श्रम कानून के खिलाफ़ मज़दूर संगठनों का प्रदर्शन, किसानों के संसद मार्च को दिया समर्थन

1 अप्रैल से पूरे देश में लागू होने वाले नये श्रम कानूनों को केंद्र सरकार ने अगले आदेश तक रोक दिया है।

श्रम मंत्रालय के कई वरीय अधिकारियों के मुताबिक लेबर कोड को कुछ समय के लिए टाल दिया गया है। सरकारी चाहती है कि केंद्र सरकार के साथ कम से कम कुछ राज्य इन नियमों को नोटिफाई करें। लेकिन कई राज्य इन कानूनों को लेकर एकमत नहीं दिख रहे हैं।

खबरों के मुताबिक जम्मू और कश्मीर ने नये नियमों को नोटिफाई किया है जबकि यूपी,बिहार,उत्तराखंड और मध्य प्रदेश ने दो कोड्स को ड्राफ्ट किया है। वही कर्नाटक एक कोड को मानने के लिए तैयार है।

हांलाकि केंद्र सरकार ने इन कानूनों पर फिलहाल रोक लगाने का कारण राज्यों द्वारा नियम बनाने में देरी बता रही है।

लेकिन आशंका जताई जा रही है कि मज़दूर संगठनों के भारी विरोध के कारण सरकार नहीं चाहती कि किसान आंदोलन जैसा कोई आंदोलन फिर से खड़ा हो।

मज़दूर संगठनों ने किया जंतर-मंतर पर प्रदर्शन

लेबर कोड के खिलाफ़ एक अप्रैल को देश भर में ट्रेड यूनियनों और मज़दूर संगठनों ने जगह-जगह प्रदर्शन करते हुए नये श्रम कानूनों की प्रतियां जलाई।

दिल्ली के जंतर-मंतर पर इंटक, एटक, एचएमएस,सीटू, एक्टू, सेवा, टीयूसीसी, एआईयूटीयूसी, एलपीएफ और यूटीयूसी सहित तमाम सेंट्रल ट्रेड यूनियन के साथ-साथ इफ्टू,मासा जैसे संगठनों ने भी नये श्रम कानूनों के खिलाफ़ प्रदर्शनों में भाग लिया और श्रम कानून की प्रतियों को जलाया।

प्रदर्शन के दौरान सीटू के जनरल सेक्रेटरी कॉ. तपन सेन ने वर्कर्स यूनिटी के साथ बात करते हुए कहा कि” सरकार इन कानूनों के जरिए मज़दूरों को गुलाम बना देना चाहती है। कानून के जरिए मज़दूरों से आंदोलन करने का अधिकार, यूनियन बनाने का आधिकार यहां तक की न्यूनतम वेतन के लिए दबाव बनाने  जैसे अधिकार छीन लेना चाहती है। मज़दूरों के अधिकारों को अब प्रशासनिक अधिकारी तय करेंगे।”

उन्होंने आगे बताया कि मज़दूर अपने अधिकारों के साथ-साथ इस देश के गिरते-ढहते लोकतंत्र और संविधान को भी बचाने की लड़ाई लडेंगे और जितेंगे।

तपन सेन ने बताया कि सभी ट्रेड यूनियन किसानों के मांगों के भी साथ है और आने वाले मई महीने में प्रस्तावित संसद मार्च के दौरान भी पूरी सहभागिता देगा।

इंटक के राष्ट्रीय सचिव अशोक सिंह ने बताया कि “44 श्रम कानूनों को 4 श्रम कानून में बदल कर मज़दूरों के सारे अधिकार छीन लिये गये हैं। फिक्स टर्म अपाइंटमेंट के जरिए मज़दूरों को बंधुआ बना दिया जायेगा। कानून में लिख दिया है कि 12 घंटें काम लिया जायेगा और अब आश्वासन दे रहे है कि 8 घंटें ही काम लिया जायेगा मज़दूरों से।”

एचएमएस  से जुड़े कॉ. सिद्दु ने कहा कि “इन कानूनों के ड्राफ्टिंग के समय किसी मज़दूर संगठन से संपर्क नहीं किया गया। ये कानून सिर्फ और सिर्फ मालिकों के पक्ष को ध्यान में रख कर बनाये गये है। एक तरफ सरकारी संपत्तियों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है और दूसरी तरफ श्रम कानूनों के जरिए मज़दूरों के अधिकारों का हनन किया जा रहा है।”

हांलाकि इतने संगठनों के इस विरोध प्रदर्शनों से जुड़े होने के बाद भी लोगों की संख्या काफी कम रही।

बेलसोनिका मज़दूर यूनियन से जुड़े अजित सिंह ने बताया कि “मजदूरों के अंदर नये श्रम कानूनों को लेकर आक्रोश तो है। लेकिन मज़दूरों को स्थाई,अस्थाई और नीम जैसे कैटेगरी में बांट कर उनकी लड़ाई को तोड़ दिया जा रहा है। यूनियनें भी अक्सर इस सवाल से कन्नी काट लेती हैं और हर हड़ताल सिर्फ स्थायी मज़दूरों की मांगों पर आकर सिमट जाता है।”

वर्कर्स यूनिटी के इस सवाल पर कि आखिर क्यों मज़दूरों का इन कानूनों के खिलाफ़ कोई मज़बूत प्रतिरोध खड़ा नहीं हो पा रहा है का जवाब देते हुए मज़दूर कार्यकर्ता अर्जुन सिंह ने बताया कि “मज़दूरों के सामने आज जीवन और मरण का प्रश्न खड़ा कर दिया गया है। उनके लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करना कानून में हो रहे फेरबदल को समझने से ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया गया है।”

उन्होने आगे बताया कि “मज़दूर संगठन भी मज़दूर वर्ग तक इन कानूनों के वीभत्स प्रभाव को सही तरीके से पहुंचा पाने में पूरी तरह से नाकाम रही हैं। वही किसान संगठन सालों से किसानों के बीच काम कर रही हैं तब जाकर इतना बड़ा आंदोलन खड़ा हो पाया हैं।”

उधर केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने किसान मोर्चा द्वारा मई के पहले हफ्ते में संसद मार्च को पूरी तरह से समर्थन देते हुए ऐलान किया की मज़दूरों-किसानों की एकता ही इस सरकार के मंसूबों पर पानी फेर सकती है।

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