कंपनी के बाहर सड़क दुर्घटनाओं में बे मौत मारे जाते मज़दूर, कौन लेगा ज़िम्मेदारी?

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By मोहिंदर कपूर

बीते लॉकडाउन में बाइक से अपने घर जाते हुए रोहतास कुमार का रोड एक्सिडेंट हो गया। उनके सिर में गहरी चोट आई थी। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया और वहां पता चला कि अंदरूनी घातक जख़्म होने के कारण वो लकवाग्रस्त हो गए हैं।

शुरू में वो कोमा में चले गए थे। बाद में कुछ सुधार हुआ लेकिन अंततः पांच महीने बाद उनकी हालत बिगड़ी और मौत हो गई। वो हरियाणा के मानेसर में स्थित एक ऑटो पार्ट्स मेकर कंपनी बेलसोनिका में काम करते थे।

इसी कंपनी के मज़दूरों रामदास, जिले सिंह, सत्येंद्र कुमार, दिनेश की भी रोड ऐक्सिडेंट में मौत हो गई। ऐसे मज़दूरों की लंबी फेहरिश्त है।

भारत में औद्योगिक दुर्घटनाओं में मरने वाले मज़दूरों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है लेकिन कंपनी के बाहर भी मज़दूरों को अपनी जान हथेली पर रख कर चलना पड़ता है।

rohtash bellsonica
रोहतास कुमारः पिछले साल लॉकडाउन के दौरान बाइक से घर जाते हुए रोड एक्सिडेंट में गंभीर रूप से घायल होने के पांच महीने बाद दर्दनाक मौत हो गई।

इनमें अधिकतम नौजवान व जिनके ऊपर पूरा परिवार निर्भर होता है। यह आज के समाज में एक बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है। जिससे आम जन अनभिज्ञय है और इसके बारे में कभी गम्भीरता से सोचता भी नहीं है और इसे भाग्य का लिखा मान बैठता है।

बेलसोनिका आईएमटी मानेसर, गुड़गांव, हरियाणा में काम करने वाले पांच श्रमिक इस प्रकार की घटनाओं का शिकार हुए हैं।

1. रामदास (26) इनकी कंपनी से घर जाते समय दिनांक 26 सितम्बर 2015 को रोड एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई। वो वैल्ड शॉप विभाग में ठेका श्रमिक के रूप में पिछले 3 साल से कार्य कर रहे थे। ये गांव- जिवरा, जिला- रेवाड़ी, हरियाणा के रहने वाले थे जो कंपनी से करीब 31 किलोमीटर दूर है। परिवार में पिता सुबे सिंह और मां सुशीला देवी हैं, जो अब इस वृद्धावस्था में अब अकेले रहने को मजबूर हैं।

2. जिले सिंह (13.06.1974-22.02.2016) की घर से कंपनी में आते समय सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। ये एक जपानी स्टाफ के कार के ड्राइवर के रूप में ठेका श्रमिक के तहत लम्बे समय से कार्य कर रहे थे। ये गांव- किंदोखर, जिला- रेवाड़ी, हरियाणा के रहने वाले थे, जो कंपनी से करीब 39 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। परिवार में पिता रामपाल, पत्नी सरोज दो बेटियां महिमा ह्न्नी  व बेटा कपिल है।

3. सत्येंद्र कुमार (07.06.1989-17.10.2016) 27 वर्ष के थे। इनकी घर से ड्यूटी पर जाते समय सड़क हादसे में दुर्घटना के कारण मृत्यु हो गई। ये बेलसोनिका में डाई मेंटिनेंस विभाग में परमानेंट मज़दूर थे। ये गांव जैतपुर, जिला झज्जर, राज्य हरियाणा के रहने वाले थे, जो कंपनी से करीब 38 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। इनके परिवार में माता, पिता और पत्नी पूजा हैं जो इनकी मृत्यु के समय मात्र 22 वर्ष की थीं।

4. पच्चीस साल के दिनेश की 27 नवंबर 2017 को घर से कंपनी जाते समय एक सड़क हादसे में मौके पर ही मृत्यु हो गई थी। वो वैल्ड शॉप विभाग में पिछले करीब पांच साल से परमानेंट मज़दूर थे। ये गांव- पाली, तहसील- नारनोद, जिला- हिसार, राज्य- हरियाणा के रहने वाले थे, जो कंपनी से 142 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। इनके अलावा परिवार में पिता वजीर सिंह, मां बीरमती, पत्नी कौशिला देवी और एक छोटी मासूम बेटी तन्वी रानी हैं। बेटी इनकी मृत्यु के समय मात्र तीन माह की थी।

5. तैंतीस साल के रोहतास कुमार को विभाग वैल्ड शॉप में स्थाई तौर पर काम करते हुए 8 वर्ष हो चुके थे। ये गांव-भडोलावाली, जिला-फतेहाबाद, राज्य- हरियाणा के रहने वाले थे, जो कंपनी से करीब 244 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। जिनका 19 सितम्बर 2020 को कंपनी से अपने घर बाईक पर जाते समय रास्ते में रोड एक्सीडेंट हो गया था और सिर में गम्भीर चोट आई। एक तरीके से वह कोमा में चले गए थे। इनके शरीर के कुछ ही अंग काम कर रहे थे। लेकिन कुछ ही दिनों बाद इनकी स्थिति ओर ज्यादा नाजुक होती चली गई और अंत में पांच महीने के बाद दिनांक 21 फरवरी 2021 को इनकी मौत हो गई। इनके इलाज पर 15-16 लाख रुपए खर्च हुआ। ये अपने पीछे अपनी पत्नी पुष्पा रानी दो बच्चे जिसमें एक लड़की हिमांशी, एक लड़का प्रियांश और एक बूढ़ी मां ओमपति को अकेला छोड़ गए।

वर्तमान दौर में फैक्ट्रियों में कार्य करने वाले ज्यादातर मज़दूरों को किराए के कमरों में रहना पड़ता है। फैक्ट्री में कार्य करने वाले श्रेणीगत मज़दूरों को उनकी तनख्वाह के अनुसार ही रहन सहन करना पड़ता है।

फैक्ट्री में कार्य करने वाले ठेका मज़दूरों, अपरेंटिस आदि को या तो फैक्ट्री के नजदीक गांवों में रहना पड़ता है, या फिर शहरों में भी पिछड़ी हुई मज़दूर बस्तियों में रहना पड़ता है। अस्थाई मज़दूरों की तुलना में स्थाई मज़दूर कुछ अच्छी बस्तियों में रहते है वहीं पर कुछ स्थाई मज़दूरों के पास 10-15 सालों में अपने मकान हो जाते हैं।

ज्यादातर मज़दूर गांवों से संबंध रखते हैं। 100-200 किलोमीटर के आसपास के मज़दूर शनिवार को अपनी ड्यूटी खत्म करने के बाद अपने घरों की ओर जाते हैं।

अगर हम पुराने दौर की बात करे तो ज़्यादातर फैक्ट्रियां कार्य करने वाले स्थाई मज़दूरों को रहने के लिए पक्के मकान देती थी। लगभग तीन दशक पहले आई उदारीकरण-निजीकरण की पूंजीपरस्त नीतियों ने मज़दूर से ये अधिकार भी छीन लिया व एचआरए के रूप में कुछ पैसे देने शुरू कर दिए।

साथ ही ये संस्थाएं नजदीकी एरिया के मज़दूरों को काम पर भी बहुत कम रखती है या यूं कहें कि ना मात्र ही रखती है। कम्पनियां दूर दराज के मज़दूरों को ही ज्यादातर काम पर रखना पसंद करती है। जिसके पिछे भी कई एक कारण है।

ये दूर दराज के श्रमिक आज किराए के कमरों, पीजी आदि में रहने के लिए मजबूर हैं, मज़दूरों को घर से संस्था, संस्था से घर और संस्था से कमरे, कमरे से संस्था आदि जगहों पर आना जाना पड़ता है। जिसमें श्रमिकों को प्रतिदिन काफी समय व पैसा बरबाद करना पड़ता है।

मज़दूर अक्सर घर से कंपनी या अपने किराए के कमरे से कंपनी आते जाते दुर्घटनाओं के शिकार हो रहे हैं। इसी के चलते आज कंपनियों में कार्य करने वाले श्रमिकों की दुर्घटनाएं बहुत बड़ी मात्रा में बढ़ने लग गई हैं, जिसमें उनकी मृत्यु भी बड़ी मात्रा में हो रही है।

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(लेखक बेल सोनिका कंपनी में काम करते हैं और उसकी यूनियन बॉडी के सदस्य हैं।)

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