिमिटेड के ऋषि अग्रवाल का

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By रवींद्र गोयल

प्रधानमंत्री मोदी जी के वाइब्रेंट गुजरात की एक कंपनी देश के आज तक के सबसे बड़े बैंकिंग घोटाले की जिम्मेवार है।मल्ल्या, नीरव मोदी, मेहुल चोकसी जैसे दिग्गजों को पीछे छोड़ते हुए इस कंपनी पर 23000 करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप है। इस कंपनी का नाम है एबीजी शिपयार्ड लिमिटेड (ABG Shipyard).

एबीजी शिपयार्ड लिमिटेड की स्थापना 1985 में हुई और ऋषि अग्रवाल उसका मुख्य कर्ता धर्ता है। ऋषि सूरत का रहने वाला है। कांग्रेस का आरोप है कि वह नरेंद्र मोदी का करीबी है। यह कंपनी गुजरात के दाहेज और सूरत में पानी के जहाजों के निर्माण और उनके मरम्मत का काम करने का दावा करती है।

यूँ तो अभी इस मामले के बारे में अधिकारिक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा रहा है, खोजी गोदी मीडिया ज्यादातर खामोश है, पर टुकड़े टुकड़े में मिल रही जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि इस हमारे समय के सबसे बड़े बैंक घोटाले के स्रोत मोदी जी के समुद्री व्यापर,जहाजरानी सेक्टर, उसकी संभावनाओं और उसके लिए जरूरी संसाधन जुटाने के अभियान और गुजरात दंगों के आलोक में अपनी व्यापर प्रिय छवि बनाने के प्रयासों से जुड़े हैं।

साल 2003 में मोदी सरकार ने निरमा, अडानी, और एबीजी शिपयार्ड लिमिटेड के साथ जहाज़ रानी अध्ययन संस्थान बनाने के लिए करार किया था। पर निरमा और अडानी ने इस में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई लगती है। सिर्फ ऋषि अग्रवाल कि कंपनी इस पर मुस्तैद थी और 2007 में वाइब्रेंट गुजरात समिट के समय मोदी सरकार ने 1400 रुपये प्रति वर्ग मीटर के भाव वाली ज़मीन 700 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से 121000 वर्ग मीटर ज़मीन ऋषि अग्रवाल को दी।

CAG ने 2007 की अपनी रिपोर्ट में इस कदम के कारण राज्य सरकार को 8।46 करोड़ रुपये के घाटे पर सवाल उठाये थे लेकिन सरकार ने इसको गुजरात में जहाज़ रानी अध्ययन संस्थान बनाने का लिए जरूरी बताया। लेकिन यह तो मात्र एक छोटा सा तोहफा था। यहीं से शुरू होती है आपदा में अवसर तलाशते आगे बढ़ने कि ऋषि अग्रवाल की यात्रा जिसके अंतर्गत सरकारी सरक्षण में इस हजारों करोड़ के घोटाले को अंजाम दिया गिया।

कहते हैं इसी भूमि आवंटन, मोदी संरक्षण और प्रोत्साहन के आधार पर कंपनी ने 28 बैंकों के समूह से 22842 करोड़ रुपये का कर्जा लिया। कंपनी को सबसे ज्यादा रकम आईसीआईसीआई बैंक ने ( 7,089 करोड़ रुपये) दी।लेकिन भारतीय स्टेट बैंक ने कर्जदार की कर्जा न लौटने की नीयत पर नवम्बर 2019 में सीबीआई में पहली बार शिकायत की।

शिकायत में बैंक का कहना है कि 2013 में ही पता चल गया था कि इस कंपनी का लोन नॉन-परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए- यानि क़र्ज़ की किश्त लौटाने में अक्षम ) हो गया था। स्टेंट बैंक आफ इंडिया ने अपने बयान में लिखा है कि नवंबर 2013 में कंपनी का लोन एनपीए हो जाने के बाद इस कंपनी को उबारने के कई प्रयास किए गए, लेकिन सफलता नहीं मिली।

पहले मार्च 2014 में इसके ऋण खाते को पुनर्गठित किया गया, लेकिन इसे उबारा नहीं जा सका। उसके बाद जुलाई 2016 में इसके खाते को फ़िर से 2013 से ही एनपीए घोषित कर दिया गया। दो साल बाद अप्रैल 2018 में कर्जदार की स्तिथि के आकलन के लिए अर्नस्ट एंड यंग नाम की एक एजेंसी नियुक्त की गई।

अर्नेस्ट एंड यंग द्वारा 18 जनवरी 2019 को सौंपी गई फोरेंसिक ऑडिट रिपोर्ट (अप्रैल 2012 से जुलाई 2017 के कंपनी कार्यों की ) से कंपनी में हुई धोखा धड़ी का पता चला।पता चला कि कंपनी को भारी कर्जा बिना उचित सिक्यूरिटी के दिया गया।

कंपनी के मालिकान ने आपस में मिलीभगत की और पूंजी का डायवर्जन, अनियमितता, आपराधिक विश्वासघात और जिस काम के लिए बैंकों से पैसे लिए गए वहां उनका इस्तेमाल न करके दूसरे उद्देश्य में लगाना आदि गैर कानूनी कार्यवाहियां कीं। इन पैसों का इस्तेमाल उन मदों में नहीं हुआ जिनके लिए बैंक ने इन्हें जारी किया था बल्कि दूसरे मदों में इसे लगाया गया।

नवम्बर 2019 की स्टेट बैंक कि शिकायत पर 12 मार्च 2020 को सीबीआई ने स्टेट बैंक से कुछ सवाल पूछे जिसका जवाब उन्हें 25 अगस्त 2020 को देते हुए बैंक ने फिर शिकायत की। इस शिकायत पर सीबीआई ने अपनी जांच के बाद 7 फ़रवरी 2022 को FIR की और 12 फ़रवरी 2022 को आरोपी के 13 ठिकानों पर छापे मारे।

इस बीच यह भी खबर आ रही है कि यह मामला तो 2018 में ही डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल अहमदाबाद के सामने आ गया था। तब देना बैंक, ICICI बैंक और SBI की 3 अलग-अलग शिकायतों पर 3 अलग-अलग फैसले दिए गए थे। इन तीनों फैसलों मे यह भी कहा था कि रिकवरी न हो सके तो बैंक कंपनी की चल-अचल संपत्ति बेचकर वसूली करे।

अगर इतने स्पष्ट आदेश थे तो कार्यवाही क्यों नहीं की गई ? क्या बात हुई की ये बैंक कर्जा वसूली करने की बजाये बैंक स्टेट बैंक के नेतृत्व में सीबीआई के दरवाज़े पर दस्तक देने पहुँच गए।

सही माने में 2013 में ही जो कर्जा NPA हो गया था उसपर कोई कार्यवाही शुरू होने में 9 साल लगे। बेशक संघी भगत इस सवाल में सर खपा रहे हैं कि कर्जा कांग्रेस शासन में दिया गया इसलिए वो इस घोटाले के जिम्मेवार हैं। लेकिन महत्वपूर्ण सवाल है की 2014 में मोदी के सरकार में आने के बाद भी इस ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ का ढोल पीटने वाली सरकार ने क्या किया। क्यों उनके मुहँ में दही जमा था वो खामोश क्यों रहे और बैंकों को कोई कार्यवाही करने के लिए दबाव नहीं दे रहे थे।

साल 2019 में स्टेट बैंक की शिकायत के बाद भी सीबीआई को हरकत में आते दो साल से ऊपर लगे। इन सबके आधार पर यह सवाल उठाना स्वाभाविक है की इस चोर को प्रोत्साहित करने में प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री या जहाज रानी मंत्री या अन्य सरकारी अफसरों की कितनी कितनी जिम्मेवारी है। सूत्रों के अनुसार अन्य घोटालेबाजों की तरह इस घोटाले का मुख्य आरोपी भी विदेश चला गया है। FIR दर्ज होने से पहले ही ऋषी अग्रवाल सिंगापुर भाग गया है।

तय है आने वाले समय में इस घोटाले की कई परतें खुलेंगी और सरकार और हावी याराना पूंजीवाद ( crony capitalism) के नापाक गठजोड़और उसमें येन केन प्रकरेण धन लूटने की मुहिम कि आमजन की समझ और स्पष्ठता ग्रहण करेगी। लेकिन दुखद सच यह है की अन्य घोटालों की तरह इस घोटाले का भी खमियाजा आम बचत करने वालों यानि मेरे आप जैसे लोगों को ही भुगतना पड़ेगा।

लेखक वर्कर्स यूनिटी के सलाहकार संपादकीय टीम का हिस्सा हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। यह लेख पहले समयांतर प्रत्रिका में प्रकाशित हो चुका है और यहां साभार प्रकाशित है।https://www.workersunity.com/wp-content/uploads/2021/10/ravindra-goel.jpg

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