विश्व आदिवासी दिवसः असुर आदिवासियों के वजूद पर संकट

By आशीष आनंद

‘हम असुर लोग पाट में रहते हैं। झारखंड के पाट यानी नेतरहाट में। हमारे इलाके में भारत का बॉक्साइट भरा है। इलाका हमारा है, लेकिन इस पर राज बिड़ला करता है। राजधानी रांची से हम करीब 170 किलोमीटर दूर हैं। इसलिए पहाड़ों से हमारी चीख वहां पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती है। मोबाइल के जरिए मीडिया यहां पहुंच गया है, पर मीडिया वाले इधर झांकते भी नहीं। बिड़ला ने सबकी खूब खातिरदारी कर रखी है। हमारी सुनने वाला कोई नहीं है और दिन-रात बिड़ला के डम्फर हमारी छाती रौंद रहे हैं। इसलिए हम अपनी कहानी अपने बच्चों को बताने के लिए, आप जैसे लोगों को दिखाने के लिए इस तरह की तस्वीरें बना रहे हैं। अपनी दीवालों पर। अपने दिमागों में और काल की छाती पर। इसलिए कि ‘  समुद्र मंथन’ खत्म नहीं हुआ है। न ही असुर लोग पूरी तरह से मरे हैं। हम आज भी ज़िंदा हैं।’

असुर आदिवासियों का कहना है कि यूनेस्को की खतरे में पड़ी विश्व भाषाओं के एटलस के हिसाब से असुर आदिवासी भाषा खतरे की सूची में है।

बिड़ला के बॉक्साइट खदानों ने हमारा जीवन तबाह कर दिया है। टाटा ने लोहा (स्टील) बनाने के हमारे पारंपरिक ज्ञान को हथियाकर हमें हाशिये पर पहुंचा दिया है।

वे कहते हैं कि हिंदू कथा-पुराण हमें राक्षस कहते हैं और हमारे रावण, महिषासुर आदि पुरखों की हत्याओं का विजयोत्सव मनाते हैं।

इन सब परिस्थितियों के बीच हम असुर आदिवासियों ने अपना अस्तित्व बचाने और भाषा-संस्कृति के संरक्षण के लिए जूझ रहे हैं।

दुनियाभर के वैज्ञानिकों की सलाह

ये कितनी अजीब बात है कि दुनियाभर के वैज्ञानिक जहां आदिवासियों को ही अब ग्रह बचाने का जरिया मान रहे हैं और वहीं आदिवासियों को अपना वजूद बचाने के लिए जीने-मरने का संघर्ष करना पड़ रहा है।

भारत में तो आदिवासियों को जंगल से बाहर निकाल फेंकने को जैसे पूरी व्यवस्था लगी है।

पिछले साल ही दुनियाभर के 50 देशों के 500 वैज्ञानिकों ने 8000 पन्नों की रिपोर्ट में कहा है कि आदिवासी ही वह हुनर जानते हैं, जिससे अब पृथ्वी की आवोहवा और सांसें बच सकती हैं।

ये अध्ययन अंतरसरकारी विज्ञान नीति मंच की ओर से किया गया।

सरकार की बेरुखी का आलम

वित्त वर्ष 2018-19 में विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूहों के कल्याण की योजना के तहत आवंटित धनराशि पांच प्रतिशत से भी कम खर्च की गई। ये जानकारी चार जुलाई को राज्यसभा दी गई।

जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने राज्यसभा में बताया कि वित्त वर्ष 2018-19 के लिए मंत्रालय ने राज्यों को 250 करोड़ रुपये जारी किए।

इसमें से केवल 12.3 करोड़ रुपये का उपयोग किया गया। यानी स्वीकृत राशि के 5 प्रतिशत से भी कम।

वर्ष 2017-18 में योजना के तहत 239.46 करोड़ रुपये मंजूर किए, जबकि राज्यों ने 223.19 करोड़ के उपयोग की सूचना दी।

इसी तरह 2016-17 में, राज्यों ने स्वीकृत 338 करोड़ रुपये के 319.96 करोड़ रुपये के उपयोग की सूचना दी।

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