दिहाड़ी मजदूर इतने बड़े पैमाने पर क्यों कर रहे हैं आत्महत्या?

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By स्वराजबीर

देश के दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्याओं के आंकड़े, उनकी दर्दनाक हालात बयान करते हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हाल ही में 2021 के जारी किए आंकड़ों के अनुसार, इस वर्ग में आत्महत्याओं का अनुपात अन्य वर्गों की तुलना में कहीं अधिक है।

कुल आत्महत्याओं में से 25.6 प्रतिशत इसी वर्ग से संबन्धित हैं। उनकी दयनीय स्थिति इस बात से भी जाहिर होती है कि पिछले कुछ सालों में ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं।

आत्महत्या करने वालों की संख्या 2014 में 15735 से 2020 में बढ़कर 37666 और 2021 में 42004 हो गई है। यह दुखद रुझान गरीब और हाशिएग्रस्त दिहाड़ीदार वर्ग की घोर वंचनाओं की मारी जिंदगी के प्रति समाज की उदासीनता दर्शाता है। पर रहने वाले दैनिक वेतन भोगियों का जीवन बुरी तरह पिस गया है यह समाज की उदासीनता को दर्शाता है।

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नीति आयोग के आंकड़ों के मुताबिक देश के कुल श्रमिकों का 85 प्रतिशत हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत दिहाड़ीदारों का ही है।

अगर पंजाब की ही बात करें तो पिछले दिनों मानसा जिले के तीन किसानों द्वारा एक दिन में की गई आत्महत्या की ख़बर से पंजाब में कर्ज के बोझ तले दबे किसान-मजदूरों का दर्दनाक मंजर एक बार फिर सामने आया है। एक दिन में एक या दो आत्महत्याएं अब आम बात हो गयी हैं।

आर्थिक तंगी एक बड़ा कारण

इसके बारे में कोई आधिकारिक, प्रशासनिक या सामाजिक टिप्पणी भी नहीं सामने आ रही। झुनीर प्रखंड के झोड़कियां थाना क्षेत्र के गांव उल्क के दो एकड़ के मालिक परमजीत सिंह की दो एकड़ के मालिकाना हक वाली जमीन और तीन एकड़ लीज़ की जमीन में बोई कपास को गुलाबी सुंडी चाट गई।

सरकार या सामाजिक सहायता की आशा में कुछ समय बीत गया लेकिन आखिर में उन्होंने जिंदगी की जगह मौत को गले लगा लिया।

इसी प्रखंड के गांव माखेवाला के गुरप्रीत ने आर्थिक तंगी के चलते अपने खेत में आत्महत्या कर ली। ख्याला कलां के 47 वर्षीय किसान जरनैल सिंह पर 7 लाख का कर्ज था।

फसलों की तबाही और पशुओं के रोग से परेशान जरनैल ने जहरीला पदार्थ निगल कर जीवन की जोत बुझा ली।

पंजाब के गरीब किसान-मजदूरों की तंगहाली का आंदजा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की उस रिपोर्ट से लगाया जा सकता है जो यह बताती है कि आज देश में बीमारी और उसका इलाज़ न करवा पाने की वजह से परेशान होकर जान देने वाले लोगों में पंजाब का आंकड़ा सर्वाधिक है।

नहीं उठाए गए ठोस कदम

चुनाव के समय हर पार्टी किसानों और कार्यकर्ताओं के जीवन को बेहतर बनाने के बारे में दावा करती है।

कैप्टन अमरिन्दर सिंह सरकार द्वारा एकत्र किए गए क़र्ज़ दस्तावेजों के अनुसार पंजाब के किसानों पर 31 मार्च 2017 तक 73777 करोड़ रुपये का संस्थागत क़र्ज़ था।

निजी या साहूकारों से लिया क़र्ज़ इससे अलग था। उस समय जब किसानों का क़र्ज़ माफ करने की बात चली तो मजदूरों ने भी अपनी क़र्ज़ माफी की गुहार लगाई। सर्वेक्षण के बाद हर मजदूर परिवार पर औसतन 77 हजार रुपये के क़र्ज़ का तथ्य सामने आया।

केंद्र और राज्य सरकारों ने कोई बड़ा कदम नहीं उठाया है। लंबे समय तक तो सरकारों ने कर्ज से होने वाली मौतों के तथ्यों को भी स्वीकार नहीं किया।

देश में लंबे समय से न्यूनतम मजदूरी कानून सही रूप में लागू नहीं होने के चलते दिहाड़ीदार वर्ग को उचित लाभ नहीं मिल पाया है बल्कि उनके लिए बनाई गई योजनाओं में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही बार-बार चर्चा होती रही है।

1980 के दशक में प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी के बयान को अक्सर उद्धृत किया जाता है कि दिल्ली से चलाई जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं के लिए 90 फीसदी पैसा रास्ते में ही गायब हो जाता है और केवल दस प्रतिशत ही सही जगह पर पहुंचता है।

महामारी के बाद स्थिति ज्यादा दयनीय

गरीबों की दयनीय स्थिति 2020 में कोरोना काल में देश को देखने को मिली थी। हज़ारों मजदूरों को आनन-फानन में पैदल ही अपने घरों को लौटना पड़ा।

अचानक की गई लॉकडाउन की घोषणा के कारण उनके पास बिना काम के कुछ दिनों तक जीवित रहने के लिए खाद्यान्न और अन्य जरूरी सामान भी नहीं था।

नोटबंदी और कोरोना की वजह से करोड़ों लोगों का रोजगार खत्म हो गया है और दिहाड़ी मजदूरों पर इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ी है।

सरकार ने 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने का फैसला किया था।यह दर्शाता है कि इस वर्ग के लिए जिंदगी जीने लायक रोजगार देने की गारंटी देना भी सरकार के बस में नहीं है।

आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार, मुनाफे की प्रमुखता वाले इस विकास मॉडल में मजदूरों की कोई सुनवाई नहीं है।

ऐसा महसूस किया जाता है कि ग्रामीण क्षेत्र के मजदूरों के लिए कम से कम सौ दिनों की गारंटी वाली मानरेगा एक विशाल योजना है लेकिन सरकारें इसे लागू करने के प्रति गंभीर नहीं हैं।

कोरोना काल में सरकार ने इस योजना के लिए 1 लाख 11 हजार करोड़ रुपये अलग रखे थे, लेकिन उसके बाद बजट घटा दिया गया था।

श्रम कानूनों में संशोधन के नाम पर लिए गए फैसले भी मजदूरों के खिलाफ जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ शहरी मजदूरों के लिए भी रोजगार गारंटी योजना शुरू करने की जरूरत है।

ऐसे रोजगार से बाजार में मांग पैदा होगी और मजदूर परिवारों को रोजगार मिलने के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलेगी।

मुआवजा कागजों तक ही सीमित

राज्य सरकार के आदेश के अनुसार पंजाब के तीन विश्वविद्यालयों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार 2000 से 2015 तक 16606 किसान-मजदूरों ने आत्महत्या की।

सरकार ने 2015 में आत्महत्या पीड़ितों के परिवारों के लिए राहत नीति तैयार की थी। इसके मुताबिक पहले दो लाख और फिर तीन लाख रुपये तत्काल आर्थिक राहत दिया जाना तय किया गया था।

कृषि एवं राजस्व विभाग के कर्मचारियों को इन परिवारों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कम से कम एक साल तक मदद करने का निर्देश दिया गया था।

पीड़ित परिवार को जिला उपायुक्त की अध्यक्षता में बनी समिति को तीन महीनों के भीतर आवेदन जमा करना होता है और समिति को एक महीने के भीतर अपना निर्णय लेना होता है।

पर यह नीति ज्यादातर कागजों का शृंगार मात्र है। कोई पीड़ित परिवारों को सहारा देता नज़र नहीं आ रहा। प्रख्यात पत्रकार पी. साईनाथ के अनुसार, यह कृषि का संकट नहीं सभ्यता का संकट है। इतनी मौतों के बावजूद सरकारी तंत्र और समाज पर कोई असर नहीं हो रहा। यह सरकार और समाज दोनों के लिए एक चुनौती है।

(लेखक पंजाबी कवि, नाटककार और पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक हैं।)

(जनचौक से साभार)

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