एक पीपल की मौत…

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By : संजय कबीर

इंसानी सभ्यता की यह कैसी विडंबना है! सुबह-सुबह जब हम अपने घरों से तैयार होकर दफ्तर के लिए निकलते हैं तो हमारे पैर तेज गति से चलते हैं। हम हर तरह से हड़बड़ी करते हैं। सुबह-सुबह उठकर, नहा-धोकर, तैयार होकर, दाढ़ी-मूंछ साफ करके और खूब अच्छी तरह से बाल काढ़कर, घर से निकलते हैं। उस समय हमारे चेहरे पर रौनक ही कुछ और रहती है।

कोशिश पूरी होती है कि कार्यालय पहुंचने तक वो चमक बरकरार रहे। अक्सर ही मेट्रो से उतरकर मैं तेज कदमों से भागता हुआ अपने दफ्तर की ओर जाता हूं। जबकि, मुझे पता होता है कि वहां पर कोई खुशी पूर्वक मेरा इंतजार नहीं कर रहा है। कोई मेरा स्वागत करने के लिए नहीं बैठा है। मुझे देखकर किसी को खुशी नहीं होगी। कार्यालय में मेरा कोई अपना नहीं है। वहां जो कुछ भी है वो कामकाजी है।

सिर्फ इसलिए है कि कई सारे लोग मिलकर एक ही काम कर रहे हैं। हो सकता है कि जिस दिन लोग मिलकर उस एक काम को करना बंद कर दें। उनमें से किसी की कभी मुलाकात भी नहीं हो। लेकिन, उन्हीं लोगों के पास पहुंचने के लिए हर कोई सुबह-सुबह तेज कदमों से चलता हुआ पहुंचता है।

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फ़ोटोः YUVSATTA

घर की ओर बढ़ते धीमे कदम

जबकि, वापसी में हालत इसके ठीक उलट होती है। घर पर हमारे घर वाले इंतजार करते होते हैं। बच्चे सुबह ही घर जल्दी आने का वायदा लिए होते हैं।

कार्यालय से लौटने का वे इंतजार करते हैं। उन्हें कोई उम्मीद होती है। कई बार तो वे घर की सीढ़ियां चढ़कर आने का भी इंतजार नहीं करते। घर का दरवाजा खोले खड़े रहते हैं। घर के भी दस काम पड़े होते हैं।

अगर गौर से देखिए तो सुबह घर से निकलने वाला हर कोई शाम को अपने घर लौटना चाहता है। लेकिन, घर लौटते समय वह उल्लास कहां चला जाता है। आंखों और चेहरे पर वो चमक नहीं होती है।

ऐसे लगता है कि सुबह का वो सबकुछ जो बहुत तरोताजा था, उल्लास से भरा था, उस सबकुछ को ऑफिस ने अपने अंदर सोख लिया है। अब सिकुड़ा-मुचड़ा सा आदमी किसी तरह से बस अपने घर पहुंच जाना चाहता है।

अक्सर ही मैं जब रात में घर लौटता हूं तब कदम बहुत धीमे-धीमे उठते हैं। मेट्रो से उतरकर मेरे जैसे ही तमाम थके-हारे लोगों की तरह ही मैं भी सुस्त कदमों से चलते हुए अपने घर की तरफ चल पड़ता हूं।

दरअसल, अपनी रोटी खाने के लिए जो काम मैं करता हूं, उसमें मुझे लगभग हमेशा ही देर हो जाती है। जिस समय लोग अपने घरों में खाना खाकर सोने की तैयारी कर रहे होते हैं, उस समय मैं अपनी किस्मत को लानतें भेजता हुआ धीरे-धीरे घर की तरफ जा रहा होता हूं।

इस दौरान ज्यादातर दुकानें बंद हो चुकी होती हैं या फिर दुकानदार अपनी दुकानों को बढ़ाने की तैयारी कर रहे होते हैं। कहीं पर कुछ-कुछ ऐसा भी नजारा देखने को मिल जाता कि कोई दुकानदार अपनी दुकान को बढ़ाने की फिराक में ही था कि गपियाने के मूड में आया कोई पड़ोसी उसे रोक लेता।

छेड़-छेड़ कर बातें करने लगता और दुकानदार ऊबा हुआ सा, उससे पीछा छुड़ाने की चिंता में दिखाई पड़ता। यही वो समय था जब दिन भर अपनी दुकान चलाने वाले बहुत सारे दुकानदार घर पर खाना खाकर कुछ देर मौज-मस्ती करने के लिए बाहर निकलते।

दिन भर उनका दुकान के काउंटर पर बीत चुका होता था। और अब साथ में बीबी और बच्चे भी होते। वे आइसक्रीम के ठेले पर दिखते। ठेले से आइसक्रीम चाटते हुए वे अपने घर की ओर दोबारा लौटते हुए दिखाई देते।

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नन्हे पीपल से पहली मुलाकात

ऐसी ही एक रात को मेट्रो से उतरकर मैं अपने घर को लौट रहा था। उस दिन मैंने इन तमाम बातों के साथ एक और बात पर गौर किया। मेरे ही रास्ते पर एक जगह पर सड़क के किनारे की जगह पर कुछ लोग कूड़ा डालते हैं।

खासतौर पर रात के समय यहां पर लोग अपने घरों का कचरा फेंक जाते। इसके चलते यहां पर पन्नियों में बंधे कचरों का छोटा-मोटा ढेर सा इकट्ठा हो जाता। कचरे के इसी छोटे से ढेर पर मैंने उसे पहली बार देखा।

वो एक पीपल का पेड़ था। गमले में लगा हुआ। गमले का एक हिस्सा टूटा हुआ था। वो उस पीपल का छोटा सा घर था। एक ऐसा घर जो उसके बहुत पहले से ही छोटा पड़ने लगा था। उस घर ने उसकी बढ़त रोक रखी थी। उसके पैरों की बेड़ियां बन गया था।

लेकिन, उसके पास कहीं और जाने का कोई चारा कहां था। वो लंबा और पतला था। उसकी डालियों पर कुछ पत्ते लगे हुए थे। उसमें कुछ पत्ते बड़े हो चुके थे। तो कुछ पत्तों के आगे की कलियां अभी खुलनी बाकी थीं। पहली नजर में ही जब मैंने उसे देखा तो मुझे वो कुछ मायूस सा लगा।

खैर, सुस्त कदमों से चलता हुआ और उसे भर नजर से देखता हुआ मैं आगे बढ़ गया। थोड़ी ही देर में मेरी नजर किसी और मंजर पर टिक गई और मैं उसे भूल भी गया।

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कुछ मायूस था पीपल

लेकिन, अगले दिन फिर जब मैं मेट्रो से उतरकर घर की तरफ आने लगा तो मेरी नजर एक बार फिर कचरे के उस छोटे से ढेर पर पड़ गई। एक कोने पर टूटे गमले वाला वह पीपल का पेड़ चुपचाप मायूस सा खड़ा था। गमले की मिट्टी में नमी भी कम पड़ने लगी थी। पेड़ के कुछ पत्ते भी पीले लगने लगे थे।

मैंने कहीं पढ़ा है कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को जो बहुत सारी बातें कहीं थीं, उनमें से एक यह बात भी उन्होंने कही थी कि मैं समस्त प्राणियों के हृदय में बसी हुई आत्मा हूं। उन्होंने कहा था कि मैं वेदों में सामवेद हूं, देवों में इंद्र हूं और इंद्रियों में मन हूं और भूत प्राणियों कि चेतना अर्थात जीवन शक्ति हूं।

इसी तरह से कहते हुए उन्होंने खुद को जलाशयों में समुद्र बताया। फिर ये भी कहा कि मैं सब वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं। भगवान ने भला खुद को पीपल का वृक्ष क्यों बताया होगा। आखिर वे कहना क्या चाहते होंगे। उनका संदेश क्या रहा होगा भला।

क्या कहें। क्या यह कहें कि हम लोग अपने कचरे की भी बहुत परवाह करते हैं। या फिर ये कि हम लोग अपने कचरे को लेकर जरा भी सचेत नहीं हैं।

हमारी नजर में जो कुछ बेकार हुआ नहीं कि हम उसे अपनी आंखों से ओझल कर देना चाहते हैं। उसके बाद उसका क्या होता है, हम इसके बारे में सोचना भी नहीं चाहते हैं।

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ढेरों पुरानी मूर्तियां

मैंने पीपल के बड़े-बड़े पेड़ों के चबूतरों पर भगवान की ढेरों पुरानी मूर्तियां, तस्वीरें और कैलेंडर पड़े देखे हैं। लोग अपने घर में नई मूर्तियां लाने के बाद पुरानी का क्या करें। उन्हें कुछ नहीं सूझता। उन्हें कचरे के ढेर पर भी नहीं फेंक सकते। तो फिर वे उसे किसी पेड़ के तने के नीचे रख देते हैं।

कई बार उन मूर्तियों के जरिए उन पेड़ों के नीचे पूजा शुरू हो जाती है। लेकिन, हर मूर्ति की किस्मत इतनी अच्छी तो नहीं होती है। जब यहां पर ढेर सारा धार्मिक कचरा जमा हो जाता है तो किसी दिन कोई सफाई करने वाला उन्हें एक साथ बटोर ले जाता है।

किसी ने इसी तरह से उस पीपल के पेड़ को भी लाकर कचरे के ढेर पर छोड़ दिया था। वही पीपल जिसे भगवान भी कह चुके हैं कि वृक्षों में वे पीपल का वृक्ष हैं। घर से निकाल दिए जाने पर वो मायूस था।

चुपचाप वहीं पर खड़ा हर आते-जाते को देखता रहता था। ऐसा कैसे होता है कि जिसे हम प्यार करते हैं, उसे भी घर से बाहर करने में हमें जरा भी देर नहीं लगती।

क्या मानव समाज मूलतः एक हिंसक समाज है। क्या हमारे प्यार के साथ-साथ उपेक्षा भी चलती रहती है। क्या यह सब कुछ सिर्फ एक ही सिक्के दो अलग-अलग पहलू हैं।

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एक नया मित्र

मेरी गली में एक परिवार रहता है। कुछ ही दिनों पहले वे एक कुत्ता ले आए। काले रंग का यह कुत्ता कुछ-कुछ लंबोतरा सा है। उसके पंजो पर हल्की सफेद आभा है। जबकि, माथे पर ऐसा लगता है जैसे कि किसी ने सफेद रंग का तिलक लगा रखा है।

पहले दिन ही उसने अपनी तरफ मेरा ध्यान खींच लिया। मैं तो अपने ऑफिस के लिए घर से निकला था। लेकिन, मुझे दूर से ही देखकर वह पूंछ हिलाने लगा। अपने पंजे आगे करके उसने मुझे अपनी तरफ खींच लिया।

मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा। गर्दन पर गुदगुदी करने लगा। उसने मेरी हथेली को अपने पूरे मुंह में भर लिया। वो अपने दांतों से मेरी हथेलियों को हल्के-हल्के दबाता रहा। अपने पंजे ऊपर रखते हुए मेरे घुटने से भी ऊपर पहुंचता रहा।

मुझे बहुत अच्छा लगता। फिर तो यह रोज का ही क्रम हो गया। इधर मेरे गेट का दरवाजा खुला नहीं कि वो उस आवाज को सुन लेता और जब मैं उसके घर के सामने से गुजरता तो वो मुझे देखकर अपनी पूंछ हिलाने लगता।

मैं भी उसके साथ थोड़ी देर खेलने के बाद ही आगे बढ़ता। लेकिन, धीरे-धीरे मैंने उसे अनाथ और बेसहारा होते हुए देखा। पता नहीं क्यों उस परिवार ने उसे ठुकरा दिया।

अब वे उसे अपने घर में घुसने नहीं देते। पूरी-पूरी रात उसे घर के बाहर, देहरी पर बितानी पड़ती। वो आवारा या बेघर कुत्ता नहीं था। उसे इसकी आदत भी नहीं पड़ी थी। मैं समझ सकता हूं कि रात-रात भर घर के बाहर रहकर उसे कितना डर लगता होगा।

कुत्ते एकदम घर के बच्चे जैसे होते हैं। वे वैसे ही प्यार करते हैं और वैसा ही प्यार पाने की उम्मीद भी करते हैं। कैसा लगता होगा किसी कुत्ते को जब जिन्हें वह अपने मां-बाप से भी ज्यादा समझता है, वे ही उसे ठुकराने लगते हैं।

उसके प्रति निष्ठुर हो जाते हैं। उसका दिल कितना टूट जाता होगा। कितनी ज्यादा उदासी उसके हिस्से में आ जाती होगी। एक दिन सुबह-सुबह मैंने देखा कि उस घर की छोटी बच्ची जब स्कूल जाने के लिए घर से बाहर निकली, उसी समय दरवाजा खुला देखकर जिम्मी घर के अंदर घुस गया।

अब वो बाहर आने के लिए ही तैयार नहीं है। वो बच्ची उसे फुसलाकर, बहलाकर बाहर निकालने का प्रयास कर रही है। उसे कुछ खिलाने का लालच भी दे रही है। लेकिन, रात भर घर के बाहर डर-डर कर काटने वाला जिम्मी किसी भी तरह से बाहर निकलने को तैयार नहीं था।

आज भी जब मैं उसकी तरफ से गुजरता हूं तो वो मुझे देखकर पूंछ हिलाने लगता है। अब उसके गले में कोई पट्टा नहीं है तो वो गली में इधर-उधर घूमकर अपने जिंदा रहने के गुर सीखने की कोशिश कर रहा है।

अक्सर ही मैं किसी तंद्रा में डूबा हुआ घर लौट रहा होता हूं और वो आकर मेरे हाथ को पहले सूंघने और फिर चाटने लगता है। अचानक ही उसे अपने पास पाकर मैं चौंक जाता हूं। पर अपनी पहल से उसके साथ खेलने की अब हिम्मत मेरे अंदर नहीं होती। मैं उससे कतराकर निकल जाने की कोशिश करता।

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घर में स्वागत

पीपल का वो पेड़ भी मुझे ऐसे ही कतराकर निकल जाने के लिए मजबूर करने लगा। मैं हर रोज आफिस से लौटते हुए उसे देखता। और वो भी चुपचाप मुझे देखता रहता। वो मुझसे कुछ कहता नहीं। मैं भी उससे कुछ कहता नहीं। बस मैं कतराकर निकल जाना चाहता। पर हमेशा ऐसा संभव कहां है।

तो एक दिन हम अपनी एक्टिवा से गए और उस पीपल के पेड़ को अपने साथ ले आए। हमने गमले को सावधानी के साथ एक्टिवा के आगे रखा और उसे किसी तरह का नुकसान नहीं हो, इसलिए गाड़ी को धीरे-धीरे चलाते हुए घर आ गए।

घर में प्लास्टिक की एक बाल्टी कुछ ही दिनों पहले टूटी थी। हमने उसे ही मिट्टी और खाद डालकर तैयार किया और पीपल को उस टूटे हुए गमले की कैद से आजाद कर दिया। इस बाल्टी में उसके लिए ज्यादा जगह थी।

नियमित तौर पर हम उसमें पानी डालते। कुछ ही दिनों में उसने तमाम जगहों से कल्ले फोड़ दिए। उसके लाल-लाल से पत्ते हमें हर समय उल्लास से भर देते। उसे देखना भी एक खुशी देता था। ऐसे लगता कि जैसे कोई किशोर अपने शारीरिक करतबों से सभी को रिझा लेना चाहता हो। वो उसी में बढ़ने लगा। जब पहली बार बरसात की बूंदें उस पर पड़ी तो जैसे उसकी एक-एक पत्ती खुशी से चमक उठी।

वो अपने पत्तों को हथेलियों की तरह से उठाकर बरसात की बूंदों को उसपर रोक लेता। बरसात की बूंदें उस पर गिरती और छन्न से टूट जाती।

कभी कोई रात होती और मेरी नींद उखड़ जाती। मैं जब बॉलकनी में जाता तो वो मेरा स्वागत करता हुआ मिलता। मैं अपनी उंगलियों के पोरों से धीरे-धीरे उसके पत्तों को छूता। उन पत्तों के नीचे बारीक नसों के फैले जाल को मैं महसूस कर सकता था।

पान के आकार की उसकी पत्ती और उसके पीछे निकली हुई लंबी सी पूंछ। उस पूछ को भी मैं अपनी उंगलियों के पोरों से छू लेता था। उसकी इस छुअन से जैसे मुझे सुकून आ जाता था।

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विशालकाय छवि

वो बहुत ही तेजी से बढ़ने लगा। मेरी निगाह में पीपल की हमेशा ही विशालकाय छवि रही है। एक महाकाय। जिसकी छाया बहुत कुछ अपने आगोश में ले लेती है।

एक ऐसे महाकाय के लिए वह बाल्टी बहुत ही छोटी पड़ने वाली है। मैंने पीपल के तनों के फैलने के साथ ही मजबूत चबूतरों को भी फटते हुए देखा है। ऐसे में जाहिर है कि उसे फलने-फूलने और बढ़ने के लिए और ज्यादा जगह की जरूरत थी।

कॉलोनी में हमारे फ्लैट से थोड़ा आगे, मुश्किल से तीस मीटर की दूरी पर नगर निगम का बारात घर है। यह एक सरकारी इमारत है। इस इमारत के पीछे की दीवार हमारी गली की तरफ है। यह कह सकते हैं कि वो हमारी तरफ पीठ करके खड़ा है। यहां पर पौधारोपण के लिए हमने कुछ जगहों पर कंक्रीट कटवाकर जगह बनवाई थी। लेकिन, उस समय तक अलग-अलग कारणों से यहां पर कोई पेड़ लग नहीं पाया था।

हमें लगा कि पीपल को यहां लगाया जा सकता है। एक दिन हमने चुपचाप बाल्टी से निकालकर पीपल को जमीन में लगा दिया। मेरी राय में किसी पीपल के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात क्या हो सकती है कि उसे जमीन मिल जाए।

यूं तो पीपल दीवार की ददारों में भी उग जाते हैं। लेकिन, जमीन की तो बात ही अलग होती है। यहां पर पानी के लिए किसी पर निर्भरता भी नहीं होती है। बस अपनी जड़ों को बढ़ाना होता है और मिट्टी से नमी खींचनी होती है। मानसून का सीजन था। पीपल ने जमीन में भी तेजी से जड़ें पकड़नी शुरू कर दी। यहां पर भी उसके नए-नए पत्ते आने लगे।

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अनहोनी का डर

ऐसे में एक दिन हमें बड़ा झटका सा लगा। हमारे पड़ोस में एक परिवार रहता था। हम आमतौर पर उस परिवार को बहुत ही सज्जन मानते थे और उसी अनुसार बर्ताव भी करते थे।

उस परिवार ने एक दिन घर की घंटी बजाई। उन्हें पीपल के पेड़ से ऐतराज था। पीपल का वो पेड़ उनके घर के एकदम सामने पड़ता था। उन्होंने हमारी मिन्नतें करनी शुरू कर दीं। कहा कि घर के आगे पीपल का पेड़ नहीं लगाया जाता।

हमने कहा कि पीपल के पेड़ की तो पूजा होती है। उन्होंने कहा कि पूजा तो होती हैं लेकिन घर के आगे नहीं लगाया जाता। ऐसा करना ठीक नहीं है। पेड़ के पेड़ पर आत्माएं बस जाती हैं। घर के आगे दूध का पेड़ नहीं लगाना चाहिए। ब्ला-ब्ला-ब्ला।

हमारे लिए यह बड़ी हैरत की बात थी। पीपल को पूजा तो जाता है। लेकिन, घर के आगे नहीं लगाया जाता। यह कैसी पूजा है। कोई ऐसा भी है जो पूजा करने के लिए तो ठीक है लेकिन अपने घर में लगाने के लिए नहीं।

उनका कहना था कि हम पीपल को वहां से निकालकर कहीं और लगा दें। हम लोग जब इसके लिए नहीं मानें तो वे मिन्नतें करने लगें। उनकी आवाज रूंआसी हो गई। पहले तो उन्होंने तमाम बातें कहीं फिर बताने लगे कि उनका एक जवान बेटा खतम हो गया था। अब उन्हें डर है कि कहीं कोई ऐसा अशुभ न हो जाए कि उनके दूसरे बेटे का कोई नुकसान हो। वे ऐसा नुकसान नहीं बरदाश्त कर सकते।

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अंतिम सफर

यूं तो हम उनकी बातों से जरा भी सहमत नहीं थे। लेकिन, पड़ोसी अगर मुंह फुला ले और अपनी यह भंगिमा लगातार आपके सामने जताता भी रहे तो फिर आपके सामने चारा ही क्या बचता है।

हमने उनकी बात को टालने की कोशिश की। लेकिन, वे हर समय हमारे सामने ऐसी ही भंगिमा देते। मुंह लटकाए, बार-बार पीपल को हटाने की मांग करते। इसे अब टालना संभव नहीं था। ऐसे में एक दिन पीपल को वहां से निकालकर हमने नजदीक ही एक पार्क में ले जाकर रोप दिया।

इस जगह को हमने पहले ही देख लिया था। दरअसल, यहां पर पहले एक पीपल का पेड़ था। लेकिन, बूढ़ा होने के चलते पीपल का यह पेड़ मर गया था और अब इसके ठूंठ के ही कुछ हिस्से यहां पर मौजूद थे।

हमने सोचा कि पीपल के ठूंठ के बगल में हम इसे लगा देंगे। कुछ सालों बाद हो सकता है कि वो वहीं पर एक विशालकाय पेड़ की जगह ले ले।

कुछ दिनों तक आते-जाते, उधर से गुजरते हुए, हम उसका हाल-चाल पूछते भी रहे। लेकिन, फिर वो बच नहीं पाया। शायद पहले तो उसके ऊपर की पत्तियां किसी ने नोंच ली।

क्या पता किसी जानवर ने खा ली हो या फिर किसी शरारती और बेपरवाह बच्चे ने उखाड़ लीं हों। फिर वो पीपल सूखने लगा। पत्तियां झड़ गईं। सिर्फ उसकी पतली-पतली डालियां रह गईं। उन डालियों में भी अब रस नहीं था। वे भी सूख रही थीं और काली होती जा रही थीं।

कई दिनों बाद एक बार मेरा उधर से गुजरना हुआ तो मैंने देखा कि उस विशालकाय ठूंठ के नीचे मेरा वह छोटा सा पीपल भी सूखा हुआ पड़ा था। उसकी मौत हो चुकी थी। आत्मा चली गई थी।

बस, पतली-पतली डालियों वाला वह छोटा सा ठूंठ ही बचा हुआ था। आप जानते हैं कि दुनिया में छोटे बच्चों की लाशें सबसे ज्यादा दुख देती हैं। उदास कर देती हैं।

जिसे मैंने गोद लिया था। मेरा वह पीपल भी मर चुका था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पर्यावरण पर दिलचस्प तरीके से लिखते रहे हैं। उनकी एक बहुत बहुचर्चित किताब है ‘चीताः भारतीय जंगलों का गुम शहजादा’।)

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