मजदूर प्रवासी क्यों हैं, देश के नागरिक क्यों नहीं?

workers on the road barefoot

By आशीष आनंद

साल 2006-07 की बात है। उत्तराखंड के हरिद्वार क्षेत्र में भीषण गर्मी के दौरान आंधी आई और बिजली सप्लाई बाधित हो गई।

शहरी क्षेत्र में कुछ घंटे बाद लाइट आ गई, बीएचईएल और उसके पास कुछ समृद्ध कॉलोनियों में बिजली आ गई, सिडकुल इंडस्ट्रियल एरिया में भी सप्लाई चालू हो गई।

लेकिन सिडकुल एरिया के आसपास मौजूद गांवों में घुप अंधेरा छा गया।

sidcul, haridwar

सहूलियतें मज़दूरों के लिए नहीं

ये अंधेरा तीन रात तक रहा। दिन में हाल और बुरा। इस इलाके में जलस्तर बहुत नीचा है और रेतीली मिट्टी है। हैंडपंप न के बराबर हैं।

गांवों में पेयजल सप्लाई के लिए ट्यूबवेल लगे हैं और वहां के टैंक में पानी भरने के बाद ही पानी मिल पाता है। तीन दिन बिजली न होने से ये आपूर्ति भी बंद हो गई।

इन गांवों में हजारों मजदूर रहते हैं, एक-एक कमरे में आठ-दस तक। ऐसे ही एक गांव रावली महदूद में दो इंडिया मार्का हैंडपंप भी थे, जिन पर सैकड़ों मजदूरों की कतारें लग गईं।

हैंडपंप का ये हाल कि दो-तीन लोग मिलकर उसका हत्था दबा सकें और आधे घंटे में आधी बाल्टी पानी भर सके। लेकिन इतना करना ही था, क्योंकि फैक्ट्रियां चालू थीं और काम पर जाना था।

समृद्ध मकान मालिकों के घर में जेनरेटर, इनवर्टर की रोशनी थी और पानी भी कहीं से भरकर मंगवा लिया।

ये सहूलियत मजदूरों के लिए नहीं थी। काफी लोगों को फैक्ट्री जाकर ही नित्यक्रिया निपटाना मजबूरी बना, जिसका खामियाजा उनको अपमानित होकर भुगतना पड़ा, कभी ठेकेदार से तो कभी सुपरवाइजर से।

worker’s room

ऐसा देशभर में बहुत जगह होता है, लेकिन मजदूर आबादी खामोशी से इस नर्क जैसी हालत को झेलकर भी जिंदगी जीती है। लॉकडाउन के दौरान सभी ने देखा कि मजदूरों को प्रवासी कहकर अपमानित किया गया, किया ही जा रहा है अब तक।

किसलिए प्रवासी हैं वे? जब वे उसी देश के नागरिक हैं और देश के एक हिस्से से दूसरे में रोजगार के लिए गए।

अगर वे उस जगह के मतदाता भी हों, जहां काम करते हैं, तो उनको उनके अधिकार और सुविधाओं का विस्तार होगा, वे नागरिक होने का अहसास कर सकते हैं, वे जनप्रतिनिधियों के लिए अपनी समस्याओं को हल करने के लिए मजबूर कर सकते हैं।

14 साल पहले इंकलाबी मजदूर केंद्र ने हरिद्वार में ये मांग उठाई

अब से लगभग 14 साल पहले इंकलाबी मजदूर केंद्र ने हरिद्वार में ये मांग उठाई थी, जब ये संगठन बना ही था। सिडकुल इंडस्ट्रियल एरिया, उसी के पास में ब्रह्मपुरी इंडस्ट्रियल एरिया और बहादराबाद इंडस्ट्रियल एरिया में हजारों की तादाद में दूसरे राज्यों या फिर उत्तराखंड के ही दूरदराज के रहने वाले थे।

इस क्षेत्र में आज भी ये हालात हैं कि आसपास के सभी गांवों में मूल आबादी के मतदाता 500-700 हैं और रहने वाले मजदूरों की संख्या दस-दस हजार तक है।

ये हजारों मजदूर आवास, पेयजल, सडक़, बिजली के लिए कुछ नहीं कह सकते। वे प्रधान, विधायक या सांसद चुनने में कोई भागीदारी नहीं निभाते, उनसे वोट भी कोई नहीं मांगता।

वे प्रवासी हैं, किराएदार हैं, बिहारी हैं। कोई इज्जत सम्मान नहीं उन मजदूरों का, जिनकी बदौलत इन इलाकों में रौनक है, यहां के लोग देखते ही देखते लखपति हो गए। इमके ने उस समय मजदूरों के बीच इस मांग का प्रचार भी किया और हरिद्वार के जिलाधिकारी को दर्जनों मजदूरों ने धरना देकर ज्ञापन भी दिया था।

कहने को चुनाव आयोग का निर्देश है, कि जो जहां रहता है, वहीं उसका वोट होना चाहिए। लेकिन इन मजदूरों को कोई वोट नहीं बनता, न किसी को बनाने में दिलचस्पी होती है। कुछ पढ़े लिखे लोग शहर और देहात में दोनों जगह वोट बनवा लेते हैं, ऐसी बड़ी संख्या है।

इन मजदूरों के भी वोट हैं, लेकिन उनके गांव में। उनको गांव में वोट डालने के लिए प्रत्याशी बुलाते हैं, ले जाते हैं, लेकिन उनकी आवाज पूरे साल दूसरे क्षेत्र में होती है, जो कि बंद भी रहती है।

ऐसे में उनके जीवन से किसी जगह के लोगों का कोई लेना देना नहीं होता। उनके लिए हर जगह बिहार है, हर जगह वे बिहारी हैं।

मजदूरों के मताधिकार को सुनिश्चित करने को इंडियन एक्सप्रेस में लेखिका तीस्ता सीतलवाड़ ने भी अब लिखा है।

इस छोटी सी मांग को सुनिश्चित किया जाना जरूरी है, जो कि मजदूर संगठनों को उठाना भी चाहिए, इसलिए कि इस बात को मजदूर और उनके संगठन ही बेहतर तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं।

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