बैंकों के दिवालिया होने पर क्या आपके मन में भी उठते हैं ये सवाल

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By मुकेश असीम

जीडीपी वृद्धि अर्थात सरकार की आमदनी में बढ़ोत्तरी सरकारी कर्ज पर ब्याज दर से कम हो गई है। अगर सरकार के अन्य खर्च उतने ही रहें तब भी कर्ज पर ब्याज चुकाने के लिए ही और कर्ज लेना पड़ेगा।

पर सरकार का अनुत्पादक खर्च तो और बढ़ रहा है। कहें तो पूरी सरकार ही दिवालिया हो चुकी है।

फिर सरकार चल कैसे रही है?
और कर्ज लेकर!
लेकिन दिवालिया सरकार को कर्ज कौन देता है?
हम देते हैं!
कुछ भी, हमने कब दिया?
हमारी ओर से रिजर्व बैंक दे देता है।
कुछ भी! बिना हमसे पूछे ही?
बिल्कुल, हमसे बिना पूछे ही!
वो कैसे?

नई मुद्रा सृजित कर। हर नोट पर लिखा है कि यह वादा है, इसे लेकर आने वाले को उतने रूपये चुकाने का। अर्थात नोट वास्तव में रूपया नहीं हैं, ये तो बस कर्ज लेने वाले द्वारा दिया गया प्रोमिसरी नोट है।

हम बैंक जाते हैं तो वो हमें रूपये नहीं, रूपये देने का वादा लिखा नोट देता है। सरकार पर भरोसा होने की वजह से हम एक दूसरे को वह नोट देकर काम चला लेते हैं।

फिर समस्या क्या? सरकार तो कर्ज लेकर भागने से रही।

ये सबसे बड़ा भ्रम है। इतिहास में कितनी ही सरकारें कर्ज दबा चुकी हैं। बल्कि सबसे ज्यादा कर्ज सरकारों ने ही दबाया है। वह कर्ज दबाने को ही कानून बना देती हैं।

उसके पास और एक बड़ा तरीका है रूपये का मूल्य गिरा देना। आज ही रूपये की कीमत डॉलर के मुकाबले 1 रूपया कम हो गई। कर्ज लेकर कीमत गिराने से कम रुपया वापस करना होगा।

इससे क्या फर्क पड़ता है?

सोने की कीमत डॉलर में होती है, और सोना ही असली मुद्रा है। सोने का दाम बढना रुपये की कीमत का गिरना है। किसी देश की सरकार दिवालिया हो भुगतान न कर पाये तो दूसरे देश उससे सोना ही माँगते हैं।

हमारे पास तो बहुत विदेशी मुद्रा है, हमें भुगतान की क्या चिंता?

विदेशी मुद्रा भंडार तो विदेशी कर्ज है। हमारा आयात निर्यात से ज्यादा है इसलिए विदेशी मुद्रा भंडार कर्ज लेकर ही बढ सकता है।
तो?

तो ये कि सरकारें दिवालिया भी होती हैं, कर्ज भी दबा लेती हैं, ऊपर से कर्ज वापस माँगने वाले को जेल में भी बंद कर देती हैं!
हैं?

जी हां! नोटबंदी क्या थी? पीएमसी और यस बैंक क्या है? नोट घर में रखोगे तो गैरकानूनी और बैंक में रखोगे तो निकालने नहीं देंगे।
पर एक दो बैंक से क्या होता है? और बहुत बैंक हैं।

पर सरकार ही दिवालिया हो जाये तो? बैंक तो सरकारी प्रोमिसरी नोट ही देता है। उसका भरोसा नहीं तो किसी भी बैंक का क्या भरोसा? एक बैंक बदलकर दूसरे में जाने से कोई समाधान नहीं।

इसलिये एक बैंक की नहीं पूरी आर्थिक व्यवस्था की चिंता करो, संकट पूँजीवादी व्यवस्था में है, बैंक के जरिये बस हमारे सामने आता है।

पूरी व्यवस्था में घुन लगा हो तो एक बैंक एक कंपनी के बारे में नहीं, पूरी आर्थिक व्यवस्था के बारे में सोचना होगा।

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