नये श्रम कानूनों को लागू करने के पीछे का असली खेल:स्वयंस्फूर्त विद्रोह-4

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                               By एम. असीम

स्पष्ट है कि यह कंपनी सभी श्रम क़ानूनों का उल्लंघन कर रही थी और सभी उद्योगों में होने वाले आम पूंजीवादी शोषण के अतिरिक्त उनकी तयशुदा मजदूरी में से हेराफेरी और ठगी के जरिये भी कटौती व चोरी करती थी।

यह सब राज्य सरकार के श्रम विभाग की भी जानकारी में था, मगर बदस्तूर कोई कार्रवाई नहीं की गई।

अंत में परेशान होकर लंबे समय से दबा हुआ मजदूरों का गुस्सा इस स्वतःस्फूर्त विद्रोह के रूप में फूट पड़ा।

पर मौजूदा दौर में श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करते हुये ऐसा शोषण सभी उद्योगों में आम हो चला है खास तौर पर इसलिए कि मेक इन इंडिया के नाम पर मोदी सरकार देशी-विदेशी पूंजीपति निवेशकों को आकर्षित करने के लिए उन्हें ‘श्रमिक समस्या’ न होने देने का भरोसा देने में जुटी है और श्रमिकों ने लंबे संघर्ष और बलिदान के बाद जो सीमित अधिकार हासिल किए हैं उन्हें भी संकुचित करने की पूरी कोशिश जारी है।

श्रम क़ानूनों में मिले थोड़े-बहुत श्रमिक सुरक्षा के प्रावधानों को भी पूंजीपति मालिक बेहिचक निडर होकर उपेक्षित करते हैं क्योंकि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि पूरा सत्तातंत्र ने उनके साथ है।

फिर भी कभी-कभी अपने संगठन और सामूहिक कार्रवाई के बल पर मजदूर इन क़ानूनों के कुछ प्रावधानों को लागू करवाने में कामयाब हो जाते हैं।

अतः पूंजीपति वर्ग सरकार पर लंबे समय से ‘श्रम सुधार’ करने का दबाव बनाये हुए है ताकि इन सीमित सुरक्षा प्रावधानों को भी कमजोर या खत्म किया जा सके।

यही वजह है कि पिछले महीनों में कोविड लॉकडाउन के दौरान भी विभिन्न राज्य सरकारों ने रोजाना काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 घंटे करने और श्रमिक सुरक्षा व सुविधाओं के बहुत सारे नियमों को ढीला या समाप्त करने के प्रयास किए हालाँकि जबर्दस्त विरोध के बाद इन सरकारों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े।

अब हम सबको मालूम है कि केंद्र सरकार बड़े ‘श्रम सुधारों’ के नाम पर पुराने श्रम क़ानूनों की जगह जो चार लेबर कोड ला रही है उसके पीछे भी यही मकसद है। (इसके बारे में हम पिछले अंक में विस्तार से लिख चुके हैं) इन पूंजीपतिपरस्त क़ानूनों के बाद श्रमिकों के शोषण में आने वाली तेजी की कल्पना हम कर सकते हैं।

पर विस्ट्रोन का तजुर्बा बताता है कि मजदूर वर्ग इसे चुपचाप स्वीकार नहीं करेगा।

समाप्त

(प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं। ज़रूरी नहीं कि वर्कर्स यूनिटी सहमत हो।)

(यथार्थ पत्रिका से साभार)

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