किसान आंदोलन में भूमि सुधार का मुद्दा अहमः पावेल कुस्सा, द जर्नी ऑफ फार्मर्स रिबेलियन के विमोचन पर

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By पावेल कुस्सा 

भारत में किसान आंदोलन के दो इतिहास हैं। एक भूमि सुधार जोकि 1947 से ही मौजूद है। और दूसरा ग्रीन रिवोल्यूशन के बाद पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी की बेल्ट में खेत मालिक किसानों के आंदोलन, जोकि फसलों के उचित दाम को लेकर हैं।

मौजूदा किसान आंदोलन में भी एमएसपी का मुद्दा प्रमुख है। इन दोनों किस्म के आंदोलनों में ये ताज़ा आंदोलन इस मायने में अलग है कि इसने डब्ल्यूटीओ और गैट की हमलावर नीति के खिलाफ मोर्चा खोला।

90 के दशक की शुरुआत में ही डब्ल्यूटीओ और गैट ने पूरी दुनिया की खेतीबारी को विश्व बाज़ार से जोड़ने का अपने हिसाब से प्लान किया और उसे लागू कर रहे हैं।

इसीलिए कारगिल और मेंसेंटो जैसी बहुराष्ट्रीय खाद-कीटनाशक-बीज कंपनियों के लिए दरवाजा खोल दिया गया।

असल में ये निर्यात आधारित कृषि व्यवस्था की ओर ले जाने वाला कदम था, जहां कंपनियां मनचाही फसल उगाएं और उन्हें विश्व बाज़ार में बेचें।

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डब्ल्यूटीओ के हमला और भूमि सुधार का सवाल

यही वो विभाजक रेखा है जिसने तय किया कि कौन डब्ल्यूटीओ और गैट के खिलाफ है और कौन समर्थन में है।

पंजाब के खेत मालिक किसानों की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है कि उन्होंने उसके खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की। इसमें बहुत से वो नेता भी हैं जो पहले डब्ल्यूटीओ को किसानों की आज़ादी का हथियार समझते थे, पर वे भी अब उसकी नीतियों के खिलाफ खड़े हो गए हैं।

इस आंदोलन की सबसे खास बात यही है कि विश्व साम्राज्यवाद के खिलाफ किसानों को एकजुट करने में  इसने एक बड़ी भूमिका निभाई है।

भारत के किसान आंदोलन में यह एक उपलब्धि है। लेकिन इससे एक भ्रम पैदा हुआ कि साम्राज्यवाद एक बड़ा हमला कृषि को अपने कब्जे में लेने पर आ गया है इसलिए भूमि सुधार का मुद्दा अप्रासंगिक हो गया है।

जबकि इस हमले ने भूमि सुधार के मुद्दे को और उभार दिया है। क्योंकि बैंकों के कर्जों को पूंजीपतियों की ओर मोड़ देने से छोटे किसान साहूकारों के चंगुल में चले गए और ये ज़मीने उनके पास चली गईं।

शायद यही कारण रहा है कि इस किसान आंदोलन में भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की एक बड़ी भागीदारी थी। और ये भागीदारी सिर्फ उनके पीडीएस जाने के डर से नहीं था। उनकी लड़ाई पंचायत की ज़मीन के लिए रही है।

अगर कंपनियां आती हैं तो सबसे पहले वो पंचायत की जमीन अधिग्रहित करेंगी। इसलिए दो लड़ाईयों को जोड़ना बहुत जरूरी है।

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भूमि सुधार अहम

एक तरफ़ भूमंडलीकरण का खेती की ज़मीन और फसलों पर हमला और दूसरा लगातार कम होती जा रही ज़मीन। इस नज़रिये से आंदोलन को आगे ले जाने की जरूरत है।

रजिंदर सिंह दिपसिंह वाला की कृषि मॉडल को बदलने की इस दलील से मैं पूरी तरह सहमत हूं कि यह मॉडल साम्राज्यवादियों के हितों को पोषित करने के लिए जारी है, पंजाब के लोगों के हिसाब से नहीं है।

मैं सिर्फ इतना और जोड़ना चाहता हूं कि इस कृषि मॉडल में भूमि सुधार की पूरी अहमियत है।

यही वहज है कि किसान आंदोलन में कुछ कमियां भी थीं- भूमिहीन किसानों, गरीब किसानों, खेतिहर मजदूरों के मुद्दों पर अस्पष्टता।

संयुक्त किसान मोर्चा ने मजदूर किसान एकता का नारा दिया लेकिन उसे ज़मीन पर ले जाने का सफर अभी बाकी है। बेशक किसान आंदोलन की बहुत बड़ी ताकत थी, लेकिन अगर गरीब किसान और मजदूर इसमें होते तो इसकी ताकत कहीं ज्यादा होती।

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लेकिन इसके लिए उनके मुद्दे भी इस लड़ाई में होने चाहिए। यह आंदोलन बहुत शानदार था और विशेष परिस्थिति में विकसित हुआ।

लेकिन उसने अब हमारे सामने कुछ सवाल रखे हैं, अब इन सवालों के साथ आगे जाने की बात है।

द जर्नी ऑफ़ फ़ार्मर्स रिबेलियन ने इन नज़रिए को रेखांकित किया है और अगर ये बहस लोगों में जाती है तो बहुत अच्छी बात होगी।

(सुर्ख लीह के संपादक पावेल कुस्सा ने बीते 18 सितम्बर को दिल्ली के प्रेस क्लब  में ‘द जर्नी ऑफ़ फार्मर्स रिबेलियन’ किताब के विमोचन के दौरान अपनी बात रखी। भाषण का ट्रांस्क्रिप्ट यहां प्रस्तुत है।) यह किताब वर्कर्स यूनिटी, ग्राउंड ज़ीरो और नोट्स ऑन द एकेडेमी ने संयुक्त रूप से प्रकाशित की है।)

इस किताब को यहां से मंगाया जा सकता है। मेल करें- [email protected]  या फोन करें  7503227235

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