फ्रांस के मेहनतकश वर्ग ने पेश की नज़ीर, न्यूनतम वेतन में चार लाख रु. बढ़वाए, ओवरटाइम की आय से टैक्स भी हटा

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आखिरकार फ्रांस के मज़दूर वर्ग ने अपने जुझारू संघर्ष की बदौलत कार्पोरेट की कठपुतली एमैनुएल मैक्रों की सरकार को झुका दिया।

फ़्रांसीसी सरकार ने न्यूनतम वेतन में प्रति माह 400 यूरो (कुल 32,616 रुपये) की बढ़ोत्तरी की घोषणा की है।

यानी सालान क़रीब तीन लाख 91 हज़ार रुपये की बढ़ोत्तरी। नया न्यूनतम वेतन 2019 से लागू होगा।

ये येलो वेस्ट आंदोलन को पहली बड़ी सफलता मिली है, जिससे पूरी दुनिया के मज़दूर वर्ग में एक ठोस संदेश जाएगा।

बीबीसी के अनुसार, मैक्रों ने टीवी पर घोषणा करते हुए टैक्स में छूट की भी बात कही है।

आसमान छूते पेट्रोल डीज़ल के दामों के ख़िलाफ़ 17 नवंबर को शुरू हुए हिंसक प्रदर्शन अभी तक जारी हैं।

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सप्ताहांत में पैरिस का नज़ारा। (फ़ोटोः @AnonsWorldwide)
बोनस, पेंशन, ओवर टाइम पर टैक्स वापस

पूरे फ्रांस की सड़कों पर पीला जैकेट पहने लाखों लोगों का समंदर उमड़ रहा है।

हर हफ्ते शनिवार-रविवार के दिन सड़कों पर गृहयुद्ध का सा नज़ारा दिखने लगा।

लोग कारोबारी कार्यालयों पर कब्जा करने, सरकारी इमारतों को नुकसान पहुंचाने से लेकर पुलिस के साथ सीधे भिड़ंत करने लगे।

फ्रांसीसी मेहनतकश वर्ग के इस विद्रोह में अब सेंट्रल ट्रेड यूनियनें और स्कूल कॉलेज के छात्र भी शामिल हो गए हैं।

बढ़ते दबाव के बीच फ्रांसीसी सरकार ने कर्मचारियों की कई अन्य मांगों पर घुटने टेके हैं।

पेंशन पाने वाले लोगों पर बढ़े टैक्स को वापस ले लिया है। ओवरटाइम की कमाई पर भी टैक्स नहीं लगेगा।

कंपनियां जो बोनस देती हैं उसे भी टैक्सफ्री करने की घोषणा की गई है।

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कार्पोरेट की नीतियां लागू करना महंगा पड़ा

महज 18 महीने पहले प्रचंड बहुमत से जीत कर राष्ट्रपति बने मैक्रों पहले बैंकर थे।

लेकिन मध्यमार्गी मैक्रों ने तमाम जुमलों के बावजूद आखिरकार उन्हीं नवउदारवादी नुस्खों को लागू करना शुरू कर दिया जिन्हें कार्पोरेट तीसरी दुनिया के देशों में लागू कर रहे हैं।

यानी वेतन को चीन और भारत के मज़दूरों के बराबर लाने के लिए कंपनियों को बिना अनुमति के ही हायर एंड फ़ायर की छूट देना, न्यूनतम वेतन को और निम्न स्तर पर रखना, मज़दूरों को मिलने वाली सुविधाओं को समाप्त करना।

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इसके अलावा पेंशन में कटौती करना, कल्याणकारी योजनाओं से हाथ खींचना, वर्कर और कंपनी के विवाद में कंपनी को तरजीह देना।

लेकिन इन सबका असर उल्टा होना था और हुआ। एक तरफ़ महंगाई बढ़ी, दूसरी तरफ लोगों की आमदनी में सरकारी घुन लग गया और लोगों की ज़िंदगी नर्क बनने लगी।

सबकुछ कार्पोरेट के हवाले कर देने की मैक्रों की नीति के प्रति असंतोष बढ़ता गया और गुस्सा जब फूटा तो अब मैक्रों की छवि भी तार तार हो गई।

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यूरोपीय देशों में कल्याणकारी योजनाओं पर होने वाले खर्च में फ्रांस सबसे आगे है। (साभारः यूरोस्टैट)
पूंजीवाद का गहराता संकट

कई दिनों तक तो मैक्रों इन प्रदर्शनों को नज़रअंदाज़ करते रहे लेकिन बढ़ते आक्रोश के चलते उन्हें बयान देना पड़ा।

उन्होंने माना कि अमीरी गरीबी के बीच बढ़ती खाई ने लोगों के जीवन स्तर को बुरी तरह प्रभावित किया है।

क्रांति की धरती फ्रांस में आधी सदी बाद हुआ इतने बड़े विद्रोह ने समूचे यूरोप और अमरीका के पूंजीवादी सिद्धांतकारों को चिंता में डाल दिया है।

पूरी दुनिया में पूंजीवाद एक ऐसे संकट में फिर से आ गया है जहां यूरोप के मेहनतकश वर्ग को भी लूटे बिना उसका काम नहीं चल पा रहा।

फ्रांस के मज़दूर वर्ग ने 21वीं सदी में भी दिखा दिया है कि पूंजीवाद की आक्रामकता का जवाब दिया जा सकता है।

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फ्रांसीसी विद्रोह। (फ़ोटोः @Szynkiem)
‘99% बनाम 1%’

कार्पोरेट जगत की आक्रामकता को रोका जा सकता है और उसे पीछे धकेला जा सकता है।

याद होगा कि 2008 की वैश्कविक मंदी के बाद 2011 में अमरीका में ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट का आंदोलन शुरू हुआ था।

उस समय एक नारा बहुत लोकप्रिय हुआ ‘99% बनाम 1%’, जिसका अर्थ था दुनिया में एक प्रतिशत दौलतमंद बाकी लोगों का हक़ छीन रहे हैं।

फ्रांसीसी आंदोलन ने एक बार फिर इस सवाल को दुनिया के समक्ष ला खड़ा किया है।

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