ग्रामीण भारत को अपनी पीठ पर ढोती दलित महिला मज़दूरों के लिए नहीं हैं श्रम क़ानून

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By दिव्या और रनी

ग्रामीण भारत का बोझ अपनी पीठ पर ढोने वाली दलित महिला मज़दूरों का शोषण पुरुषों के मुकाबले कई गुना अधिक होता है और 24 घंटे काम करने के बावजूद वो कंगाल ही बनी रहती हैं।

जामिया मिलिया विश्विद्यालय के स्टूडेंट्स के एक शोध में दलित महिला मज़दूरों के शोषण की अंतहीन कथाओं की ही पुष्टि होती है।

विवि के महिला अध्ययन में परास्नातक कर रहे विद्यार्थियों, दिव्या और रनी ने ये शोध पत्र में लिखा है और सुझाव दिया है कि ज़मीन के बंटवारे और खेतिहर मज़दूरों को भी श्रम क़ानूनों के दायरे में लाकर इनकी स्थिति में सुधार किया जा सकता है।

शोध में यह भी पाया गया कि दलित समुदाय के पास खुद की ज़मीन न होने के चलते जानवरों के चारे तक के लिए कोई साधन नहीं होते इस वजह से उन्हें जमींदारों के खेतों में काम करना ज़रूरी हो जाता है।

वरना जानवर पालकर उनका दूध बेचकर जो आय होती है वह भी नहीं होगी और परिवार की आर्थिक स्थिति पर संकट गहरा जाएगा।

जातीय समीकरण महिलाओं के काम के बंटवारे में स्पष्ट दिखाई देते हैं। गांव के उच्च जाति के लोगों की महिलाओं द्वारा खेत मे काम करना छोटा काम समझा जाता है लेकिन वहीं ये समाज दलित महिलाओं का घर से निकल खेत में काम करना आम बात मानी जाती है।

मामूली मज़दूरी पर भरपूर काम

दलित महिलाओं को उनके श्रम के बदले बहुत कम वेतन देकर भी काम चल जाता है, इसलिए प्राथमिकता में उन्हें खेतिहर मज़दूर के रूप में रख कर खेत मालिक दूसरे फायदे भी ढूंढते हैं। इस प्रक्रिया में दलित महिला मज़दूरों को यौन उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता है।

शोध में किए गए साक्षात्कार के दौरान एक महिला मजदूर, अंगूरी (नाम परिवर्तित), से मजदूरी करने की वजह पूछने पर उन्होंने बताया कि पति की मौत के बाद पूरे परिवार का खर्चा उन्हीं पर आ गया, खुद के खेत न होने के चलते दूसरों के खेत पर काम करना पड़ता है जिससे जानवरों के लिए चारा आ जाता है और उनका दूध बेच कर घर का गुजारा चल जाता है।

अंगूरी कहती हैं कि “मैं अपनी बेटी को भी कई बार काम पर ले जाती हूं, ज्यादा घास देने के एवज में मेरे और मेरी बेटी के साथ मालिक शारीरिक शोषण करने की कई बार कोशिश कर चुका है लेकिन कोई दूसरा काम न होने के चलते हमे वही काम करने पर मजबूर होना पड़ता है।”

कृषि अर्थशास्त्री जयति घोष कहती हैं, “खेत मालिक अपने मजदूरों को अपना गुलाम समझ लेते हैं और घर के निजी कार्य भी जैसे घर की साफ सफाई , पशुओं की देखभाल, बिना किसी मेहनताने के करवाते है। गांवों में भूमि मालिक महिला मजदूरों के लिए सोचता है कि मेरे दिए गए काम से तुम अपनी ज़िंदगी जी पा रहे हो, अगर में तुम्हें काम न दूं तो तुम्हारे पास भूख से मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा।”

एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत दुनिया में किसी समूह के साथ किये जाने वाला भेदभाव की लिस्ट में पहले स्थान पर है। दलित महिलाओं को समूह के नजरिये से देखने मे हम पाते हैं कि दुनिया मे सबसे ज्यादा उत्पीड़न दलित महिलाओं के समूह के साथ होता है।

दलित महिला मज़दूरों के सामने इन सभी विकट परिस्थितियों से पार पाना बेहद मुश्किल है परंतु नामुमकिन नहीं।

ज़मीन बंटवारे से सुधरेगी हालत

सहकारी खेती जैसे कदम इसमें मजबूती प्रदान कर सकते हैं, जमीन का निजी वितरण दलित महिला मज़दूरों की स्थिति सुधारने में मददगार साबित होगा।

खेत मज़दूर को भी श्रम कानून के दायरे में लाकर दलित महिलाओं को सामाजिक एवं कानूनी सुरक्षा मुहैया हो।

महिला श्रमिकों को भी शिक्षा और चेतना से अवगत कराया जाए, जिससे अपने उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी हो और उनका हनन होने पर वो आवाज बुलंद कर सकें।

स्वास्थ्य सेवा गांवों में मौजूद हो जिससे किसी भी तरह की खतरनाक बीमारी मजदूरों के शरीर में घर न कर सके।सरकार के द्वारा खेत मजदूरों के लिए पेंशन और काम का मूल्य निर्धारित किये जाने से दलित महिला श्रमिकों को सुरक्षा मिलेगी।

मुद्दा आधारित संघर्ष भी स्थिति को सुधार करने में कारगर साबित होगा जिससे क्षेत्रीय परिस्थितियों के अनुसार कारवाई कर समस्या से निदान पाया जा सके।

खेती पर समाज का 65% हिस्सा निर्भर है और महिलाओं की हिस्सेदारी तो और 5% ज्यादा है।

(लेख शोधार्थी दिव्या -रनी के मूल लेख पर आधारित है।)

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