ये कौन सा गणतंत्र है जहां कार्पोरेट के द्वारा, कार्पोरेट के लिए, कार्पोरेट का शासन लागू है!

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By सुशील मानव

26 जनवरी 1950 को अपना संविधान अंगीकार करने वाला भारत एक संप्रभु राष्ट्र है और इसकी संप्रभुता यहां की जनता में निहित है। यानि ‘हम भारत के लोग’ ही वो शक्ति हैं जो संविधान को शक्ति प्रदान करती है और ये देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था इसके संविधान के मुताबिक ही चलनी चाहिए।

संयुक्त राज्य अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को कुछ यूँ परिभाषित किया है कि- “लोकतंत्र जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है।”

दुनिया का हर लोकतांत्रिक देश जहां एक निश्चित समयावधि के अंतराल पर चुनाव होता है वहां लोकतंत्र की यही परिभाषा लागू होती है। दु

किसी भी लोकतंत्र में कहीं ये नहीं लिखा कि “कार्पोरेट के द्वारा, कार्पोरेट के लिए, कार्पोरेट का शासन” अन्यथा उसे लोकतंत्र नहीं कार्पोरेट तंत्र कहते।

बावजूद इसके हमारे भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कार्पोरेट सरकार चल रही है, जो सिर्फ और सिर्फ़ कार्पोरेट के लिए काम कर रही है।

वो किसानों के खेत खलिहान फसलें छीनने के लिए संसद में गुंडई के दम पर किसान विरोधी कृषि क़ानून बना देती है। जबकि समूचा विपक्ष और किसान इस कृषि क़ानून का विरोध करते हैं।

जब किसान इन क़ानूनों को रद्द करने की मांग करते हैं तो सरकार कहती है कि कृषि क़ानून किसानों के भले के लिए है और किसानों को कृषि क़ानून की समझ ही नहीं है। सरकार को पता है कि किसमें किसानों को भला है और किसमें बुरा।

इसी तरह से ये सरकार तमाम श्रम क़ानूनों को खत्म कर चार श्रम संहिताएं बनाकर देश के तमाम मजदूरों को कार्पोरेट का बँधुआ मजदूर (गुलाम) बना देती है।

इसी तरह वो नागरिकता रजिस्टर और नागरिकता संशोधन क़ानून के जरिए देश के करोड़ों गरीब लोगों को 18 कागज दिखाने अपने पुरखों के कागज दिखाने और उनसे अपना संबंध साबित करने वाले कागज दिखाने का आदेश जारी कर देती है।

तो कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि ये सरकार भले ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई हो लेकिन ये काम लोकतांत्रिक और संवैधानिक तरीके से नहीं कर रही है। आप पूछ सकते हैं कि संवैधानिक तरीका क्या होता है?

तो संवैधानिक तरीका वो होता है जिसमें सरकार द्वारा बनाई या बिगाड़ी जा रही कोई भी नीति, क़ानून या ढांचे से पहले ये देखा, सोचा, विचारा जाता है कि इसके बनने या बिगड़ने से देश की जनता और संविधान द्वारा दिये उनके मूल अधिकारों का हनन न हो।

लेकिन इस सरकार द्वारा बनाये गये हर क़ानून में जनता के मूल अधिकारों का हनन होता है। जैसे इस सरकार द्वारा बनाये गये तीन कृषि क़ानूनों में से एक ‘कृषि कीमत आश्वासन (संरक्षण एवं सशक्तिकरण) और कृषि सेवा करार अधिनियम-2020’ किसानों को न्याय के लिए कोर्ट जाने से रोकता है।

जबकि अब इसी के साथ संविधान का अनुच्छेद 19 भी पढ़ लें, जो हर नागरिक को अभिव्यक्ति और बोलने की आज़ादी, शांतिपूर्ण ढंग से एकत्र होने, सभा करने, जुलूस निकालने और संगठन बनाने का मौलिक अधिकार देता है।

जबकि इस कृषि कानून की यह धारा 19, व्यक्ति के न्यायालय जाने तक के अधिकार को छीन ले रही है। इस अधिनियम की धारा 19 न केवल संविधान के अनुच्छेद 19 का उल्लंघन करती है, बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 32, जो हर नागरिक को न्यायालय में जाने और न्यायिक राहत पाने का मौलिक अधिकार देती है, को भी बाधित करती है।

इसी तरह श्रम संहिता जोकि मजदूरों को संगठन बनाने और हड़ताल करने के अधिकार को रोकता है संविधान के मूल अधिकार वाले अनुच्छेद 19 का उल्लंघन करती है।

मौजूदा सरकार द्वारा बनाये गये नागरिकता (संशोधन) क़ानून 2020 संविधान के मूल अधिकारों के अंतर्गत आने वाले अनुच्छेद 14 व 15 की मूल भावना का उल्लंघन करती है।

इतना ही नहीं ये संविधान के अनुच्छेद 10 का भी उल्लंघन करती है। इस सरकार द्वारा बनाये गये ऐसे कई क़ानून हैं जो संविधान की मूल भावना का सीधा सीधा उलंल्घन करते हैं। इसी तरह आर्थिक आधार पर सवर्णों को प्रदान किया गया 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान भी असंवैधानिक है क्योंकि वो आरक्षण के मानदंडों को पूरा नहीं करता है।

बता दें कि भारत के संविधान के खंड-3 के अंतर्गत अनुच्छेद 12 से लेकर अनुच्छेद 35 तक मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है।

इन मूल अधिकारों को मनुष्य का नैसर्गिक अधिकार भी कहा जाता है। यानि मनुष्य के ऐसे अधिकार जो किसी मनुष्य को जन्मजात प्राप्त होते हैं, कोई भी स्वतंत्रता किसी भी मनुष्य को दी नहीं जाती अपितु वह स्वतंत्रता उस मनुष्य को जन्मजात ही प्राप्त होती है।

नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा का भार न्यायपालिका पर था, पर जज लोया की हत्या के बाद से डरी हुई है।

भारत के संविधान के खंड तीन में दिए गए मूल अधिकार गारंटी के रूप से भारत के नागरिकों तथा अन्य व्यक्तियों को प्राप्त होती हैं।

गारंटी के रूप में प्राप्त होने वाले मूल अधिकारों का अर्थ होता है ऐसे मूल अधिकार जिनका प्राप्त होना नागरिकों को तथा अन्य व्यक्तियों को मिलना निश्चित ही होता है, किसी भी परिस्थिति में इन मूल अधिकारों पर बगैर औचित्य के निर्बंधन नहीं लगाए जा सकते।

गारंटी का एक रूप यह है कि इन मूल अधिकारों में उल्लेखित की गई बातें राज्य द्वारा किसी भी परिस्थिति में अतिक्रमण नहीं की जाएंगी।

यदि राज्य द्वारा इन मूल अधिकारों का अतिक्रमण किया जाता है तो इन मूल अधिकारों को बहाल कराने के लिए न्यायपालिका की सहायता ली जा सकती है क्योंकि भारत के संविधान के अनुच्छेद-32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को ऐसी परिस्थितियों में याचिका दायर करने की अधिकारिता प्राप्त है।

संविधान बनाने वालों को अनुमान था कि शक्ति पाकर राज्य सत्ता अपने नागरिकों के अधिकारों का हनन कर सकती है।

इसीलिए उन्होंने न्यायपालिका को ये शक्ति प्रदान की कि वो संविधान प्रदत्त क़ानूनों को विश्लेषित करके निरंकुश राज्य से नागरिक अधिकारों की रक्षा करे। जिनमें कहीं पर भी नागरिकों तथा अन्य व्यक्तियों के मूल अधिकार का हनन हो रहा हो भारत के संविधान के अनुच्छेद-226 के अंतर्गत भी उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय दोनों को इस प्रकार से हनन होने वाले मूल अधिकारों के संबंध में संज्ञान लेने तथा उन पर रिट जारी करने की अधिकारिता प्राप्त है।

लेकिन शोहराबुद्दीन शेख़ फे़क एनकाउंटर केस की सुनवाई कर रहे जस्टिस बृजगोपाल हरिकिशन लोया की संदिग्ध मौत के बाद से न्यायपालिका को चलाने वालों ने सेफ रिटायरमेंट पैकेज को चुनकर सत्ता के आगे सरेंडर कर दिया है।

यही कारण है कि अयोध्या ज़मीन विवाद, असम एनआरसी, आरक्षण, राम मंदिर बानने का फैसला, जैसे कई कदम न्यायपालिका के रास्ते लाये गये। इतना ही नहीं कश्मीरी लोगों की अस्मिता से जुड़ा धारा 370, सीएए क़ानून की वैधानिकता को चुनौती, कृषि क़ानूनों की लीगलिटी को चुनौती जैसे कई महत्वपूर्ण याचिकायें सर्वोच्च न्यायालय दो साल से दबाकर बैठी हुई है।

लोकतंत्र की बहाली

लोकतंत्र शब्द का तात्पर्य ऐसी सरकार है जिसका समूचा अधिकार जनता में निहित होता है और जनता के लिए जनता द्वारा स्थापित की जाती है। देश का प्रशासन सीधे जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है।

जनता का चुनाव गलत हो सकता है। या हो सकता है कि किसी ने झूठे वादे करके, झूठे प्रलोभन देकर वोट हासिल कर लिया और बाद में अपनी बात से पलट गया तो जनता के पास उसे सबक सिखाने उसे हटाने का अधिकार होता है।

एक निश्चित समय के बाद उन लोगों को वापिस उसी जनता के पास जाना पड़ता है। प्रत्येक 5 वर्ष के बाद जनता नए प्रतिनिधि का चुनाव करती है इसी उद्देश्य के लिए संविधान प्रत्येक नागरिक को मताधिकार प्रदान करता है।

यानि पांच साल बाद हर शासक को चाहे वो कितना बड़ा सीना क्यों न रखता हो उसे जनता के पास जाना ही पड़ता है।

लेकिन कार्पोरेट जोकि भारत के लगभग हर संस्थान पर कब्जा जमाये बैठा है जिसने पूंजी के दम पर मीडिया पर एकाधिकार कर रखा है वो जनमत बनाने और जनमत प्रभावित करने की स्थिति में है।

और हमने देखा है साल 2014 और साल 2019 में उसे जनमत बनाते हुए। साल 2014 में 15 लाख का प्रलोभन देकर जनमत हाईजैक कर लिया गया तो साल 2019 में 44 जवानों की निर्मम हत्या को इवेंट में बदलकर फर्जी राष्ट्रवाद के नाम पर डराकर जनमत को अपने फेवर में बदल लिया गया।

किसी एक संस्था के पास एकाधिकार होने पर लोकतंत्र के राजतंत्र में बदलने का खतरा होता है। राजतंत्र में जनता के अधिकार सीमित होते हैं और किसी एक जाति, धर्म, समुदाय, लिंग, भाषा, क्षेत्र या परिवार को सारे अधिकार दे दिए जाते हैं।

जैसा कि वर्तमान समय में हम देख और भोग ही रहे हैं। न्याय तंत्र पर पुलिस तंत्र हावी है। और लोकतंत्र पर सरकार तंत्र। मीडिया पर कार्पोरेट तंत्र हावी है और संविधान पर मनु स्मृति।

लेकिन हमारा संविधान और लोकतंत्र हमें क्रूर सरकार के खिलाफ़ आंदोलन का अधिकार देता है। लेकिन लोकतंत्र सरकार के समर्थन में जुलूस रैली और मार्च करने की इज़ाज़त नहीं देता। हालांकि आंदोलन का मतलब भी इस सरकार के लिए शायद चीखना हिंसा, दंगा और हुड़ंदगई होती है शायद।

तभी तो इस सरकार ने हर विरोध प्रदर्शन के समांतर और उसके विरोध में सरकार समर्थकों की जुलूस निकलाने का नया पैटर्न विकसित किया है। सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन के विरोध में हमने भाजपा नेता कपिल मिश्रा, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, अध्यक्ष जे पी नड्डा की अगुवाई में सीएए के समर्थन में रैली निकलाते देखा था। अभी किसान आंदोलन के खिलाफ़ कृषि क़ानून समर्थकों की रैली निकाली जा रही है।

कहना न होगा कि संयम, धैर्य और लंबे समय तक संघर्ष करने का ज़ज्बा और भरोसा दिल्ली के बृर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन ने इस लोकतंत्र और नागरिकों को दिया है। हमें अब घिसे पिटे मियादी आंदोलन के पैटर्न से अलग लंबे आंदोलन के लिए सामूहिक हित को लक्ष्य करना होगा।

तभी सरकारी तंत्र को खत्म करके वापिस इस देश में लोकतंत्र की बहाली हो सकती है। और उससे भी महत्वपूर्ण बात ये ध्यान रखनी होगी कि अपने मत के मूल्यों को हमें पहचानाना होगा। जब एक मतदाता के तौर पर हम अपना मत देश और समाज बाँटने वाले लोगों को दे देते हैं तो उसकी कीमत सिर्फ़ एक जाति, एक वर्ग, एक धर्म, एक भाषा, एक रंग के लोगों को नहीं बल्कि समूचे देश और समूची मानवता को चुकानी पड़ती है।

जैसा कि वो हर बार हर गलत निर्णय के बाद कहते हैं कि उन्हें जनता ने बहुमत दिया है। जनता ने उन्हें नोटंबदी, जीएसटी, लॉकडाउन, मॉब लिचिंग, पुलवामा, पठानकोट, दिल्ली हिंसा, गुजरात हिंसा के बाद चुना है तो इसका मतलब है कि जनता ने उसे वैलिडिटी प्रदान कर दी है।

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