मजदूरों का मुद्दा उठाने से ही असल किसान मजदूर एकता कायम होगीः परमजीत, ZPSC

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By परमजीत

किसान आंदोलन चला और इससे प्रभावित होकर समाज का हर तबका इसमें शामिल हुआ। बहुत सारे लोग इस आंदोलन में भागीदार रहे, धरना स्थल पर रहे, उसे समझा और महसूस किया।

वर्कर्स यूनिटी की टीम भी पूरे साल साथ रही। इस किताब को देख कर पता लगता है कि इन्होंने कितनी मेहनत की है।

मजदूरों की जहां तक बात है, उनके मुद्दे अभी तक हाशिये पर हैं और उन पर बात करना भी कोई जरूरी नहीं समझता।

हम लोगों ने पंजाब में पंचायती ज़मीन को हासिल करने का काम 2014 में शुरू किया हालांकि इसका कानून बहुत पहले से बना हुआ है।

ग्रीन रिवोल्यूशन ने पंजाब को बर्बाद किया तो उससे सबसे अधिक मजदूर प्रभावित हुए। खेतिहर मजदूर दूसरों के खेतों में काम करते हैं और उनके पास मवेशी होते हैं।

पहले ज़मीनें खाली होती थीं चारागाह होती थी, चारा आसानी से मिल जाता था, लेकिन जिस तरह किसानों के लिए कठिन परिस्थिति बनी तो दलितों और भूमिहीन खेतिहर मजदूरों के लिए भी और ज्यादा संकट पैदा हो गया। लोग अपने खेतों से चारा नहीं लेने देते।

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मजदूर किसान की वास्तविक एकता की ज़रूरत

भले ही पंजाब में ये कहा जाए कि बहुत भाई चारा है, एक साथ रहते हैं, साथ लंगर चलाते हैं, लेकिन जब मजदूरों के हक की बात आती है तो किसान संगठन और नेता किनारा कर लेते हैं। बीते करीब एक दशक में भाषणों को छोड़ दिया जाए तो ज़मीन पर ये भाईचारा नहीं दिखता।

अगर इस मुद्दे को लेकर वाकई गंभीरता होती और मजदूर किसान एकता महज नारा नहीं होता तो ज़मीन का मुद्दा बनता। आज भी हालत ये है कि पंचायत ज़मीन के तीसरे हिस्से को पाने की लड़ाई अभी चल रही है और लड़ने वालों पर 307 के मुकदमे दर्ज किए गए हैं।

किसान आंदोलन के बाद पंजाब के हर गांव में संगठन बने हैं। किसान संगठन मजबूत हुए हैं लेकिन मजदूरों को इस आंदोलन में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। हमें जगह भी मिली तो कीर्ती किसान यूनियन के बैनर तले।

इससे समझा जा सकता है कि क्या स्थिति है। महिलाएं शामिल हुईं। और बड़े पैमाने पर दलित महिलाएं थीं, जो स्वाभाव से ही बगावती होती हैं, जबकि किसानों की महिलाएं घरों में बंद हैं। हमारे सामने भी परेशानी आई जब जेडपीएससी बना। महिलाएं धरने में आती थीं, तो घरवाले उन्हें मना करते थे।

देर होने पर पति दारू पीकर महिलाओं को पीटते और कहते धरने में जाओ। एक दो गांवों में महिलाओं को शराबी पतियों की पिटाई तक करनी पड़ी। जबकि किसानी औरतें इस स्तर पर खड़ा होने में अभी बहुत पीछे हैं। पंचायती जमीन का छोटे से छोटा हिस्सा पाना भी इन महिलाओं में आत्मविश्वास को जगाता है।

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सीलिंग एक्ट का मुद्दा अहम

उन्हें इस बात का अहसास होता है कि उनके पास जीवन यापन का साधन है। किसी दूसरे के खेत में चारा लेने नहीं जाना पड़ता है।

दलित महिलाओं की हालत बहुत बुरी है, क्योंकि एक तो वो महिला है, दूसरे वो गरीब भूमिहीन है और तीसरे वो दलित है।

इस समस्या को लेकर जमीनी स्तर पर कोई गंभीर काम हो रहा है, ये कहना मुश्किल है। अभी तो फिलहाल मजदूर किसान एकता की बात ऊपर ऊपर की है। अगर ऐसा होता तो कुछ तो फर्क पड़ता।

क्योंकि इस लड़ाई का अगला पड़ाव है सीलिंग एक्ट लागू करवाना क्योंकि पंचायती जमीन तो बहुत थोड़ी है। किसान संगठनों में भी सिलिंग एक्ट को लेकर बात हुई। लेकिन अभी तो पंचायती जमीन भी नहीं मिल पा रही है।

किसान आंदोलन से मजदूर यूनियनों ने भी सीख ली है, मोर्चा बनाने की। इसीलिए पंजाब के सात मजदूर यूनियनें अब एक साझा मोर्चा बनाकर संघर्ष कर रही हैं।

पहले तो हमारे मुद्दे सामने ही नहीं आते, मसलन, पंचायती ज़मीन, सीलिंग एक्ट, मनरेगा, रिहाईशी ज़मीन का मुद्दा।

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पंजाब में दलितों की हालत

रिहाईश की ज़मीन का तो इतना आकाल है कि दलितों के पास एक घर है उसी में चूल्हा जलता है, एक तरफ मवेशी रहते हैं और परिवार भी उसी में सोता है। अगर एक बेटे की शादी हो जाए तो लोग दूसरे बेटे की शादी नहीं करते।

गीतों और फिल्मों भले ही पंजाब बहुत खुशहाल दिखाई देता है लेकिन वहां गांवों में मजदूरों की हालत देश के बाकी हिस्से जैसी ही बुरी है। जाति का सवाल भले ही सिख धर्म के कारण थोड़ा दबा हुआ है लेकिन उस मुद्दे पर भी हालत बहुत अच्छी नहीं है।

ये एक गंभीर सवाल है लेकिन इस पर बहुतेरे वामपंथी संगठन और किसान यूनियनें डर डर कर बोलती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका काडर छिटक जाएगा।

अभी तीन दिन तक मजदूर संगठनों ने प्रदर्शन किया था, उनके लिए किसान यूनियनों ने लंगर लगाया तो उनके काडर ने बैठक बुला ली कि धान की रोपाई के समय मजदूरों और किसानों में विवाद पैदा हुआ था, ऐसे में उनकी मदद क्यों की गई।

लेकिन काडर के टूटने के डर से असल मुद्दे से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। अगर काडर टूटता है तो दोबारा बनाया जा सकता है। कम से कम इस मुद्दे पर कुछ आधार तो बने, जाति तो टूटे।

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मजदूर अकेले एकता नहीं कर सकते

मजदूर किसान एकता हम भी चाहते हैं कि हो, लेकिन हम अकेले नहीं कर सकते। हम चाहते हैं कि जो वामपंथी संगठन हैं, वो मजदूरों की मांगों को लेकर संजीदा हों और वो ऐसा कर सकते हैं।

गांव का हर किसान किसी न किसी यूनियन से जुड़ा हुआ है लेकिन पंचायती जमीन के तीसरे हिस्से की बात आती है तो यही यूनियनें इसे उस किसान का निजी मामला बताकर पल्ला झाड़ लेती हैं।

किसान आंदोलन में ये बात बहुत हुई कि मजदूरों की भागीदारी बहुत कम रही, हालांकि मजदूर भी चाहते थे इस संघर्ष का हिस्सा बनना, लेकिन ये मुश्किल था। किसान आंदोलन ने भी 26 जनवरी के बाद ही मजदूर संगठनों को जगह दी और मजदूर नेताओं को बुलाया जाने लगा और मजदूरों की भागीदारी भी बढ़ी।

ये आंदोलन अंतिम नहीं है, और जिस तरह फासीवाद का खतरा बढ़ा है, एक बड़े आंदोलन के लिए मजदूरों की मांगों को भी शामिल कर उन्हें संघर्ष में साझीदार बनाना होगा।

भले ही सारे मुद्दे नहीं मिलते लेकिन जो न्यूनतम मुद्दे हैं उन पर एकता बनाई जा सकती है। मसलन कर्जे का मुद्दा या जाति उन्मूलन का मु्दा। इस पर तो बात हो सकती है।

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मजदूरों और औरतों के बिना सफलता नहीं

मजदूरी के मसले पर मजदूरों और किसानों में विरोध रहा है। हालांकि इस आंदोलन के चलते मजदूरों का इस बार बहिष्कार कम हुआ। और इस मुद्दे पर काम करें तो कोई रास्ता निकला जा सकता है। और मजदूर किसान एकता कायम हो सकती है।

इस आंदोलन की एक और बड़ी ताकत औरतें रही हैं। नक्सलबाड़ी से लेकर तेलंगाना तेभागा तक के आंदोलन हुए और फिर खत्म हो गए लेकिन महिलाओं का कोई नाम नहीं आता।

आंदोलन होता है और महिलाओं को फिर हम घर में कैद कर देते हैं। इस आंदोलन में भी औरतें लौट कर फिर घर में मशगूल हो गईं। इन बातों का ध्यान रखना होगा।

अगर मजदूर और औरतें पिछड़ जाएंगी तो ये संघर्ष सफल नहीं हो पाएगा।

(जेडपीएससी  की नेता परमजीत ने बीते 18 सितम्बर को दिल्ली के प्रेस क्लब  में ‘द जर्नी ऑफ़ फार्मर्स रिबेलियन’ किताब के विमोचन के दौरान अपनी बात रखी। भाषण का ट्रांस्क्रिप्ट यहां प्रस्तुत है। यह किताब वर्कर्स यूनिटी, ग्राउंड ज़ीरो और नोट्स ऑन द एकेडेमी ने संयुक्त रूप से प्रकाशित की है।)

इस किताब को यहां से मंगाया जा सकता है। मेल करें- [email protected]  या फोन करें  7503227235

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